शारीरिक विकास के विभिन्न पहलू | Various Aspects of Physical Development in Hindi
शारीरिक विकास के विभिन्न पहलू निम्नलिखित है-
1. ऊँचाई एवं वजन–
बच्चे पूर्व बाल्यावस्था में सामान्यतः अपनी वयस्क अवस्था की ऊँचाई से आधी ऊँचाई तथा वयस्क अवस्था के वजन से लगभग 1/5 भाग होते हैं। पूर्व बाल्यावस्था में बच्चे प्रति वर्ष 8 से. मी. 13 से. मी. तथा 1 कि. ग्रा. से 2 कि. ग्रा. वजन की दर से बढ़ते हैं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा किये गये अध्ययन के अनुसार भारतीय शिशु जन्म के समय सामान्यतः 47 से. मी. से 52 से. मी. ऊँचाई का होता है। लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा थोड़ी छोटी होती हैं। इसी प्रकार सामान्यतः प्रथम शिशु की ऊँचाई भी बाद वाले शिशुओं की अपेक्षा कम होती है। 4-5 वर्ष में बच्चा अपने जन्म की ऊँचाई से दो गुणा हो जाता है। लड़कियों की ऊँचाई वयःसन्धि अवस्था में तीव्र गति से बढ़ती है।
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नवजात शिशु का औसतन वजन 2.4 किलोग्राम से 3.2 किलोग्राम होता है, परन्तु कभी-कभी शिशु बहुत कम वजन के भी होते हैं। फिर भी सभी बच्चों में वृद्धि का समान प्रतिमान दिखाई देता है। बचपनावस्था की अपेक्षा पूर्व बाल्यावस्था में वजन वृद्धि कुछ कम होती है। वे बच्चे जिनका वजन जन्म के वर्ष पश्चात् जन्म से तीन गुणा या वे 5 वर्ष पश्चात् जन्म से छः गुणा वजन रखते हैं। इतना वजन प्राप्त कर लेने पर भी बच्चे बचपनावस्था की अपेक्षा पूर्व बाल्यावस्था में पतले दिखाई देते हैं, क्योंकि उनकी ऊँचाई वृद्धि की गति वजन वृद्धि की अपेक्षा अधिक स्पष्ट होती है। पूर्व बाल्यावस्था में लड़के-लड़कियों से वजन में भारी होते हैं, परन्तु 11 से 14 वर्ष की आयु में लड़कियाँ वयःसन्धि अवस्था में परिवर्तनों के कारण वजन में लड़कों की तुलना में अधिक भारी प्रतीत होती हैं। 21 वर्ष की आय के बाद वयस्क लड़का का औसत वजन 49.5 किलोग्राम होता है, जबकि लड़कियों में 21 वर्ष की आयु में औसत वजन 44 किलोग्राम होता है।
2. वृद्धि में व्यक्तिगत भिन्नता-
यद्यपि सभी बच्चों में वृद्धि के मूल प्रतिमान समान होते हैं, फिर भी, प्रत्येक आयु स्तर पर में भिन्नता पाई जाती है। यह भिन्नता ऊँचाई की अपेक्षा वजन में अधिक पाई जाती है। इनके अन्तर का मुख्य कारण वंशानुक्रम होता है, क्योंकि ऊँचाई अधिकतर वंशानुक्रम द्वारा निर्धारित होती है तथा वजन वातावरण द्वारा अधिक प्रभावित होता है। पालन-पोषण, बीमारियों, तनावपूर्ण वातावरण आदि का बच्चे के वजन व स्वास्थ्य पर अधिक प्रभाव पड़ता है। बच्चे का यौन शरीर रचना, दाँत निकलने की अवस्था, अति-भोजन का भी वजन एवं ऊँचाई वृद्धि पर प्रभाव पड़ता है।
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3. शरीर अनुपात में परिवर्तन-
