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मौद्रिक नीति का अर्थ, परिभाषाएं, उद्देश्य, असफलतायें, मौद्रिक नीति एवं आर्थिक विकास

मौद्रिक नीति का अर्थ
मौद्रिक नीति का अर्थ

मौद्रिक नीति का अर्थ 

मौद्रिक नीति का अर्थ (Monetary Policy)– मौद्रिक नीति से आशय उन उपायों से है जो अर्थव्यवस्था में मुद्रा एवं साख की मात्रा को नियन्त्रित करने के लिए केन्द्रीय सरकार एवं केन्द्रीय बैंक द्वारा अपनाये जाते है। इस नीति के द्वारा किसी देश की सरकार तथा केन्द्रीय बैंक द्वारा अर्थव्यवस्था में किसी विशेष आर्थिक उद्देश्य की प्राप्ति हेतु मुद्रा की मात्रा, उसकी लागत एवं उसके उपयोग को नियन्त्रित किया जाता है।

मौद्रिक नीति की परिभाषाएं

मौद्रिक नीति की परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

(1) प्रो० हैरी जॉनसन के शब्दों में, “मौद्रिक नीति का अर्थ केन्द्रीय बैंक की उस नीति से होता है जिसके द्वारा केन्द्रीय बैंक सामान्य आर्थिक नीति के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुद्रा की पूर्ति पर नियन्त्रण करता है। “

(2) पॉल आइजंग के शब्दों में, “मौद्रिक नीति के अन्तर्गत वे सब मौद्रिक एवं अमौद्रिक निर्णय एवं उपाय सम्मिलित होते हैं जिनका उद्देश्य मौद्रिक प्रणाली पर प्रभाव डालना होता  है। “

(3) कैन्ट के अनुसार, “मौद्रिक नीति किसी निश्चित उद्देश्य, जैसे- रोजगार को प्राप्त करने के लिए चलन में मुद्रा की मात्रा के विस्तार तथा प्रबन्ध करना होता है।

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मौद्रिक नीति एवं आर्थिक विकास (महत्त्व) (Importance)

मौद्रिक नीति आर्थिक विकास के विविध पहलुओं को स्पर्श करती है। इसके प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं-

1. बैंक मुद्रा को बढ़ाकार आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना- विकासशील देशों में विनियोग वृद्धि के लिए बचत आवश्यक होती है, लेकिन इन राष्ट्रों में प्रति व्यक्ति आय एवं राष्ट्रीय आय कम होने के परिणामस्वरूप बचत की मात्रा भी कम होती है। इसलिए आर्थिक विकास के लिए अतिरिक्त साधन जुटाने के लिए बैंक मुद्रा का सृजन करना जरूरी होता है, किन्तु बैंक मुद्रा के उपयोग उपभोग पर न करके सिर्फ विनियोग के लिए ही होना चाहिए। इस तरह विनियोग बढ़ाने के लिए मौद्रिक नीति के द्वारा बैंक मुद्रा का प्रसार करके आर्थिक विकास को प्रोत्साहित किया जाता है।

2. घाटे की वित्त व्यवस्था एवं आर्थिक विकास- अविकसित एवं विकासशील देशों में विनियोग वृद्धि के लिए अतिरिक्त साधनों को जुटाने का एक उपाय घाटे की वित्त व्यवस्था करना है। इसके अन्तर्गत सरकार केन्द्रीय एवं व्यावसायिक बैंकों से ऋण लेकर या अतिरिक्त मात्रा में नोट जारी करके विनियोग के साधन जुटाती है। घाटे की वित्त व्यवस्था का प्रयोग दो प्रकार से किया जाता है। पहला- इसे दीर्घकालीन नीति के रूप में प्रयोग किया जाता है, जब तक कि अर्थव्यवस्था स्वयं विकास की मंजिल पर न पहुँच जाय। दूसरा- – इस नीति का प्रयोग अल्पकालीन नीति के रूप में किया जाय, जबकि अल्पकालीन साधनों की कमी की पूर्ति करना होता है।

