अर्थशास्त्र / Economics

आर्थिक सिद्धान्त की प्रकृति, उपयोग एंव सीमाएं | Nature, uses & Limitation of Economic theory

आर्थिक सिद्धान्त की प्रकृति, उपयोग एंव सीमाएं

आर्थिक सिद्धान्त की प्रकृति, उपयोग एंव सीमाएं

आर्थिक सिद्धान्त की प्रकृति, उपयोग एंव सीमाएं

आर्थिक सिद्धान्त की प्रकृति

सैद्धान्तिक ज्ञान तथ्यों पर आधारित है, तथा सत्यापित परिकल्पना पर आधारित तथ्य सिद्धान्त बन जाते हैं। बोल्डिंग के अनुसार “तथ्यों के बिना सिद्धान्त व्यर्थ हो सकते हैं, परन्तु सिद्धान्तों के बिना तथ्य निरर्थक हैं।” सिद्धान्त कारण और परिणाम के बीच कारण विषयक सम्बन्ध को व्यक्त करता है तथा “क्यों’ की व्याख्या करता है। इसमें परिभाषाओं तथा मान्यताओं का समूह शामिल होता है। फिर इन मान्यताओं का निहित अर्थ जानना जो कि सिद्धान्त की भविष्यवाणियाँ हैं जिनकी जाँच निरीक्षण और आंकड़ों की सांख्यिकी विश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा की जाती है। यदि सिद्धान्त जाँच में पूरा उतरता है तो इसके उपरान्त किसी कार्यवाही की आवश्यकता नहीं होती है। आर्थिक सिद्धान्त के प्रयोग से हम वास्तविक संसार में विषयों की व्याख्या को समझना और भविष्यवाणी करने की कोशिश करते हैं तथा इसलिए हमारा सिद्धान्त हमारे आसपास के अनुभव सिद्ध निरीक्षण से सम्बन्धित हैं और उसके द्वारा जाँचा जाना चाहिए। आर्थिक सिद्धान्त में सामान्यीकरण शामिल किये जाते हैं। यह आर्थिक विषयों के विभिन्न तत्वों के बीच सम्बन्धों की सामान्य प्रवृत्तियों या एकरूपताओं के कथन हैं। यह विशेष अनुभवों के आधार पर एक सामान्य सत्य की स्थापना करता है।

वैज्ञानिक सिद्धान्त के सोपानः

  1. समस्या का चुनाव करना आँकड़े इकट्ठे करना
  2. आँकड़ों का वर्गीकरण परिकल्पना का निर्माण
  3. परिकल्पना का परीक्षण – तर्क एवं स्थापित सांख्यिकी तकनीकों से परिकल्पना का परीक्षण होना चाहिए, जिसकी पुष्टि की जाय। जो परिकल्पना सफल भविष्यवाणी कर सके उसे सिद्ध तो नहीं पर सत्यापित कहा जा सकता है। एक सफलतापूर्वक टेस्ट की गई परिकल्पना एक सिद्धान्त होता है।
  4. सिद्धान्त का सत्यापन – यदि परिकल्पना सत्य निकलती है तो वह सत्यापित अथवा प्रमाणित कहलाती है। एक असत्य परिकल्पना हमेशा बेकार नहीं होती वह असंशयित तथ्यों या नए तथ्यों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है और सिद्धान्त को संशोधन की ओर प्रेरित करती है। परिकल्पना के सत्यापन के उपरान्त विचाराधीन समस्या के सम्भव हल या विचार तैयार किये जायें क्योंकि अर्थशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है। यह अन्तिम अवस्था

सैद्धान्तिक अर्थशास्त्र का उपयोग

  1. यह आर्थिक समस्याओं के विश्लेषण के लिए अर्थशास्त्रियों को औजार प्रदान करता है। यह सभी आर्थिक प्रणालियों पर लागू होते हैं चाहे वे पूँजीवादी, समाजवादी या मिश्रित हो। उनका प्रयोग विकसित तथा अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं पर भी किया जाता है।
  2. आर्थिक तथ्यों की व्याख्या करना – प्रासंगिक तथ्यों को चुनना, उन्हें वर्गीकृत करना और किसी भी आर्थिक समस्या की प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए कारण विषयक सम्बन्ध स्थापित करना, यह सब आर्थिक सिद्धान्त के माध्यम से सम्भव है।
  3. आर्थिक घटनाओं की भविष्यवाणी करना – आर्थिक सिद्धान्त को आधार बनाकर विभिन्न आर्थिक घटनाक्रमों की भविष्यवाणी की जा सकती है।
  4. अर्थव्यवस्था के कार्य का निर्णय करना – यह अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के कार्य का निर्णय करने में सहायता प्रदान करता है।
  5. आर्थिक नीतियों को निर्मित करने और समझने में सहायता करना – आर्थिक सिद्धान्तों का प्रयोग देश के लिए आर्थिक नीतियाँ बनाने में सहायक होता है। लिप्से के अनुसार “यह अर्थशास्त्री का कार्य है कि वह न केवल एक प्रस्तावित नीति के परिणामों का विश्लेषण करें (दो या अधिक नीतियों की तुलना करें) परन्तु नीतियों का सुझाव ‘भी दें। उद्देश्यों का कथन दिया होने पर, आर्थिक सिद्धान्त का प्रस्तावित नीतियों का आविष्कार और प्रचार करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है जो कि पहले विचारणीय नहीं है।”

सैद्धान्तिक अर्थशास्त्र की सीमाएं

  1. सही आँकड़े उपलब्ध नहीं होते – कोई सिद्धान्त की सत्यता तभी साबित हो सकती है जब वह वास्तविक आर्थिक तथ्यों या आँकड़ों के आधार पर जाँचा जा सके। किन्तु सही आँकड़े एकत्र करना बहुत मुश्किल होता है और उसमें भी धाँधली कर मनगढन्त आँकड़े आर्थिक सिद्धान्त को भी अवास्तविक बना देते हैं।
  2. सही भविष्यवाणी सम्भव नहीं – भौतिक विज्ञानों की अपेक्षा अर्थशास्त्र में सही भविष्यवाणियों की सम्भावन  कम होती है क्योंकि भौतिक विज्ञान में वैज्ञानिक अपनी जाँचों को प्रयोगशाला में नियंत्रित अवस्थाओं में प्रयोगों द्वारा करता है। किन्तु अर्थशास्त्र में इस तरह का नियंत्रित वातावरण सम्भव नहीं है।
  3. मानव व्यवहार सदैव विवेकपूर्ण नहीं – मनुष्य का व्यवहार किसी भी देश के सामाजिक एवं वैधानिक ढाँचे पर निर्भर करता है न कि आर्थिक नियमों पर। अलग-अलग लोगों का व्यवहार भिन्न होता है।
  4. अवास्तविक मान्यताएं – जिन मान्यताओं पर आर्थिक सिद्धान्त आधारित होता है उसमें से कुछ अवास्तविक होती है।
  5. आर्थिक नीतियों पर पूरी तरह से लागू नहीं – कई बार आर्थिक सिद्धान्त वास्तविक स्थिति से मेल नहीं खाते तब परिणाम गलत हो सकते हैं।

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