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राजकोषीय नीति का अर्थ, परिभाषाएं, उद्देश्य, उपकरण तथा विशेषताएँ

राजकोषीय नीति का अर्थ
राजकोषीय नीति का अर्थ

राजकोषीय नीति का अर्थ-Fiscal Policy in Hindi

राजकोषीय नीति का अर्थ (Fiscal Policy)- राजकोषीय नीति सरकार की वह नीति है जिसके अन्तर्गत सरकार अपने व्यय और अन्य सम्बन्धित कार्यक्रमों को राष्ट्रीय उत्पादन एवं रोजगार पर वांछित प्रभाव डालने तथा अवांछित प्रभाव रोकने के लिए प्रयुक्त की जाती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि राजकोषीय नीति का सीधा सम्बन्ध राजकोष अथवा राजस्व से है जो सार्वजनिक आय-व्यय तथा ऋण से सम्बन्धित है। आजकल राजकोषीय नीति को आर्थिक स्थिरता का पर्याय माना जाता है।

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राजकोषीय नीति की परिभाषाएं

निम्नलिखित परिभाषाएं हैं

(1) प्रोफेसर क्लबरस्टोन के शब्दों में, “राजकोषीय नीति में सरकार के उन कार्यों का समावेश होता है, जो सरकार की आय-व्यय को प्रभावित करते हैं, जिसका माप सरकार की वास्तविक प्राप्ति, उसके आधिक्य या घाटे से होता है। “

(2) ओटो एक्सटीन के मतानुसार, “राजकोषीय नीति से आशय करों एवं व्यय में होने वाले परिवर्तनों से है, जिनका उद्देश्य पूर्ण रोजगार और मूल्य में स्थायित्व के अल्पकालीन लक्ष्यों को प्राप्त करना है। ” निष्कर्ष-उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि “राजकोषीय नीति एक ऐसी नीति है, जिसकी सहायता से अर्थव्यवस्था में रोजगार तथा स्थायित्व को प्राप्त किया जाता है। इसे क्रियात्मक वित्त की संज्ञा भी दी जाती है। “

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राजकोषीय नीति के उद्देश्य (Objects)

(1) आर्थिक स्थिरता- विकासशील देशों में आर्थिक तेजी तथा मंदी की स्थिति आती रहती है। इसे चक्रीय उच्चावचन कहते हैं। आर्थिक तेजी तथा मंदी की दशा को समाप्त कर आर्थिक स्थिरता लाने में राजकोषीय नीति का विशेष योगदान होता है।

(2) मुद्रा प्रसार पर नियन्त्रण- विकासशील देश मुद्रास्फीति की समस्या से ग्रसित रहते हैं। ऐसे देश में साधनों की माँग एवं पूर्ति के बीच असन्तुलन पाया जाता है। माँग में वृद्धि तथा पूर्ति में कमी के कारण मूल्यों में वृद्धि होती है। सरकार की नीति के माध्यम से निजी क्षेत्रों को निवेश के लिए प्रोत्साहित कर उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है और मुद्रास्फीति पर नियन्त्रण किया जा सकता है।

(3) राष्ट्रीय आय में वृद्धि – राजकोषीय नीति का उद्देश्य राष्ट्रीय आय को बढ़ाकर ऐसे ढंग से पुनर्निर्माण करना चाहिए कि आय और धन की असमानता दूर हो जिससे समाज में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो तथा लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो सके। जनसाधारण की आय में वृद्धि तथा उच्च वर्ग की आय में कमी राजकोषीय नीति का उद्देश्य होना चाहिए।

(4) विनियोग की दर बढ़ाना- राजकोषीय नीति इस उद्देश्य को ध्यान में रखकार बनायी जाती है कि लोग निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में अधिक से अधिक विनियोग करें। राजकोषीय नीति का उद्देश्य होता है अर्थव्यवस्था के नीति तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में विनियोग को बढ़ावा देना। इस उद्देश्य को पाने के लिए वास्तविक तथा संभाव्य उपभोग को रोकना चाहिए तथा वृद्धिशील बचत अनुपात को बढ़ावा देना चाहिए।

(5) निवेश को प्रोत्साहन-राजकोषीय नीति का दूसरा उद्देश्य निवेश के प्रवाह को उस दिशा में प्रोत्साहित करना है जो क्षेत्र सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।

(6) रोजगार के अवसर- राजकोषीय नीति का उद्देश्य बेकारी मिटाना तथा रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना होता है। सरकार को अपनी राजकोषीय नीति बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि सरकारी व्यय ऐसे मदों में होने चाहिए जिससे रोजगार के अवसर बढ़े।

