वनों की कमी से होने वाले दुष्परिणामों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
वनों की कमी के दुष्परिणाम
वनों की कमी के दुष्परिणाम- वन किसी भी देश की अमूल्य निधि एवं राष्ट्रीय उन्नति के द्योतक माने जाते हैं। लेकिन वनों का अतिशोषण होने से उनकी कमी से अनेक परेशानियों तथा दुष्परिणामों का सामना करना पड़ता है। वनों की कमी के प्रमुख दुष्परिणामों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है—
1. मरुस्थलीय भूमि का विकास- जिन क्षेत्रों में वन काटकर समाप्त कर दिये जाते हैं, वहाँ नमी के अभाव, शुष्कता तथा तापमान की अधिकता के कारण मरुस्थलीय भूमि का विस्तार होने लगता है। वनों के अभाव में मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी आ जाती है तथा मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता भी समाप्त हो जाती है।
2. भूमि का कटाव- वृक्षों की जड़ें भूमि की मिट्टी को बाँधकर रखने में सहायक होती हैं। जब वन समाप्त हो जाते हैं तो वहाँ जड़ों द्वारा मिट्टी की पकड़ समाप्त तथा नमी की मात्रा कम हो जाने के कारण वायु तथा वर्षा के जल द्वारा तीव्र गति से भूमि का कटाव प्रारम्भ हो जाता है।
3. भयंकर बाढ़ों का प्रकोप- वर्षा का जल वनविहीन भूमि में तीव्र गति से बहता है जिसके कारण मिट्टी का कटाव अपेक्षाकृत अधिक होता है। यह मिट्टी कटकर बड़ी मात्रा में नदियों की घाटियों में जमा हो जाती है तथा नदियों के मार्ग अवरुद्ध हो जाने के कारण इनमें भयंकर बाढ़े आती हैं। इसके परिणामस्वरूप जन-धन की अपार हानि होती है।
4. मिट्टी में पोषक तत्वों का अभाव होना– वनयुक्त क्षेत्रों में पेड़ों की पत्तियाँ गिरकर भूमि में सड़-गल कर पोषक तत्वों का विकास करती हैं। लेकिन जब वनों को काटकर समाप्त कर दिया जाता है तो उस समय पेड़ों की पत्तियों तथा अन्य प्राकृतिक वनस्पति के अभाव में मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी आने लग जाती है।
5. वर्षा की कमी हो जाना- वनों के अभाव के फलस्वरूप वर्षा का अभाव पाया जाता है। जब किसी क्षेत्र में जल से युक्त हवाएँ गुजरती हैं तो वनों के अभाव के कारण ठण्डी न हो पाने के कारण वर्षा करवाने में असमर्थ रहती हैं जिसके फलस्वरूप सूखा पड़ जाता है। सम्पूर्ण वनस्पति तथा कृषि सूखकर समाप्त हो जाती है। पशुओं के लिए चारगाह स्थल समाप्त हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप पशुओं के लिए भोजन की कमी हो जाती है।
6. चरागाह स्थलों का विनाश- वनों के अभाव में वर्षा कम होती है। ऐसी अवस्था चारे या घास के उगने के लिए पानी का अभाव हो जाने के कारण चारागाह स्थलों की घास तथा अन्य छोटी प्राकृतिक वनस्पति सूख कर समाप्त हो जाती है। इसका पशुपालन व्यवसाय पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
7. जलवायु सम्बन्धी विषमता उत्पन्न हो जाना— वन क्षेत्रों में मिलने वाले वृक्षों की पत्तियों से निकलने वाली नमी वायुमण्डल की गर्मी को अवशोषित कर लेती है तथा मौसमी दशाओं को सम बनाती है। लेकिन वनों के अभाव में वायुमण्डल अपेक्षाकृत गर्म हो जाता है तथा दैनिक एवं वार्षिक तापमान में विषमता बढ़ने लग जाती है।
8. भूमिगत जल-स्तर नीचे चला जाना- वनों में पाये जाने वाले वृक्षों की पत्तियों तथा जड़ों में रुकावट के कारण वर्षा के जल की गति धीमी हो जाती है तथा जड़ों द्वारा ये वृक्ष पानी को घरातल के नीचे पहुँचा देते हैं जिसके फलस्वरूप भूमिगत जल-स्तर में वृद्धि हो जाती है। लेकिन इसके विपरीत वनस्पतिविहीन भूमि पर वर्षा का जल गिरते ही तीव्र गति से बहकर नदी-नालों के माध्यम से समुद्रों में चला जाता है अर्थात् पानी के पर्याप्त मात्रा में धरातल में प्रवेश न कर पाने के कारण भूमिगत जल-स्तर नीचे चला जाता है। इसके परिणामस्वरूप कुएं आदि सूख जाते हैं। इस प्रकार पीने तथा सिंचाई के कार्यों के लिए पानी के अभाव में समस्त फसलें व वनस्पति सूख जाती हैं।
9. उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना – वनों पर निर्भर रहने वाले उद्योगों जैसे लुग्दी उद्योग, कागज उद्योग, रेशम उद्योग, दियासलाई उद्योग, जलयान निर्माण उद्योग, फर्नीचर उद्योग तथा कृषि से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण उद्योग इनके अभाव के कारण बन्द हो जाते हैं।
10. उपयोगी वस्तुएँ कम हो जाना— वनों में साल, सागवान, देवदार, शीशम, चीड़, बबूल, फर आदि कीमती लकड़ी वाले वृक्ष पाये जाते हैं। इनके अभाव में इमारती लकड़ी, ईंधन के उपयोग में आने वाली लकड़ी, लुग्दी के उपयोग में आने वाली लकड़ी व कोयला बनाने वाली लकड़ी आदि मिलना बन्द हो जाती है। वनों के अभाव के फलस्वरूप बाँस, बेंत, लाख, राल, शहद, तेल, चमड़ा रंगने वाले पदार्थ समाप्त हो जाते हैं।
निष्कर्ष– वनों के अतिशोषण से इनकी कमी हो जाती है तथा इसके प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। अतः विश्व की सभ्यता को स्थायी बनाये रखने तथा प्राकृतिक सम्पत्ति के विशाल भण्डार को बनाये रखने के लिए वनों को काटे जाने से बचाना अत्यंत आवश्यक है।
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