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बुद्धि के प्रमुख सिद्धान्त | Theory of Intelligence in Hindi

बुद्धि के प्रमुख सिद्धान्त (Theories of Intelligence)

बुद्धि के प्रमुख सिद्धान्त- बुद्धि का स्वरूप क्या है? कैसे कार्य करती है? बुद्धि किन तत्त्वों से निर्मित है? मनोवैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों एवं शोध के आधार पर इन प्रश्नों से सम्बन्धित अनेक निष्कर्ष निकाले हैं। इन निष्कर्षों को ही बुद्धि के सिद्धान्त की संज्ञा प्रदान की जाती है। ये सिद्धान्त बुद्धि के स्वरूप, प्रकृति एवं संरचना को समझने में सहायक होते हैं। सिद्धान्तों से बुद्धि की प्रकृति एवं संरचना के क्रमबद्ध स्पष्टीकरण का प्रयास किया जाता है। बुद्धि की प्रकृति एवं संरचना की स्पष्ट समझ के उद्देश्य से किये विश्लेषणात्मक अध्ययनों से बुद्धि के घटकों या तत्त्वों की खोज की जाती है। ये तत्त्व या घटक बुद्धि की जटिल प्रक्रिया को अधिक अच्छे ढंग से समझने में सहायक सिद्ध हुए हैं। बुद्धि के सिद्धान्तों को मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित कारकों की संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है, जो निम्नलिखित

(i) एक कारक सिद्धान्त अथवा एक सत्तात्मक सिद्धान्त

(ii) द्वि-कारक सिद्धान्त

(iii) त्रिकारक सिद्धान्त

(iv) बहुकारक अथवा असत्तात्मक सिद्धान्त

(v) समूह कारक सिद्धान्त

(vi) पदानुक्रमित सिद्धान्त

(vii) त्रिआयाम सिद्धान्त अथवा बुद्धि संरचना

(viii) बुद्धि ‘अ’ तथा बुद्धि ‘ब’ का सिद्धान्त

(ix) फ्लूड तथा क्रिस्टेलाइज्ड सिद्धान्त

1. एक कारक सिद्धान्त

बुद्धि का एक कारक सिद्धान्त सर्वाधिक प्राचीन है। इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि एक अविभाज्य इकाई है, जिसके द्वारा स मानसिक क्रियाएँ नियंत्रित होती हैं। बिने, टरमन तथा स्टर्न जैसे मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया था, परन्तु वर्तमान समय के मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त को अस्वीकार कर दिया।

एक कारक सिद्धान्त

एक कारक सिद्धान्त

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2. द्वि-कारक सिद्धान्त

अंग्रेज मनोवैज्ञानिक स्पीयरमैन महोदय ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1904 में किया था। इन सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि दो कारकों से मिलकर बनी है। इन दो कारकों में एक सामान्य योग्यता कारक है तथा दूसरा विशिष्ट योग्यता कारक है। स्पीयरमैन ने सामान्य योग्यता कारकों को जिस कारक का नाम दिया तथा कहा कि यह जन्मजात योग्यता हैं। इसे सामान्य योग्यता इसलिए कहा गया, क्योंकि सभी मानसिक क्रियाओं में इसकी आवश्यकता होती है। विभिन्न व्यक्तियों में जी. कारक भिन्न-भिन्न मात्रा में पाया जाता है। दैनिक जीवन के कार्यों में जी. कारक का उपयोग अधिक होता है।

द्वि-कारक सिद्धान्त

द्वि-कारक सिद्धान्त

विशिष्ट योग्यता कारकों को स्पीयरमैन ने एस. कारक का नाम दिया। जी-कारक के विपरीत एस कारक विशिष्ट योग्यताओं का समूह होता है। एस-कारक एक अर्जित योग्यता होती है। विभिन्न मानसिक कार्यों में अलग-अलग विशिष्ट योग्यताओं की आवश्यकता होती है किसी भी व्यक्ति में विशिष्ट योग्यताएँ अलग-अलग मात्रा में होती हैं। उदाहरणार्थ- आंकिक गणना तथा शब्द प्रवाह दोनों प्रकार की क्रियाओं में जी. कारक की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन इसके साथ-साथ आंकिक गणना के लिए आंकिक योग्यता तथा शब्द प्रवाह के लिए शाब्दिक योग्यता का होना भी आवश्यक है। जी. कारक तथा एस.-कारक दोनों मिलकर ही किसी मानसिक कार्य को सम्पन्न करने की क्षमता प्रदान करते हैं। स्पीयरमैन ने जी. कारक को वास्तविक मानसिक शक्ति कहा है, क्योंकि यह सभी मानसिक क्रियाओं के लिए आवश्यक है।