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राजकोषीय नीति के उपकरण / अस्त्र (Instruments)

राजकोषीय नीति को कार्यान्वित करने के लिए जिन विविध उपकरणों/अस्त्रों का प्रयोग किया गया है, उनका संक्षिप्त वर्णन निम्नवत् है। इन उपकरणों का समुचित प्रयोग करके आर्थिक विकास हेतु पर्याप्त वित्त को सुलभ कराना चाहिए-

1. बजट नीति

राजकोषीय नीति का मुख्य उपकरण ‘बजट’ है जिसके द्वारा सरकार आय एवं व्यय में सम्बन्ध स्थापित कर अर्थव्यवस्था को नियन्त्रित करती है। विभन्न बजट स्थितियाँ निम्न प्रकार हैं

(i) घाटे का बजट- आर्थिक मन्दी के समय घाटे के बजट की मुख्य भूमिका होती है। जब आय की तुलना में सरकार का व्यय अधिक होता है तब अर्थव्यवस्था में क्रय शक्ति की अधिक मात्रा प्रवाहित होती है, जिससे कुल माँग में वृद्धि होती है। परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था को मन्दी से छुटकारा मिल जाता है। इसके अतिरिक्त व्यय वृद्धि न करके करों की मात्रा में कमी करके भी जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाकर माँग में वृद्धि की जा सकती है। यदि करों में कमी के साथ सरकारी व्ययों में भी वृद्धि की जाय तब आर्थिक मन्दी से अल्प अवधि में ही छुटकारा पाया जा सकता है।

(ii) आधिक्य का बजट- जब अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति का प्रभाव बढ़ रहा हो, मूल्य स्तर तीव्र गति से ऊँचा उठ रहा हो, तब मुद्रास्फीति के खतरे से अर्थव्यवस्था को बाहर निकालने के लिए आधिक्य का बजट तैयार किया जाता है। इस बजट नीति में सरकारी आय उसके व्ययों से अधिक होती है अर्थात् सरकार अधिक कर व शुल्क लगाकार जनता की अतिरिक्त क्रय शक्ति अधिगृहीत कर लेती है, जिससे माँग घट जाती है। परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था स्फीति काल से बाहर आने लगती है और मूल्य स्तर स्थायित्व की ओर अग्रसर हो जाते हैं।

(iii) सन्तुलित बजट- जब सरकारी आय-व्यय साम्य की स्थिति में हों तब यह सन्तुलित बजट कहलाता है। सन्तुलित बजट में करों में वृद्धि के साथ-साथ व्ययों में वृद्धि समानता की मान्यता तो पूरी होती है, परन्तु करों में वृद्धि के कारण उपभोग में आयी कमी सरकारी व्यय की तुलना में कम होने से राष्ट्रीय आय बढ़ती है, इसे सन्तुलित बजट का प्रयोग गुणक कहा जाता है।

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2. सार्वजनिक व्यय नीति

सार्वजनिक व्यय भी एक ऐसा राजकोषीय उपकरण है जिसके माध्यम से अर्थव्यवस्था में वांछित परिवर्तन लाये जा सकते हैं। यह उपकरण निम्न दो रूपों में प्रयोग किया जाता है-

(i) क्षतिपूरक खर्च- जब उद्योग व व्यवयाय में निजी विनियोग कम किये जा रहे हों तब सरकार द्वारा किये गये सार्वजनिक व्यय रोजगार के अवसरों में वृद्धि करते हैं, जिससे उत्पादन व आय में वृद्धि होती है। यह व्यय उस समय तक जारी रहता है, जब तक निजी विनियोग सामान्य स्थिति में नहीं आ जाते हैं। सार्वजनिक व्यय के कारण जब अर्थव्यवस्था उत्थान की स्थिति में आने लगे तब व्ययों को शनैः शनैः कम किया जाना चाहिए ताकि मुद्रास्फीति की स्थिति पैदा न हो। प्रायः क्षतिपूरक व्यय की व्यवस्था नयी मुद्रा छापकर की जाती है। कभी-कभी सरकार ऋण का सहारा भी लेती है। वस्तुत: सार्वजनिक व्यय एक प्रकार का सन्तुलन व्यय तत्व है जो राष्ट्रीय आय को एक निश्चित स्तर पर बनाये रखने में सहायक सिद्ध होता है।

