निम्नलिखित लघु उत्तरीय प्रश्नों का उत्तर लिखिए :
- (क) आर्थिक विकास का अभिप्राय।
- (ख)अल्प विकसित देश की परिभाषा।
- (ग) द्वैत अर्थव्यवस्था।
- (घ) आर्थिक संवृद्धि व आर्थिक विकास में अन्तर।
(क) आर्थिक विकास का अभिप्राय (Meaning of Economic Development)
सामान्य रूप में आर्थिक विकास का अभिप्राय किसी देश की वास्तविक राष्ट्रीय आय अथवा वास्तविक प्रतिव्यक्ति आप में होने वाली निरन्तर वृद्धि से होता है। परन्तु भिन्न-भिन्न अर्थशास्त्रियों ने इसकी भिन्न-भिन्न परिभाषायें दी हैं। आर्थिक विकास की कुछ प्रमुख परिभाषायें नीचे दी गयी हैं-
मेयर एवं वाल्डविन के अनुसार- “आर्थिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक देश की वास्तविक राष्ट्रीय आय में दीर्घकालीन वृद्धि होती है।”
इस परिभाषा में आर्थिक विकास को मापने के लिए वास्तविक राष्ट्रीय आय की वृद्धि को आधार बनाया गया है।
इसके विपरीत प्रो. रोस्टोव, प्रो. लुइस, प्रो विलियमसन जैसे अर्थशास्त्री आर्थिक विकास को वास्तविक प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि के रूप में देखते हैं।
प्रो० रोस्टोव के शब्दों में- ‘आर्थिक विकस एक ओर पूंजी और कार्यशील शक्ति की वृद्धि की दरों के बीच में तथा दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि की दर के बीच में ऐसा सम्बन्ध है जिससे प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि होती है।’
अर्थशास्त्रियों का ऐसा वर्ग भी है जो कहता है कि आर्थिक विकास एक व्यापक विचार है जिसमें राष्ट्रीय आय की वृद्धि के साथ-साथ सामाजिक कल्याण में वृद्धि का विचार भी निहित है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेषज्ञ समिति के अनुसार, “आर्थिक विकास मानव की केवल भौतिक उन्नति से ही नहीं बल्कि उसके जीवन की सामाजिक दशाओं की उन्नति से भी सम्बन्धित होना चाहिए।”
(ख) अल्पविकसित देश की परिभाषा (Meaning of Under Developed Country)
सामान्यतः अल्पविकसित देश की परिभाषा देना अत्यन्त कठिन कार्य है। इसका सर्वप्रमुख कारण यह है कि अभी तक विश्व के समस्त अर्थशास्त्री कोई ऐसा मापदण्ड निर्धारित नहीं कर सके हैं जिसके आधार पर अल्पविकसित देश की कोई सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत की जा सके। यही कारण है कि विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने अपने-अपने ढंग से अल्पविकसित देश को परिभाषित किया है।
एक अल्पविकसित देश की प्रमुख परिभाषायें निम्नलिखित हैं-
संयुक्त राष्ट्र संघ विशेषज्ञ समिति के अनुसार- “एक अल्पविकसित देश से आशय उस देश से होता है जिसकी प्रति व्यक्ति आय संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया और पश्चिमी योरोपीय देशों की प्रति व्यक्ति आय से कम होती है।”
भारतीय योजना आयोग के शब्दों में- “एक अल्पविकसित देश वह है जिसमें एक ओर अधिक या कम में मानव शक्ति बेकार हो तथा दूसरी ओर प्राकृतिक साधनों का. पूर्ण शोषण हुआ हो।”
मैकलायड के अनुसार- “एक अल्पविकसित देश वह होता है जहां उत्पादन के अन्य साधनों की तुलना में साहस व पूंजी का अनुपात अपेक्षाकृत कम है परन्तु वहां अच्छी संभावनायें विद्यमान होती हैं जिनसे अतिरिक्त पूंजी का लाभदायक कार्यों में विनियोग किया जा सकता है।”
इन सब परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक अल्पविकसित देश के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों के विचारों में पर्याप्त भिन्नता विद्यमान है। वास्तव में अल्पविकसित देशों के सम्बन्ध में प्रो हैन्स लिगर (Prof Hans Singer) का यह विचार सर्वथा उचित प्रतीत होता है कि “एक अल्पविकसित देश एक जिराफ की भांति होता है जिसका वर्णन करना कठिन होता है किन्तु जब हम उसे देखते हैं तब पहचान जाते हैं।”
(ग) द्वैत अर्थव्यवस्था (Dualistic Economy)