शरीर रचना के आधार पर सभी नवजात शिशु अलग-अलग होते. हैं। कुछ लम्बे व लमछड़ तथा कुछ छोटे मोटे ताजे व गोल-मटोल प्रतीत होते हैं। बचपन अवस्था के व दौरान शरीर अनुपात में परिवर्तन होते हैं, क्योंकि नवजात शिशु का शरीर अनुपात वयस्क से बिल्कुल भिन्न होता है। पूर्व बाल्यावस्था के दौरान बच्चों के शरीर के सभी अंग भिन्न-भिन्न गति से बढ़ते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बच्चे अपने विशिष्ट शरीर प्रकार को प्राप्त करते हैं। बच्चे का शारीरिक अनुपात उसके शारीरिक विकास पर व्यापक प्रभाव डालता है। उदाहरणार्थ जब तक बच्चे का शीर्ष भाग होता है वह बैठने, खड़ा होने या चलने में असहाय एवं अदक्ष होता है तथा उसके हाथ-पैर छोटे एवं कम बलशाली होने के कारण वह भोजन करने, खिलौनों को उठाने आदि में भी अदक्ष होता है। शीर्ष भाग में चेहरे के निचले अंगों की अपेक्षा ललाट क्षेत्र तीव्र गति से विकसित होता है। सिर के आकार की तुलना में नाक व मुख छोटे बने रहते हैं और आँखें तथा कान अधिक बड़े प्रतीत होते हैं। स्थायी दाँत निकल आने पर बच्चे के जबड़े की आकृति प्रदान होती है। बाल्यावस्था के प्रारम्भिक वर्षों में धड़ की लम्बाई तथा चौड़ाई बढ़ती हैं तथा कन्धे गोल एवं विस्तृत होने पर गर्दन भी लम्बी प्रतीत होती है। धड़ के निचले भाग के कारण कमर का घेरा भी दिखाई देना शुरू हो जाता है, छोटे बच्चों की भुजाएँ बचपन अवस्था में 6 वर्ष की आयु के बीच लम्बाई में बढ़ती है तथा भुजाएँ पतली एवं सीधी होती हैं। बच्चों की हथेली तथा हाथ बढ़ने पर भी अंगुलियाँ छोटी एवं गोल-मटोल बनी रहती है। बच्चों की टांगें, जो बचपनावस्था में शरीर के अनुपात में अधिक छोटी होती हैं, बाल्यावस्था के प्रारम्भिक वर्षों में अधिक बढ़ती हैं परन्तु भुजाओं की अपेक्षा मन्द गति से बढ़ती हैं। ये पतली एवं अविकसित माँसपेशियों के कारण अपेक्षाकृत लम्बी प्रतीत होती शेष पैर की अपेक्षा पैर की अंगुलियाँ छोटी रहती हैं।
शरीर के अनुपात में परिवर्तन के कारण बच्चे का शरीर यदि एक वयस्क जैसा नहीं बनता है तो उसके प्रति व्यक्तियों की प्रतिक्रियाएँ सामान्य नहीं होती। आस-पास के लोगों की ये प्रतिक्रियाएँ बच्चों के आत्मविश्वास तथा आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचाने के अप्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी होती हैं। उदाहरणार्थ वयस्कों द्वारा बच्चों के दाँत टूटने पर हंसी करने से उसके आत्म विश्वास एवं आत्म सम्मान को चोट पहुँचाते हैं। इस प्रकार वयस्कों एवं बच्चों के परस्पर सम्बन्धों पर कुप्रभाव पड़ता है।
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4. हड्डियाँ एवं दाँत-