(ii) समुद्दीपन खर्च- समुद्दीपन खर्च से आशय है कि सरकारी व्यय अस्थायी रूप में किये जायँ, जिससे आर्थिक क्रियाओं को गति मिले जो भविष्य में बिना सरकारी व्यय के स्वयं स्फूर्त होकर अर्थव्यवस्था को आर्थिक विकास के पक्ष की ओर अग्रसर कर सके। यदि आर्थिक मन्दी के समय प्रारम्भिक सार्वजनिक व्यय कर दिये जायें तब अर्थव्यवस्था की गति की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। उदाहरणार्थ, स्कूटर में किक मारना समुद्दीपन का कार्य है जिससे इंजन बाद में स्वतः चलता रहता है। इसी प्रकार प्रारम्भिक सार्वजनिक व्यय अर्थव्यवस्था के समुद्दीपन का कार्य करते हैं जिससे अर्थव्यवस्था स्वयं स्फूर्त होकर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो जाती है।

3. करारोपण नीति

राजकोषीय नीति का प्रमुख उपकरण करारोपण भी है। सरकार द्वारा करारोपण करके धनी लोगों पर ऊँची दर से कर लगाकर उनकी क्रय शक्ति छीन ली जाती है तथा इस प्रकार से प्राप्त धन का उपयोग निर्धन वर्ग पर व्यय के रूप में करके रोजगार के अवसर सुलभ कराये जाते हैं, जिससे समाज में आय व धन के वितरण की असमानता भी कम होती है। परन्तु करारोपण उस सीमा तक ही किया जाना चाहिए, जिस सीमा तक बचत व विनियोग पर इसका दुष्प्रभाव न हो।

4. सार्वजनिक ऋण नीति

अल्पविकसित व अविकसित राष्ट्रों में करारोपण की नीति सफल नहीं हो पाती है क्योंकि इन देशों की जनता की आय व बचत की मात्रा पहले ही कम होती है। अत: सार्वजनिक व्ययों की पूर्ति हेतु सार्वजनिक ऋण नीति का सहारा लिया जाता है। सार्वजनिक ऋणों का प्रयोग विकास योजनाओं में करके आर्थिक विकास की दशा में कदम उठाया जाता है। सार्वजनिक ऋण से जनता की क्रय शक्ति सरकार के पास पहुँच जाती है तथा ऋण का भुगतान करने पर सरकार की क्रय शक्ति सरकार के पास आ जाती है। सार्वजनिक ऋण प्राप्त करने के लिए सरकार ऋण-पत्र, बाण्ड पत्र आदि का निर्गमन करती है। परन्तु सार्वजनिक ऋण लेते समय इस तथ्य का ध्यान रखा जाना चाहिए कि ऋण से सरकार पर मूल व व्याज के भुगतान का भार बढ़ता है तथा दूसरी ओर वर्तमान में भावी पीढ़ी पर इसका भार होता है क्योंकि सरकार को ऋण व ब्याज चुकाने के लिए अधिक करारोपण का सहारा लेना पड़ता है।

राजकोषीय नीति की सीमायें या दोष (Limitations)

(1) राजकोषीय नीति के प्रभावी होने में एक समय अंतराल होता है क्योंकि सरकार द्वारा सार्वजनिक व्यय और विनियोग की राशि निर्धारित करना एक कठिन कार्य है। तेजी या मंदी काल में स्थिति का सामना करने के लिए निर्णय लेने में कुछ समय लगता है।

(2) राजकोषीय नीति के अन्तर्गत सार्वजनिक व्ययों में जल्दी-जल्दी परिवर्तन करना असम्भव होता है। है।

(3) सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों में जल्दी-जल्दी परिवर्तन सम्भव नहीं होता.

(4) सरकारी व्ययों में वृद्धि से निजी निवेश हतोत्साहित होने का भय रहता है।

(5) राजकोषीय नीति के अन्तर्गत सरकारी व्ययों के सम्बन्ध में थोड़ी सी असावधानी तेजी अथवा मन्दी काल की स्थिति उत्पन्न कर सकती है।

(6) आवश्यकता होने पर भी कर प्रणाली में आसानी से परिवर्तन सम्भव नहीं हैं।

(7) प्रशुल्क आय के पुनर्वितरण पर निर्भर होते हैं।

(8) प्रशुल्क नीतियों के साथ सार्वजनिक सहयोग अनिवार्य आवश्यकता है।

भारत की वर्तमान राजकोषीय नीति की समीक्षा

भारत की राजकोषीय नीति का उद्देश्य मुख्य रूप से अर्थव्यवस्था का विकास करना तथा लोगों को सामाजिक न्याय दिलाना है। राजकोषीय नीति अर्थव्यवस्था के विकास को मुख्यतः दो तरीकों से प्रभावित करती है- प्रथम, यह संसाधनों को गतिशील बनाकर विकास एवं उन्नति को प्रभावित करती है। दूसरे संसाधनों का उचित आबंटन करके संसाधनों का सुलभ विदोहन उपलब्ध कराती है। भारत में राजकोषीय नीति का उपयोग निजी बचतों को प्रोत्साहन देना तथा विशिष्ट क्षेत्रों में उनका विनियोग करने से संबंधित है। राजकोषीय नीति की इन्हीं विशेषताओं के कारण पिछले तीन वर्षों में वास्तविक निजी बचतों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है जो कि योजना लक्ष्य से अधिक है।