द्वैत अर्थव्यवस्था एक स्थिति को प्रदर्शित करती है जो अल्पविकसित देशों में पायी जाती है। वास्तव में इस स्थिति से अर्थ उस अवस्था से होता है जिसमें अल्पविकसित देशों में दो प्रकार की अर्थव्यवस्था साथ-साथ क्रियाशील होती हैं। इनमें से एक बाजार अर्थव्यवस्था (Market Economy) होती है और दूसरी जीवन निर्वाह अर्थव्यवस्था (Subsistence Economy) कहलाती है।
(i) बाजार अर्थव्यवस्था- यह अल्पविकसित अर्थव्यवस्था का वह भाग होता है जो तुलनात्मक रूप से विकसित होता है। इस क्षेत्र में उत्पादन तथा अन्य व्यापारिक क्रियायें लाभ अर्जित करने की दृष्टि से मांग और पूर्ति की बाजारी शक्तियों के अनुरूप सम्पन्न की जाती हैं। इस प्रकार की बाजार अर्थव्यवस्था अल्पविकसित देशों के अपेक्षाकृत छोटे नगरीय क्षेत्रों में पायी जाती है।
(ii) जीवन निर्वाह अर्थव्यवस्था (Subsistence Economy ) – इस प्रकार की अर्थव्यवस्था अल्पविकसित देशों में व्यापक रूप से पायी जाती है क्योंकि इसकी प्रकृति मुख्य रूप से ग्रामीण होती है। जीवन निर्वाह अर्थव्यवस्था में उत्पादन तथा अन्य व्यापारिक क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य जीवन यापन करना होता है तथा इस प्रकार की क्रियायें लाभ अर्जित करने के लिए नहीं की जाती हैं।
भारत तथा इसी प्रकार के अन्य अल्पविकसित देशों में विद्यमान इस द्वैत अर्थव्यवस्था का ही यह परिणाम सामने आता है कि इन देशों में आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन तथा आधुनिकता के साथ-साथ परम्पराओं का आश्चर्यजनक सहअस्तित्व दिखाई पड़ता है।
(घ) आर्थिक संवृद्धि और आर्थिक विकास में अंतर (Differences between Economic Growth and Economic Development)-
सामान्य व्यवहार में आर्थिक विकास (Economic Development) और आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) को समानार्थी शब्दों के रूप में प्रयोग किया जाता है। परन्तु अनेक अर्थशास्त्री ऐसे हैं जो इन दोनों अवधारणाओं को एक दूसरे से भिन्न मानते हैं और इन दोनों के अन्तर को स्पष्ट करते हैं।
प्रो. शुम्पीटर ने सबसे पहले आर्थिक विकास और आर्थिक संवृद्धि के अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयास किया। शुम्पीटर के अनुसार- “आर्थिक विकास स्थिर अवस्था में होने वाला एक ऐसा असतत एवं सामयिक परिवर्तन है जो पहले से स्थापित संतुलन की अवस्था को हमेशा के लिए परिवर्तित और विस्थापित कर देता है जबकि संवृद्धि दीर्घकाल में होने वाला क्रमिक और स्थिर परिवर्तन है जो बचत और जनसंख्या की दर में होने वाली सामान्य वृद्धि का परिणाम होता है। “
एवरी मैन्स इकोनामिक डिक्शनरी (Every Man’s Economic Dictionary) में आर्थिक विकास और आर्थिक संवृद्धि के अन्तर को बड़े सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया गया है। इस डिक्शनरी के अनुसार- “सामान्यतः आर्थिक विकास का अर्थ साधारण आर्थिक वृद्धि से होता है किन्तु अधिक निश्चित रूप में इसका प्रयोग एक प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के मात्रात्मक माप का वर्णन करने के लिए नहीं किया जाता है बल्कि उसके द्वारा उन आर्थिक सामाजिक और अन्य परिवर्तनों को व्यक्त किया जाता है जो संवृद्धि उत्पन्न करते हैं। आर्थिक विकास का प्रयोग आर्थिक संवृद्धि के निर्धारकों को बताने के लिए किया जा सकता है जैसे कि उत्पादन की तकनीक, सामाजिक प्रवृत्तियाँ एवं संस्थाओं में होने वाले परिवर्तन आदि। इस प्रकार के परिवर्तन आर्थिक संवृद्धि उत्पन्न कर सकते हैं।”
सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्रीमती उर्सुला हिक्स (Smt. Ursula Hicks) ने आर्थिक विकास और आर्थिक संवृद्धि के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा है कि- “आर्थिक संवृद्धि शब्द विकसित देशों के सम्बन्ध में लागू होता है जहाँ बहुत से साधन पहले से ही ज्ञात हैं और विकसित हैं जबकि विकास का सम्बन्ध अल्पविकसित देशों से है जहाँ पर निष्क्रिय साधनों के विकास और प्रयोग की संभावनायें होती हैं।”
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