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विश्व शान्ति हेतु अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास एवं सार्थकता

विश्व शान्ति हेतु अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास एवं सार्थकता
विश्व शान्ति हेतु अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास एवं सार्थकता

विश्व शान्ति हेतु अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास एवं सार्थकता विषय को स्पष्ट कीजिए। 

विश्व शान्ति हेतु अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास एक सतत् प्रक्रिया का परिणाम हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का प्रमुख आधार है वैश्विक स्तर पर राष्ट्रों के बीच शांति एवं सुरक्षा बनाए रखना तथा इनका विकास।

पामर तथा पार्किन्स के अनुसार “अन्तर्राष्ट्रीय संगठन राज्यों के मध्य स्थापित वह सरकारी व्यवस्था है जिसकी स्थापना कुछ पारस्परिक लाभ प्रद कार्यों की नियमित बैठकों एवं स्टाफ द्वारा पूर्ण करने हेतु सामान्यतः एक आधारभूत समझौते द्वारा होती है। यदि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की इस सुविकासित परिभाषा को आधार बनाया जाए तो वर्तमान युग में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के कुछ ही उदाहरण प्राप्त हो सकेंगे जबकि पीटर की धारणा के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के कम से कम आदिम रूप में अस्तित्व कम से कम लिखित इतिहास का अधिकांश युग में रहा है।

विल्सन ने अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता के विषय में कहा है कि “भविष्य में संसार में शांति की स्थापना तभी संभव है जब हम एक अभिनव तथा ठोस कूटनीति अपनाएँ, संसार के बड़े राष्ट्र किसी भी आपसी समझौते को मान लें, शांति स्थापित करने के मूलभूत आधारों के विरुद्ध जब कोई गुट कार्य करे तो तुरन्त सामूहिक कार्यवाही की जा सके, तभी सभ्यता बनी रहेगी।”

अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के विकास के कारण अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के उद्विकास के लिए निम्न परिस्थितियों तथा तत्वों का विद्यमान होना जरूरी है-

(1) पूरा विश्व प्रभुत्व संपन्न राज्यों में विभाजित होना चाहिए।

(2) इन प्रभुत्वसम्पन्न राज्यों के पारस्परिक यथेष्ठ सम्पर्क होने चाहिए।

(3) इनन प्रभुत्वसम्पन्न राज्यों में पारस्परिक सम्पर्क तथा सह-अस्तित्व से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के प्रति जागरूकता होनी चाहिए।

(4) इन प्रभुत्वसम्पन्न राज्यों द्वारा यह स्वीकार किया जाना भी जरूरी है कि पारस्परिक सम्बन्धों को व्यवस्थित तथा नियमित करने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना आवश्यक है।

उपर्युक्त आवश्यक शर्तों की पूर्ति 18वीं शताब्दी के अन्त तक नहीं हुई। इनकी पूर्ति 19वीं शताब्दी में हुई, अतः इसी शताब्दी में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना हुई।

अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास

अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के विकास में निम्न समय महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं-

(i) यूनानी नगर राज्य काल में- प्राचीन यूनान के स्वर्णिम युग से बहुत पहले ही चीन, भारत, मेसोपोटामिया एवं मिस्र सहित विश्व के अनेक ज्ञात भागों में एक प्रकार के अन्तरराज्यीय संबंधों (Inter-State Relations) का अस्तित्व था। शासकों एवं राज्यों के मध्य सम्बन्ध असामान्य नहीं थे, बल्कि कूटनीतिक व्यवहारों, व्यापारिक संबंधों, मैत्री संधियों, यौद्धिक संहिताओं एवं शान्ति की शर्तों आदि के सम्बन्ध में समझौते या सहमति का पर्याप्त क्षेत्र विद्यमान था। गेरार्ड जे. मेनगोने (Gerard J. Mangone) के शब्दों में, “अतीत की संधियाँ अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की दिशा में प्रथम चरण थीं।”

आशय यह है कि यद्यपि विधि या संगठन का कुछ समान या एक मापदण्ड नहीं था तथापि कुछ सामान्य प्रथाएँ एवं व्यवहार इस बात के प्रमाण हैं कि कुछ सीमित क्षेत्रों के सामान्य अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के प्रारंभिक विचार विद्यमान थे। वाणिज्यिक सेवाओं (Consular Servics) का विकास शुरू हो गया था एवं वाणिज्यिक तथा कूटनीतिक अधिकारियों (Consular and Diplomatic officers) को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती थी। कुछ ऐसी प्रथाओं या रिवाजों का समूह था एवं अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शांतिपूर्ण समाधान (Peace Settlement) के स्थायी अभिकरण भी थे। पंच निर्णय या विवाचन (Arbitration) सामान्य बात थी।