नवजात शिशुओं की हड्डियाँ नरम होती हैं। सम्पूर्ण बाल्यावस्था के दौरान हड्डियाँ मन्दगति से सुदृढ़ होती हैं। दृढ़ीकरण अस्थि परिणति’ अर्थात् हड्डियों का सुदृढ़ होना कहलाता है। यह क्रिया जन्म के बाद से शुरू होती है तथा बच्चे की वयःसन्धि अवस्था अर्थात् लगभग 11 या 12 वर्ष की आयु तक चलती है। जन्म के समय बच्चे में 270 हड्डियाँ होती हैं तथा धीरे-धीरे वयः सन्धि अवस्था तक ये हड्डियाँ 350 हो जाती हैं। छोटे बच्चों की हड्डियों में कालान्तराल होते हैं। कालान्तराल मस्तिष्क की रक्षा के लिए प्राकृतिक उपाय होता है। धीरे-धीरे उपस्थित बच्चों की हड्डियों के विकास के साथ हड्डियों के अन्तिम छोरों को मिलाने का काम करती हैं। हड्डियों का दृढ़ीकरण गल ग्रन्थि के हारमोन थाइरोक्सिन तथा पोषक तत्वों पर निर्भर करता है। बच्चों की हड्डियों टूट जाने पर तुरन्त एवं सरलता से ठीक हो जाती हैं। दूसरी तरफ बच्चों की हड्डियों में शीघ्रता से विकृत होने की प्रवृत्ति भी होती है। उदाहरण के लिए, जो बच्चे अधिकतर समय पीठ की ओर लेटे रहते हैं उनके सिर पीछे से चपटे हो जाते हैं।
प्रत्येक मानव प्राणी के साधारणतया दाँतों के दो समूह ‘अस्थाई दाँत’ तथा ‘स्थाई दाँत’ होते हैं। छोटे बच्चों के अस्थाई दाँतों की संख्या 20 होती है। जबकि स्थाई दाँतों की संख्या 32 होती हैं। अस्थाई दाँत आकार में स्थायी दाँतों की अपेक्षा छोटे एवं नरम होते हैं। प्रसव काल के तीसरे या चौथे मास से बच्चे के जबड़े में दाँतों का विकास शुरू हो जाता है। सामान्यतः अस्थाई दाँत बच्चे की 4-5 मास की आय के निकलने शुरू होते हैं। 9 मास की आयु तक औसत 4 दाँत निकल आते हैं, निचले जबड़े के दाँत, सामान्यतः, अस्थाई दाँत बच्चे की 4-5 मास की आय के निकलने शुरू होते हैं। 9 मास की आयु तक औसत 4 दाँत निकल आते हैं, निचले जबड़े के दाँत, सामान्यतः, ऊपर वाले दाँतों को अपेक्षा पहले दिखाई देते हैं। लड़कियों में लड़कों की अपेक्षा दाँत जन्दी दिखाई देते हैं 2 से 21 वर्ष की आयु तक बच्चों में सभी अस्थाई दाँत पूरे हो जाते हैं। यह क्रिया दाँत निकलने की क्रिया कहलाती है। स्थाई दाँत 6-7 वर्ष की आयु में निकलने प्रारम्भ होते हैं तथा अन्तिम स्थाई दाँतों का क्रम प्रायः 17 से 27 वर्ष की आयु तक चलता है। अस्थाई दाँत निकलने में बच्चे को बहुत कठिनाई होती है, परन्तु स्थाई दाँत निकलने में बहुत कम दर्द होता है। दाँत निकलने की आयु कुछ सीमा तक वंशानुक्रम पर निर्भर करती है तथा कुछ सीमा तक बच्चे का स्वास्थ्य एवं आहार भी उत्तरदायी है। विकासात्मक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार दाँत किस आयु में निकलतें हैं, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना दाँत निकलने का क्रम, कभी-कभी ऊपर वाले दाँत पहले निकलते हैं, जिससे निचले जबड़े की आकृति में बिगाड़ एवम् स्थाई दाँतों का अभद्र क्रम देखा जाता है।
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5. वसा एवं मांसपेशियाँ:-
शरीर का वजन हड्डियों के अतिरिक्त मांसपेशियों और वसा ऊतकों पर निर्भर करता है। पूर्व बाल्यावस्था में वसा ऊतक मांसपेशी ऊतकों की अपेक्षा तीव्र गति से बढ़ते हैं। जो बच्चे कार्बोहाइड्रेट अधिक तथा प्रोटीन कम मात्रा में खाते हैं उनमें वसा की मात्रा अधिक हो जाती है। वयः सन्धि अवस्था में लड़के तथा लड़कियों दोनों में मांसपेशी विकास तीव्र होता है। वसा तथा मांसपेशी दोनों का अनुपात ही शरीर प्रकार को निर्धारित करता है। शरीर रचना के आधार पर व्यक्तित्व के प्रकार भी दिए गए हैं।
