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शारीरिक विकास का क्या महत्व या उपयोगिता है? बालकों के उचित शारीरिक विकास में अध्यापक की भूमिका की विवेचना कीजिए ।

शारीरिक विकास का महत्व या उपयोगिता
शारीरिक विकास का महत्व या उपयोगिता

शारीरिक विकास का महत्व या उपयोगिता

शारीरिक विकास का महत्व या उपयोगिता – बच्चों के अंदर स्वस्थ मानसिक विकास के – समान ही स्वस्थ एवं सामान्य शारीरिक विकास का होना भी आवश्यक है। उत्तम शारीरिक विकास बालक के संपूर्ण व्यवहार, व्यक्तित्व एवं समायोजन को प्रभावित करता है।

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उत्तम शारीरिक विकास से तात्पर्य है कि बालक में केन्द्रीय नाड़ी संस्थान तथा मस्तिष्क स्वतंत्र नाड़ी संस्थान तथा मांसपेशियों आदि का समुचित विकास। किसी एक संस्थान या अंग का कुंठित होना बालक के स्वास्थ्य यहाँ तक कि उसकी मानसिक क्रियाओं के विकास के लिए भी घातक हो सकता है।

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हरलॉक का कथन है कि प्रत्येक आयु पर बालक की लम्बाई की अपेक्षा उसका वजन वातावरण के द्वारा अधिक प्रभावित होता है। उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए हरलॉक ने बालक के शारीरिक विकास के महत्व को निम्न तरीके से समझाया है-

(i) उपयुक्त शारीरिक विकास के कारण बालक के भीतर नये-नये व्यवहारों की क्षमता विकसित हो जाती है। यदि बालक के भीतर नाड़ी मंडल तथा मस्तिष्क का समुचित विकास हुआ हो तो वह उच्चस्तरीय संवेगात्मक, सामाजिक और बौद्धिक व्यवहार प्रदर्शित कर सकता है।

(ii) बालक के भीतर विविध प्रकार की शारीरिक क्रियाओं का विकास भी उसकी मांसपेशियों की वृद्धि पर निर्भर करता है। समुचित मांसपेशीय वृद्धि को विकसित कर पाता है।

(iii) बालक के संतुलित व्यवहार को कायम रखने तथा संपूर्ण आंतरिक संतुलन बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि उसके विभिन्न शारीरिक अवयव संतुलित ढंग से कार्य करें। अतः प्रत्येक बालक के भीतर सामान्य कोटि का शारीरिक विकास होना आवश्यक है।

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बालक के उचित शारीरिक विकास में अध्यापक की भूमिका

पुरानी कहावत है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है। अतः बालक के उचित शारीरिक विकास की ओर ध्यान देना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए। अतः बालक की शिक्षा में निम्न विशेष सावधानी तथा प्रयत्न किए जाने की आवश्यकता है—

1. शिशु का शरीर अत्यंत कोमल होता है, अतः बहुत यत्न से उसकी देखभाल तथा पालन-पोषण करने की आवश्यकता हेती है। साधारण शब्दों में शारीरिक विकास से अभिप्राय शरीर में होने वाले विकास से है। शारीरिक विकास जन्म से पूर्व गर्भधारण अवस्था से ही प्रारंभ हो जाता है। गर्भकालीन अवस्था में शारीरिक विकास अत्यधिक तीव्र गति से होता है। एक सूक्ष्म जीव कोश नौ महीने के अंदर एक मानव शिशु का रूप ले लेता है। जन्म के पश्चात् भी विभिन्न विकासात्मक अवस्थाओं के अंतर्गत शारीरिक विकास लगातार होता रहता है। शारीरिक विकास से तात्पर्य बालक की सामान्य शारीरिक संरचना, शरीर का भार ऊँचाई, आंतरिक अंगों, शारीरिक अवयवों का विकास, स्नायुमंडल तथा मस्तिष्क का विकास, हड्डियों तथा मांसपेशियों का विकास तथा अन्तःस्त्रावी ग्रंथियों के विकास से है। इनमें से भी एक अंग के विकास के कुंठित हो जाने से बालक के शारीरिक स्वास्थ्य पर ही प्रभाव नहीं पड़ता, वरन् उसका मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, क्रियात्मक विकास आदि भी प्रभावित होता है, क्योंकि बालक का शारीरिक विकास उसके अन्य सभी प्रकार के विकासों के साथ किसी न किसी रूप में सम्बन्धित होता है।

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अन्य शब्दों में मनुष्य एक मनो-शारीरिक प्राणी है। जन्म के समय वह शारीरिक तथा मानसिक रूप से अविकसित होता है। आयु बढ़ने पर उसमें दोनों दृष्टियों से परिपक्वता आने लगती है। शारीरिक तथा मानसित विकास अन्तःसम्बन्धित होते हैं।

कोलेस्निक के अनुसार– “अभिवृद्धि, विकास, परिपक्वता तथा अधिगम शब्द शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा नैतिक परिवर्तनों का संकेत देते हैं, जिन्हें व्यक्ति जीवन में अग्रसर होने पर अनुभव करता है।”

सौरन्सन का कथन – “नवजात शिशु का शरीर तब तक अभिवृद्धि तथा विकास करता है जब तक वह एक वयस्क शरीर नहीं हो जाता।”

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क्रो तथा क्रो के विचार से – “बालक पहले मुख्यतः एक शारीरिक प्राणी है। उसका शारीरिक गठन उसकी मनोवृत्तियों तथा व्यवहार के विकास का आधार है। अस्तु उसके शारीरिक वृद्धि के प्रतिमानों का अध्ययन करना आवश्यक है।”

शारीरिक विकास को कल्पना के निम्नलिखित दो अंग हैं

(i) शरीर रचना में विकास तथा (ii) शरीर क्रिया का विकास।

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