3. त्रिकारक सिद्धान्त

द्वि-कारक सिद्धान्त की कमी को स्वयं स्पीयरमैन ने समझ लिया था और विकारक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। उन्होंने बुद्धि के G और S कारकों के साथ एक तीसरा कारक समूह कारक और जोड़ दिया। समूह कारक से तात्पर्य उस कारक से था, जो G और S कारकों में समान रूप से विद्यमान रहता है। जैसा कि चित्र में प्रदर्शित है—

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4. बहुकारक सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन थार्नडाइक महोदय ने किया था। बहु-कारक सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि अनेक स्वतंत्र कारकों से मिलकर बनी है। इन स्वतंत्र कारकों में से प्रत्येक कारक किसी विशिष्ट मानसिक योग्यता का आंशिक प्रतिनिधित्व करता है। किसी भी मानसिक कार्य को करने में ऐसे अनेक छोटे-छोटे कारक एक साथ मिलकर कार्य करते हैं।

थार्नडाइक का बहुकारक सिद्धान्त

थार्नडाइक का बहुकारक सिद्धान्त

विभिन्न मानसिक कार्यों में इन छोटे-छोटे कारको के भिन्न-भिन्न समूहों की आवश्यकता होती है। यदि कोई दो मानसिक कार्य एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं, तो बहुकारक सिद्धान्त के अनुसार इसका कारण दोनों मानसिक कार्यों को करने में कुछ कारकों का उभयनिष्ठ होना है। यह सिद्धान्त सामान्य बुद्धि जैसे किसी कारक के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। थार्नडाइक ने यह स्वीकार किया कि कुछ मानसिक क्रियाओं में काफी तत्त्व उभयनिष्ठ रहते हैं। जिसके कारण इस प्रकार की मानसिक क्रियाओं को किसी एक वर्ग में रखकर विशिष्ट नाम देना व्यावहारिक दृष्टि से लाभप्रद हो सकता है। शब्दार्थ, शब्द प्रवाह, गणना, स्मृति आदि मानसिक क्रियाओं के कुछ वर्ग हो सकते हैं।

5. समूह कारक सिद्धान्त

स्पीयरमैन का द्विकारक सिद्धान्त तथा थार्नडाइक का बहु-कारक सिद्धान्त बुद्धि के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी विचार प्रस्तुत करते हैं। इन दोनों के बीच का सिद्धान्त समूह कारक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन थर्स्टन महोदय ने किया था। समूह कारक सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि न तो मुख्य रूप से सामान्य कारक से निर्धारित होती है और न ही असंख्य सूक्ष्म व विशिष्ट तत्त्वों से मिलकर बनी है। बुद्धि कुछ प्राथमिक कारकों से मिलकर बनी होती है।

थर्स्टन के अनुसार एक जैसी मानसिक क्रियाओं में कोई एक प्राथमिक कारक उभयनिष्ठ होता है, जो उन सभी क्रियाओं को मनोवैज्ञानिक व कार्रवाई की दृष्टि से समाकलित करता है तथा यही प्राथमिक कारक उन क्रियाओं का अन्य मानसिक क्रियाओं में विभेद स्पष्ट करता है। इस प्रकार की कुछ मानसिक क्रियाएँ एक समूह का निर्माण करती हैं, जिनमें कोई एक प्राथमिक कारक या समूह कारक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। मानसिक क्रियाओं के किसी दूसरे समूह में कोई दूसरा प्राथमिक कारक होता है तथा किसी तीसरे समूह में कोई तीसरा कारक होता है। इस प्रकार मानसिक क्रियाओं के अनेक समूह होते हैं तथा प्रत्येक समूह का एक अलग प्राथमिक कारक होता है, जो उच्च समूह की क्रियाओं को समन्वय व समष्टिता प्रदान करके उन्हें कार्यवाहक इकाई बनाता है। ये प्राथमिक कारक एक-दूसरे से पृथक व स्वतंत्र होते हैं। थर्स्टन तथा उनके समर्थकों ने तत्त्व विश्लेषण नामक सांख्यिकी प्रविधि का प्रयोग करके छः प्राथमिक कारकों का पता लगाया, जिन्हें उन्होंने प्राथमिक मानसिक योग्यताओं के नाम से पुकारा। ये हैं—आंकिक कारक, शाब्दिक कारक, स्थानिक कारक तथा स्मृति कारक। थर्स्टन ने इन्हें प्राथमिक मानसिक योग्यताएँ कहा है, क्योंकि प्रत्येक जटिल मानसिक कार्य में इन छः कारकों की कुछ-न-कुछ आवश्यकता पड़ती है। किसी मानसिक कार्य में इनमें से कुछ कारकों का अधिक उपयोग होता है, जबकि किसी अन्य कार्य में दूसरे कारकों का अधिक उपयोग हो सकता है।