3. ब्याज दर में कमी तथा आर्थिक विकास- अविकसित एवं अर्द्ध-विकसित देशों के विकास के लिए ब्याज की दर कम होना कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होता है। इन देशों में राष्ट्रीय एवं प्रति व्यक्ति आय कम होने से पूँजी संचय भी कम होता है। इस कारण विनियोग के लिए पूँजी का अभाव होता है। फलस्वरूप विदेशों से ऋण लेना जारी हो जाता है इसलिए इन देशों में ब्याज की दर का न्यून होना आवश्यक है। इसके अलावा सरकार को विनियोग के लिए आन्तरिक ऋणों को भी लेना पड़ता है। इसलिए ब्याज दर निम्न होने पर ऋण लेने में सुविधा होती है एवं ब्याज के रूप में सरकार को कम राशि खर्च करनी पड़ेगी।

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मौद्रिक नीति के उद्देश्य

मौद्रिक नीति के चार प्रमुख उद्देश्य होते हैं –

(1) पूर्ण रोजगार – पूर्ण रोजगार का तर्कसंगत अर्थ यह है कि प्रत्येक योग्य व्यक्ति जो काम करना चाहता है को रोजगार मिलना चाहिए। व्यवहार में यह स्थिति असम्भव है। अतः अर्थशास्त्रियों ने पूर्ण रोजगार को 100% रोजगार न मान कर 95 से 97 प्रतिशत रोजगार की स्थिति माना है ।

(2) मूल्य में स्थात्वि – कीमतों में स्थिरता से मुद्रा का मूल्य स्थिर रहता है। मौद्रिक नीतियों के द्वारा कीमतों में चक्रीय उच्चावचनों को दूर किया जा सकता है, आर्थिक स्थिरता प्राप्त की जा सकती है, आय एवं सम्पत्ति की असमानता दूर की जा सकती है तथा सामाजिक न्याय स्थापित कर आर्थिक कल्याण में वृद्धि की जा सकती है।

(3) विनिमय स्थिरता- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना के बाद विनिमय दरों में स्थिरता का दायित्व मुद्रा कोष को सौंपा गया एवं मौद्रिक नीति का लक्ष्य आंतरिक कीमतों में स्थिरता रखा गया किन्तु 1976 में राष्ट्रों द्वारा स्वतन्त्र विनिमय दरों के निर्धारण को वैधानिक मान्यता प्रदान कर दी गयी। जिन देशों की अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार का महत्त्वपूर्ण स्थान है उन्हें विनिमय दरों में स्थिरता रखने के लिए मौद्रिक नीति का प्रयोग करना चाहिए।

4. आर्थिक विकास- अल्पविकसित देशों में मौद्रिक नीति का प्रमुख उद्देश्य ‘आर्थिक विकास’ माना गया है। ‘स्थिरता के साथ विकास’ आज के अल्पविकसित देशों की प्रमुख आवश्यकता है। जहाँ मौद्रिक नीति के अन्य उद्देश्यों के अन्तर्गत देश की अर्थव्यवस्था के बारे में मुद्रा- अधिकारी का दृष्टिकोण आंशिक या अल्पकालीन होता है, वहाँ विकास-उद्देश्य के अन्तर्गत उसका दृष्टिकोण पूर्ण या दीर्घकालीन होता है। मौद्रिक नीति का विकास-उद्देश्य इनके अन्य उद्देश्यों के साथ घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित भी है। अल्पविकसित देशों में ‘स्थिरता के साथ विकास’ के उद्देश्य की पूर्ति के लिए नीति को दो मानदण्डों की सन्तुष्टि अवश्य करनी चाहिए-(1) मौद्रिक नीति लचीली होनी चाहिए तथा (2) मौद्रिक नीति पूँजी निर्माण को प्रोत्साहित करने वाली होनी चाहिए।