व्यापक एवं मोटी मांसपेशियों वाला बच्चा इकहरी मांसपेशियों वाले बच्चों की अपेक्षा बलशाली होता है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि सामान्यतः बच्चे की मांसपेशियाँ जितनी सुदृढ़ होंगी, बच्चा उतना ही अधिक शक्तिशाली होगा।
6. नाड़ी संस्थान का विकास-
गर्भधारण के तुरन्त बाद नाड़ी संस्थान का विकास शुरू हो जाता हैं, परन्तु जन्म के समय यह पूर्ण विकसित नहीं होता है। जन्म के बाद नाड़ी संस्थान की अति तीव्र गति से विकास होता है। छः वर्ष बाद इसके विकास की गति मन्द पड़ जाती है। जन्म के समय बच्चे के मस्तिष्क का वजन उसके पूर्ण वजन का 1 / 8वाँ भाग होता है तथा परिपक्वता पर यह उसके पूर्ण वजन का 1/40वाँ भाग होता है। नाड़ी संस्थान का आन्तरिक विकास जन्म के बाद शुरू हो जाता है तथा 8 वर्ष की आयु में मस्तिष्क परिपक्व आकार प्राप्त कर लेता है। मस्तिष्क का मुख्या भाग प्रमस्तिष्क होता है। यह संवेद अनुभवों, शारीरिक गतिविधियों, स्मृति तथा सीखने का नियन्त्रण करता है। प्रमस्तिष्क का वह भाग जो शारीरिक गतिविधियों पर नियन्त्रण करता है उस भाग की अपेक्षा शीघ्र विकसित होता है, जो सीखने का नियन्त्रण करता है। उदाहरणार्थ, बच्चा प्रथम वर्ष में पहले रेंगना एवं चलना सीखता है और बाद में बोलना सीखता है। अनुमस्तिष्क मस्तिष्क का एक गौण भाग है, जो शरीर की मुद्रा स्थिति एवं संतुलन का नियन्त्रण करता है। यह भाग भी बच्चों के प्रथम वर्ष में विकसित होता है तथा उनके बैठने खड़े होने तथा चलते समय संतुलन बनाने में सहायक होता है।
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7. यौन परिपक्वता-
सामान्य मानव प्राणियों में बाल्यावस्था से वयस्कावस्था में पदार्पण पर तीव्र गति से शारीरिक परिवर्तन होते हैं। किशोरावस्था का प्रारम्भ वयःसन्धि अवस्था में होता है और प्रौढ़ावस्था के आरम्भ को इसका अन्त माना जाता है। इस अवस्था में शारीरिक परिवर्तन अत्यधिक तीव्र गति से होते हैं तथा यौन परिपक्वता देखने में आती है। यह वयः सन्धि अवस्था किशोरावस्था की प्रथम पहचान है। प्रारम्भिक परिवर्तन सरलता से दिखाई नहीं देते हैं। ये परिवर्तन मुख्य यौन विशेषताओं के विकास द्वारा धीरे-धीरे जनन अंगों के विकास को जारी रखते हैं। लड़कियों में डिम्ब ग्रन्थि तथा गर्भाशय तथा लड़कों में शिश्न पुरुष ग्रन्थि तथा प्रजनक कोष का विकास हो जाता है। लड़कियों में वयःसन्धि सामान्यतः मासिक धर्म चक्र के प्रारम्भ होने की अवस्था के रूप में जानी जाती है। लड़कियों में वयःसन्धि की औसत आयु 11 से 13 वर्ष होती है। लड़कों में यह अवस्था रंजित के विकास तथा प्रथम रात्रि स्वप्न दोष उत्पन्न होने से मानी जाती है। सामान्यतः यह 13 और 