(ii) रोम के सार्वभौमिक साम्राज्य से वेस्टफेलिया तक- अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की दिशा में रोमनों का योगदान कुछ भिन्न प्रकार का था। जब रोम ने एक प्रकार का सार्वभौमिक साम्राज्य (Universal Empire) स्थापित कर लिया, तब भी इस साम्राज्य के केन्द्रीय स्वरूप एवं चीन, भारत जैसे शक्ति केन्द्रों से इसकी दूरी कारण अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का मार्ग अवरुद्ध ही रहा। उस समय रोमनों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का विचार अपरिचित या विदेशी था। तथापि उन्होंने वैधानिक, सैनिक एवं प्रशासनिक तकनीकों की दिशा में योगदान किया एवं ‘जस-जेंशियम’ (Jus-Gentium) का वह आधार स्थापित किया जो आगामी शताब्दियों में अन्तर्राष्ट्रीय कानून का एक उर्वर सोत बन गया।

अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की दिशा में सन् 1414 में ‘कॉसटेंस परिषद्’ (The Council of Constance) एक महत्त्वपूर्ण कदम था। वह उस समय तक के इतिहास में एक बहुत ही दर्शनीय अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस थी जो पोपशाही के विरोधी दावी का समाधान करने के लिए एवं इस प्रकार यूरोप के राजनीतिक एवं आध्यात्मिक भाग्य की रूपरेखा निर्धारित करने हेतु आयोजित हुई थी।

पामर एवं पार्किन्स के अनुसार सम्पूर्ण मध्य युग में राजनीतिक, व्यापारिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में संधियों एवं संघों तथा समूहों का निर्माण होता रहा। उनमें ‘हंसेटिक संघ’ (The Hanseatic Leagve) बहुत ही महत्वपूर्ण था जिसका निर्माण मुख्यतः व्यापार विस्तार हेतु हुआ था लेकिन जिसने एक प्रकार के राजनीतिक संगठन का रूप धारण कर लिया।

(iii) वेस्टफेलिया से वियना तक- पामर एवं पार्किन्स के अनुसार मध्य युगीन व्यवस्था की समाप्ति तथा 15वीं, 16वीं एवं 17वीं शती में शनैः शनैः प्रोटेस्टेंट सुधार आंदोलन अलौकिक पुनर्जागरण खोजों एवं अन्वेषणों के फलस्वरूप व्यापार एवं वाणिज्य के विस्तार तथा वर्तमान राज्य व्यवस्था के उदय के साथ अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों ने एक नई दिशा और स्वरूप ग्रहण किया।

सन् 1648 में आयोजित होने वाली वेस्टफेलिया कांग्रेस (The Congress of Westphalia) अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के विकास की दिशा में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कदम थी। 18वीं शती में अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के निर्माण एवं शांतिपूर्ण संबंधों के विकास हेतु अनेक योजनाएँ प्रकाश में आई।

(iv) वियना से वर्साय तक- वियना कांग्रेस (The Congress of Vienna) नेपोलियन के पराभव के पश्चात् युद्धों को रोकने एवं यूरोप की राजनीतिक समस्याओं के समाधान हेतु आयोजित की गई। यूरोप के शासक पुरातन व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने के प्रयत्नों में आंशिक एवं अस्थाई रूप से ही सफल हुए। अपने कार्यों से जाने-अनजाने उन्होंने एक ऐसी राजनीतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की आधार शिला रख दी जो लगभग एक शताब्दी तक विश्व मामलों का मार्ग निर्देशन करती रही।

वियना कांग्रेस द्वारा स्थापित यूरोपीय व्यवस्था (The Concert of Europe) को यथार्थतः प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय संगठन कहा जा सकता है, जिसकी आधार शिला पर ही कालान्तर में राष्ट्र संघ एवं संयुक्त राष्ट्र संघ का निर्माण हुआ। इस संगठन के कारण यूरोपीय राज्यों में सहयोग की भावना का विकास हुआ जो बहुत समय तक जारी रही।

अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के इतिहास में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण विकास यह हुआ कि 19वीं सदी के अन्त तक 20वीं शदी के आरम्भ में अनेक अन्तर्राष्ट्रीय प्रशासकीय अभिकरणों या सार्वजनिक अन्तर्राष्ट्रीय संघों का उदय हुआ। आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के संदर्भ में राष्ट्रों के मध्य अनिवार्य सहयोग की मांग इन संगठनों के उदय का कारण थी। इस प्रकार के जो संगठन अस्तित्व में आए उनमें कुछ उल्लेखनीय थे- डेन्यूव संबंधी यूरोपीय आयोग, अन्तर्राष्ट्रीय गाडेटिक संघ, अन्तर्राष्ट्रीय टेलीग्राफ ब्यूरो, अन्तर्राष्ट्रीय डाक संघ, अन्तर्राष्ट्रीय नाप-तोल ब्यूरो, 1875 अन्तर्राष्ट्रीय कापीराइट संघ, 1886 सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी अन्तर्राष्ट्रीय कार्यालय तथा अन्तर्राष्ट्रीय कृषि संस्थान 1905 |

राष्ट्रसंघ के बाद अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास- प्रथम महायुद्ध की भयंकरता ने विश्व का राजनीतिज्ञों एवं विश्व जनमत को अहसास करा दिया कि स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन द्वारा ही संसार में शांति स्थापित हो सकती है। फलस्वरूप राष्ट्र संघ की स्थापना सन् 1919-20 में हुआ। इसकी स्थापना में फ्रांस, इंग्लैण्ड तथा संयुक्त राज्य अमेरिका ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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