थर्स्टन का समूह कारक बुद्धि सिद्धान्त

थर्स्टन का समूह कारक बुद्धि सिद्धान्त

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6. पदानुक्रमित सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन फिलिप वर्नन ने सन् 1960 में किया था। इस सिद्धान्त में वर्नन महोदय ने मानवीय योग्यताओं की संरचना प्रस्तुत करते हुए कहा कि मानवीय योग्यताएँ एक क्रमिक रूप में व्यवस्थित होती हैं। इस क्रमबद्ध व्यवस्था में क्रमशः सामान्य कारक, मुख्या समूह कारक, लघु समूह कारक तथा विशिष्ट कारक होते हैं। सामान्य कारक (G) सर्वाधिक व्यापक कारक है। तथा सभी मानसिक कार्यों में सहायक होता है। सामान्य कारक (G) को मुख्य समूह कारकों शाब्दिक व शैक्षिक योग्यताएँ (V Ed) तथा प्रयोगात्मक व निष्पादक योग्यताएँ (K: M) में विभक्त किया गया है। इन दोनों मुख्य समूह कारकों को पुनः शाब्दिक, आंकिक, स्थानिक जैसे लघु समूह कारकों में बाँटा जा सकता है। लघु समूह कारकों को विशिष्ट मानसिक कार्यों से सम्बन्धित विशिष्ट कारकों के रूप में विभाजित किया। जाता है।

7. बुद्धि संरचना

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन जे.पी. गिलफोर्ड तथा उनके सहयोगियों ने किया था। इनके द्वारा बुद्धि का त्रिविमीय प्रारूप प्रस्तुत किया गया। गिलफोर्ड के अनुसार बुद्धि को तीन विमाओं के रूप में देखा जा सकता है। प्रथम विमा को उसने मानसिक कार्य करते समय निहित विषय वस्तु या सामग्री के रूप में परिभाषित किया तथा कहा कि विभिन्न मानसिक कार्यों में चार प्रकार की विषय-वस्तु निहित हो सकती है। विषय-वस्तु के ये चार प्रकार हैं-

आकृतिक, सांकेतिक, शाब्दिक तथा व्यावहारिक आकृतिक विषय वस्तु का सम्बन्ध आकृतियों या चित्रों से होता है। सांकेतिक विषय-वस्तु संकेतों, प्रतीकों, चिन्हों, अंकों, अक्षरों आदि से सम्बन्धित होती है। शाब्दिक विषय वस्तु के अन्तर्गत भाषा के द्वारा प्रस्तुत विचार होते हैं, जबकि व्यावहारिक विषय-वस्तु व्यक्तियों के बाह्य या आन्तरिक व्यवहार से सम्बन्धित होती है। गिलफोर्ड के अनुसार बुद्धि की दूसरी विमा मानसिक कार्यों को करने में निहित सक्रिया है। सक्रियाओं को पाँच प्रकारों में बाँटा जा सकता है— संज्ञान, स्मरण, परम्परागत चिन्तन, अपरम्परागत चिन्तन तथा मूल्यांकन संज्ञान सीखने का प्रथम चरण है, जबकि स्मरण सीखे गये ज्ञान को धारण करता है। परम्परागत चिन्तन परम्परागत ढंग से विचार करना है, जबकि गैर-पराम्परागत चिन्तन नवीन ढंग से सोचने का ढंग है, जो सृजनशीलता को भी इंगित करता है। मूल्यांकन उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर निर्णय लेने न निष्कर्ष पर पहुँचने की क्रिया है।