14 वर्ष की आयु होती है। लड़के तथा लड़कियों दोनों में वयःसन्धि अवस्था के “दौरान अनेक शारीरिक परिवर्तन होते हैं। जनन ग्रन्थियाँ व यौन अंग बड़े होने शुरू हो जाते हैं। गौण यौन विशेषताएँ जैसे लड़के में शरीर वृद्धि चेहरे पर बाल और आवाज में भारीपन तथा लड़कियों के स्तनों तथा नितम्बों का विकास आदि दिखाई देने शुरू हो जाते हैं। परिपक्वता की सम्पूर्ण प्रक्रिया 2 से 4 वर्ष में पूर्ण होती है। ये परिवर्तन यौन परिपक्वता के प्रारम्भ के चिह्न नहीं हैं, परन्तु प्रक्रिया के मध्य बिन्दु कहे जा सकते हैं। जैसे कि पहले बताया जा चुका है, वयःसन्धि के प्रारम्भ होने की आयु एवं इसकी अवधि भिन्न भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न होती है। मुख्य यौन विशेषताओं में होने वाले परिवर्तनों एवं विभिन्नताओं के लिए उग्र पीयूष ग्रन्थि के यौन हारमोन की क्रियाशीलता उत्तरदायी है। इस हारमोन की न्यूनता एवं अधिकता सामान्य विकास प्रतिमान को अस्त-व्यस्त कर सकती है।
वयःसन्धि के साथ कुछ मनोवैज्ञानिक समस्यायें भी हैं। इस अवस्था में शारीरिक परिवर्तन किशोर तथा किशोरियों में असुरक्षा की भावना एवं आत्म चेतना उत्पन्न करते हैं, विशेषतः जब इनकी पूर्ण जानकारी नहीं होती है। इससे आन्तरिक संतुलन भी अस्त-व्यस्त हो जाता है। बच्चों के सामाजिक संबंधों का स्तर बढ़ जाता है। इस अवस्था के बाद विपरीत यौन में रूचि भी बढ़ जाती है। अगर किशोर युवतियाँ वयः सन्धि अवस्था पूरी होने से पूर्व ही मादक द्रव्यों का प्रयोग आरम्भ कर दें तो इनका द्रव्यों का उनकी ग्रन्थियों पर कुप्रभाव पड़ने के कारण उनका कद छोटा रह जाने की सम्भावना होती है। उनका शारीरिक एवं मानसिक विकास ठीक से नहीं हो पाता है। मनोचिकित्सकों का मत है कि ऐसी व्यसनी युवतियों को मासिक रजस्त्राव में कठिनाई होती है तथा उनकी शिशु जनन की क्षमता में भी कमी हो जाती है। हालांकि व्यसनी युवतियाँ सामान्य युवतियों की अपेक्षा यौन क्रियाओं में अधिक रूचि लेती हैं फिर भी उनके गर्भाधारण के अवसर कम होते हैं। शिशु को जन्म देने में उनको अपेक्षाकृत अधिक कष्ट उठाने पड़ते हैं।
8. शारीरिक अभाव या कमी-
कोई भी व्यक्ति शारीरिक रूप से पूर्ण नहीं होता है। कुछ शारीरिक दोष वंशानुक्रम से सम्बन्धित होते हैं। कुछ प्रसव काल में त्रुटिपूर्ण वातावरण के परिणास्वरूप होते हैं तथ कुछ जन्म के दौरान या बाद में दुर्घटना या बीमारी के कारण उत्पन्न होते हैं। किसी प्रकार का शारीरिक दोष बच्चे के व्यवहार एवं विकास पर काफी प्रभाव डालता है। इन दोषों के कारण बच्चों की गतिविधियों एवं शरीर आकार पर प्रभाव पड़ता है, जो उसकी सामान्य वृद्धि एवं विकास के लिए महत्त्वपूर्ण है। शारीरिक दोष अभिजात समूह में बच्चे की खेलने की क्षमता में अभाव का कारण बनते हैं और साथी खिलाड़ियों के टकराव के कारण बच्चों में हीन भावना उत्पन्न करते हैं।
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