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विकासशील देशों में मौद्रिक नीति की सफलता में बाधा डालने वाले घटक

मौद्रिक नीति की सफलता में बाधा डालने वाले घटक मुख्यता निम्नलिखित हैं-

(1) अमौद्रिक क्षेत्र की विद्यमानता- विकासशील देशों में बहुत बड़ा भाग ऐसे सौदों का होता है जो मुद्रा में नहीं किये जाते हैं। इस प्रकार के लेनदेन पारस्परिक विनिमय के आधार पर होते हैं। अतः उनके लिए मुद्रा का कोई महत्त्व नहीं होता है और मौद्रिक नीति इन पर कोई प्रभाव नहीं डालती।

(2) असंगति मुद्रा बाजार- विकासशील देशों में सम्पूर्ण साख व्यवस्था बैंकिंग क्षेत्र द्वारा नहीं की जाती है। वहाँ देशी बैंकर और साहूकारों द्वारा बहुत बड़ी मात्रा में बैंकिंग कार्य किया जाता है और इन पर सरकार की मौद्रिक नीतियों का बहुत कम असर पड़ता है। अतः मौद्रिक नीति को कम सफलता मिलती है।

(3) सुव्यवस्थित स्कन्ध विनिमयों का अभाव- विकासशील देशों में प्रायः सुव्यवस्थित स्कन्ध विनिमय भी नहीं होते अतः इन देशों में सरकारी प्रतिभूतियाँ खरीदने और  बेचने में भी असुविधा होती है और मौद्रिक नीति असफल रहती है।

(4) लोचदार बैंकिंग व्यवस्था का अभाव- विकासशील देशों में केन्द्रीय बैंक और व्यापारिक बैंकों के सम्बन्ध अधिक अच्छे नहीं होते हैं। अतः मौद्रिक नीति की सफलता संदिग्ध रहती है।

मौद्रिक नीति की असफलतायें (Failures of Fiscal Policy) –

भारत में मौद्रिक नीति के चार प्रमुख उद्देश्य थे- पूर्ण रोजगार, कीमत स्थिरता, आर्थिक विकास तथा भुगतान शेष सन्तुलन ।

जहाँ तक पूर्ण रोजगार का प्रश्न है तो पूर्ण रोजगार से तात्पर्य है कि प्रत्येक काम में योग्य व्यक्ति जो कि काम करना चाहता है को रोजगार उपलब्ध हो परन्तु वर्तमान मौद्रिक नीति अपने इस उद्देश्य को प्राप्त करने में असफल रही है। आज भी बेरोजगारी की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

कीमत स्थिरता के उद्देश्य को भी मौद्रिक नीति की असफलता ही कहा जायेगा क्योंकि भारत में कीमतों की स्थिरता की स्थिति उद्देश्यों के बिल्कुल विपरीत ही है। पूँजीपति तथा उद्योगपति अपनी मर्जी के अनुसार बाजार पर नियन्त्रण करके कीमतों में परिवर्तन करते रहते हैं। सरकार का वस्तुओं की कीमत पर कोई भी नियन्त्रण नहीं रहा है अत: यह कहा जा सकता है कि मौद्रिक नीति अपने इस उद्देश्य में भी असफल रही है।

आर्थिक विकास के क्षेत्र में भी कोई विशेष प्रगति दिखायी नहीं देती है। आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी देश की प्रति व्यक्ति आय दीर्घकालीन अवधि में बढ़ती है। आर्थिक विकास का माप इस बात से होता है देश में पैदा की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं की मात्रा में किस गति से वृद्धि हो रही है। परन्तु इस क्षेत्र में भी कोई खास प्रगति नहीं हो सकी।

अतः कुल मिलाकर यदि कहा जाये तो देश की मौद्रिक नीति पूरी तरह से असफल रही । वह अपने किसी भी उल्लेख को पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सकी है। आंशिक सफलता जरूर प्राप्त हुई हैं।

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