गिलफोर्ड का त्रि-आयाम बुद्धि सिद्धान्त

गिलफोर्ड का त्रि-आयाम बुद्धि सिद्धान्त

गिलफोर्ड मॉडल की तीसरी विमा परिमाण या उत्पादन है, जो भिन्न-भिन्न प्रकार की विषय वस्तुओं के साथ विभिन्न मानसिक संक्रियाओं को करने के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं। परिणामों को गिलफोर्ड ने छः प्रकारों में बाँटा है। ये छः प्रकार हैं- सूचनाओं की इकाइयाँ, इकाइयों के वर्ग, इकाइयों में सम्बन्ध, सूचना प्रणाली, प्रत्यावर्तन प्रणाली तथा निहितार्थ प्रणाली।

मानसिक कार्यों में निहित उपर्युक्त वर्णित चार प्रकार की विषय वस्तु, पाँच प्रकार की संक्रियाएँ तथा छः प्रकार के परिणामों के आधार पर गिलफोर्ड ने कहा कि कुल 120 (4x5x6 = 120) विभिन्न प्रकार की मानसिक योग्यताएँ हो सकती हैं, जो 120 भिन्न-भिन्न कार्यों में संलग्न होती हैं।

8. बुद्धि ‘अ’ तथा बुद्धि ‘ब’ का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक हेब ने – किया है। उन्होंने बुद्धि को दो भागों में विभाजित किया है- बुद्धि A तथा बुद्धि B

(i) बुद्धि A – हेब के अनुसार यह वह बुद्धि है, जिसका निर्धारण वंशानुक्रम से होता है अर्थात् जन्म देने वाले व्यक्तियों के जीन्स से होता है। यह बुद्धि जन्मजात होती है। यह बुद्धि वह क्षमता होती है, जो किसी व्यक्ति को किसी कार्य की रूपरेखा तैयार करने तथा उसे क्रियान्वित करने में सहायता करती है।

(ii) बुद्धि B –हेब के अनुसार यह वह बुद्धि है, जिसका निर्माण वातावरण में होता है तथा शैशव एवं बाल्यकाल में पूरा होता है। हेब के इस सिद्धान्त के विषय में भी वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। कुछ मनोवैज्ञानिक बुद्धि को जन्मजात शक्ति के रूप में लेते हैं और यह मानते हैं कि वातावरण (शिक्षा) की सहायता से इसमें बहुत कम विकास किया जा सकता है। इसके विपरीत कुछ मनोवैज्ञानिक बुद्धि को वंशानुक्रम एवं वातावरण दोनों की उपज मानते हैं। यह बात दूसरी है कि अधिकतर विद्वान् इसके विकास में वंशानुक्रम का अधिक योग मानते हैं, पर बुद्धि को जन्मजात (बुद्धि A) और वातावरण की देने (बुद्धि B) दो रूपों में अलग-अलग मानना युक्ति-संगत नहीं है।

9. फ्लूड तथा क्रिस्टेलाइज्ड सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक कैटल ने – किया। कैटल ने मानवीय बुद्धि को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया—

(i) तरल बुद्धि-तरल बुद्धि से कैटल का तात्पर्य प्रत्यक्षीकरण की योग्यता से है। उनके अनुसार यह बुद्धि प्रत्ययों का निर्माण करने और उन्हें पुनर्गठित करने में सहायता करती है। यह उन अभाषिक कार्यों को करने में अधिक सहायक होता है, जिनके करने में पूर्व अनुभव और सामाजिक एवं शैक्षिक पृष्ठभूमि का सम्बन्ध नहीं होता। इस बुद्धि के निर्धारण में वंशानुक्रम का अधिक महत्त्व होता है और यह बुद्धि बचपन में सर्वाधिक होती है तथा 20 वर्ष की आयु के बाद घटना शुरू हो जाती है।

(ii) क्रिस्टेलाइज्ड बुद्धि- कैटल के अनुसार यह वह बुद्धि है, जो व्यक्ति के सांस्कृतिक ज्ञान, शिक्षा तथा अन्य अनुभवों पर निर्भर करती है। इस बुद्धि में निरन्तर विकास होता है और उसका यह विकास पर्यावरण पर अधिक निर्भर करता है। परन्तु अधिकतर मनोवैज्ञानिक बुद्धि को इस प्रकार के दो भागों में विभाजित करने के पक्ष में नहीं हैं। इनका तर्क है कि बुद्धि अपने में एक पूर्ण इकाई है और उसका विकास वंशानुक्रम एवं वातावरण दोनों पर निर्भर करता है।

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