भारत में राजकोषीय नीति की असफलता का प्रमुख कारण काले धन की प्रवृत्ति को  न रोक पाना है। एक अनुमान के अनुसार GDP का 40वां भाग अर्थव्यवस्था में काले धन के रूप में विद्यमान है। सरकार की खर्च योजनाएँ भी राजकोषीय नीति को प्रभावित करती हैं क्योंकि इनसे अनुमानित लाभ कम प्राप्त हो पाता है।

भारतीय राजकोषीय नीति की प्रमुख विशेषताएँ (Features)

(1) आर्थिक विषमताओं तथा असमानताओं को कम करना।

(2) सार्वजनिक क्रय के प्रोत्साहित करना।

(3) बचत में वृद्धि के उपाय करना।

(4) विनियोग में वृद्धि के उपाय करना।

(5) आर्थिक विकास के लिए आवश्यक वित्तीय साधन जुटाना।

(6) उपभोग को नियन्त्रित करना, जिससे आर्थिक साधन उपभोग से हटाकर विनियोज में लगाये जा सकें।

(7) आन्तरिक तथा विदेशी प्रभावों से कीमत में होने वाले परिवर्तनों को नियन्त्रित करना और क्रय-शक्ति के प्रवाह को नियन्त्रित करना।

(8) विनियोग के ढाँचे को समुचित रूप में बदलना।

(9) आर्थिक साधनों को जनता से लेकर सरकार को हस्तान्तरित करना।

राजकोषीय नीति में सुधार (Suggestions to Improve Fiscal policy)

 (1) कर- आर्थिक विकास के लिए यह सबसे प्रमुख हथियार हैं। सरकार को चाहिए कि वह प्रत्यक्ष करों में वृद्धि करे क्योंकि प्रत्येक करों का सीधा असर अमीर वर्ग पर पड़ता है। इसी प्रकार विलासिता की वस्तुओं पर भी अधिक कर लगाए जाने चाहिए ताकि सरकार की आय में वृद्धि हो तथा उसका उपयोग देश के आर्थिक विकास में किया जा सके।

(2) सार्वजनिक व्यय – सरकार को अपनी राजकोषीय नीति में इस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि सार्वजनिक व्ययों का अधिकांश भाग आर्थिक विकास में लगे । उदाहरण के लिए सरकार को चाहिए कि सड़क निर्माण, पुल, रेलवे, दूरसंचार, बिजली आदि परियोजनाओं पर अधिक धन खर्च किया जाये ताकि देश का आर्थिक विकास तेजी से हो ।

(3) सार्वजनिक ऋण- सरकार को अपनी राजकोषीय नीति में सार्वजनिक ऋ के लिए प्रावधान करने चाहिए। भारी करों का विरोध होने की सम्भावना बनी रहती है परन्तु सार्वजनिक ऋणों के रूप में यदि सरकार लोगों से पैसा लेगी तो कोई विरोध नहीं होगा क्योंकि सरकार उस पर ब्याज देती है।

जनता से उधार लेते समय सरकार को इस बात का विश्वास दिलाना होगा कि ब्याज का भार जनता के कन्धों पर नहीं पड़ेगा। यदि आंतरिक स्रोतों से ऋण की पूर्ति नहीं होती तो अपनी राजकोषीय नीति में विदेशों से भी धन उधार लेने का प्रावधान होना चाहिए और उसका उपयोग आर्थिक विकास के लिए होना चाहिए।

(4) घाटे की वित्त व्यवस्था- घाटे की वित्त व्यवस्था भी राजकोषीय नीति में सुधार का एक तरीका है। अर्द्धविकसित देशों में घाटे की वित्त व्यवस्था का प्रयोग आर्थिक विकास के लिए अकसर किया जाता रहा है। वर्तमान समय में कुछ विकसित देश भी आर्थिक विकास के लिए घाटे की वित्त व्यवस्था का सहारा लेते हैं। अत: अपनी राजकोषीय नीति में घाटे की वित्त व्यवस्था के लिए भी आवश्यक प्रावधान सरकार को करना चाहिए।

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