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शारीरिक विकास का अर्थ एवं प्रकृति को स्पष्ट करते हुए शारीरिक विकास के विभिन्न प्रतिमानों का उल्लेख कीजिए।

शारीरिक विकास का अर्थ एवं प्रकृति | शारीरिक विकास के प्रतिमान
शारीरिक विकास का अर्थ एवं प्रकृति | शारीरिक विकास के प्रतिमान

शारीरिक विकास का अर्थ एवं प्रकृति

शारीरिक विकास का अर्थ एवं प्रकृति- गर्भधारण से ही शारीरिक विकास प्रारम्भ हो जाता है। भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में शारीरिक विकास भिन्न-भिन्न गति से होता रहता है। गर्भकालीन अवस्था में शारीरिक विकास की गति अन्य विकासावस्थाओं की अपेक्षा अधिक तीव्र होती है।

बच्चों का अस्तित्व माता के डिम्ब तथा पिता के शुक्राणु के संयोजन एवं निषेचन होने पर नए कोष युग्मनज के निर्माण से शुरू होता है। युग्मनज की वृद्धि तीव्र होती है और कुछ सप्ताह में ही यह मानव की आकृति का भ्रूण बन जाता है। इस अवस्था में शरीर के अंगों का विकास शुरू हो जाता है। धीरे-धीरे शरीर की सभी ज्ञानेन्द्रियाँ, नाड़ी संस्थान एवं हृदय की धड़कन का विकास हो जाता है। सातवें माह के अन्त तक गर्भस्थ शिशु का शारीरिक, मानसिक और आन्तरिक अंगों का विकास हो जाता है। आठवें और नौवें माह में सामान्यतः शिशु का जन्म हो जाता है।

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मानव प्राणी का केन्द्रिय नाड़ी संस्थान जन्म के समय पूर्ण विकसित नहीं होता है, परन्तु उसमें सीखने – की अति क्षमता होती है। जीवन के प्रथम चार सप्ताह में बच्चा श्वास, लय, सोना, खाना-पीना, माता-पिता के साथ अनुकूलन आदि क्रियाएँ करने के योग्य हो जाता है। लगभग 18 महिलों में उसमें संवेदी क्रियात्मक योग्यताएँ तथा प्रारम्भिक समाजीकरण का प्रारम्भ हो जाता है। जैसे-जैसे बच्चे की आयु बढ़ती है उसकी अन्य गतिविधियाँ बढ़ती जाती हैं। एक बच्चा एक निश्चित आयु में क्या कर सकता है और क्या नहीं, यह उसके शारीरिक विकास पर निर्भर करता है। बच्चा आकार और शक्ति से जैसे-जैसे बढ़ता है उसके अनुभव तथा क्रियाएँ भी अधिक होती जाती है। उदाहरण के लिए, वह पड़ोस व विद्यालय में जाने लगता है

तथा आयु के अनुसार खेलों में भी भाग लेता है। इस प्रकार, बच्चे का शारीरिक विकास अप्रत्यक्ष रूप से उसके आत्म-प्रत्यय तथा दूसरों के प्रति अभिवृत्तियों को भी प्रभावित करता है। जैसे यदि एक बच्चा किसी भी प्रकार से दूसरे बच्चों से शरीर रचना में भिन्न है अर्थात् अत्यधिक मोटा, पतला, लम्बा या विकलांग है तो यह भिन्नता दूसरे बच्चों को ही उसके समूह की गतिविधियों में भाग लेने के लिये निरूत्साहित कर सकती है। इस प्रकार के अनुभव बच्चों में हीन भावना या दूसरों के प्रति द्वेष उत्पन्न करते हैं।

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शारीरिक विकास की प्रकृति एवं अनुक्रम का प्रभाव बच्चे की भिन्न-भिन्न विकास अवस्थाओं में उसके व्यवहार पर भी पड़ता है। शारीरिक विकास की प्रक्रिया नियमित व निरन्तर नहीं होती बल्कि इसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। अर्थात् वह नहीं कहा जा सकता है कि एक बच्चा प्रति मास इतने ग्राम वजन व इतने इंच ऊँचाई की दर से बढ़ेगा। शारीरिक विकास की चार मुख्य अवस्थाएँ हैं जिनमें से दो अवस्थाओं में वृद्धि मन्द गति से होती है तथा अन्य दो में तीव्र गति से जन्म से लेकर 2 वर्षो तक (बचपन अवस्था) शारीरिक विकास सबसे तीव्र गति से होता है। उसके पश्चात् 3 से 11 वर्ष की आयु तक (बाल्यावस्था) यह विकास सबसे तीव्र गति से होता है। वयःसन्धि के किशोरावस्था के प्रारम्भ तक शारीरिक विकास की गति में पुनःस्फुरा आता है; किशोरावस्था के बाद विकास की गति निरन्तर घटती जाती है। लड़कों तथा लड़कियों में विकास की प्रकृति लगभग एक समान होती है, परन्तु उनके स्फुरण काल में अन्तर होता है। शारीरिक परिपक्वता प्राप्त होने पर वयस्क अवस्था में जो ऊँचाई होती है वह बनी रहती है, परन्तु वजन की वृद्धि अस्थिर होती है। यद्यपि ये वृद्धि अवस्थाएँ सार्वभौमिक होती हैं परन्तु बच्चों के शारीरिक विकास में व्यक्तिगत भिन्नताएँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। प्रत्येक बच्चा अपने विकास प्रतिमानों में शीघ्र या देर से समानुरूपता दर्शाता है।

यद्यपि शारीरिक विकास में शरीर के कार्य न्यूनाधिक एक संगठित इकाई के रूप में होते हैं फिर भी शरीर के विभिन्न अंगों का अपने समय के अनुसार मन्द और तीव्र गति से विकास होता रहता है। विभिन्न अवस्थाओं में विकास की गति भी भिन्न-भिन्न होती है। प्रारम्भ में विकास शरीर के शीर्ष भाग से सिर तक की वृद्धि मन्द व अन्य अंगों की तीव्र तथा धड़ की वृद्धि मध्यम होती है। मासिक एवं चेहरे की परिपक्वता, आकार व विकास की दृष्टि से दूसरे अंकों की अपेक्षा पहले अनुभव होती है। अध्ययनों में यह देखा गया है कि शारीरिक तथा मानसिक विकास का परस्पर गहरा सम्बन्ध है अर्थात् जब शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है तो मानसिक वृद्धि भी तीव्र गति से होती है। इसी प्रकार शरीर का मन्द विकास मानसिक विकास की गति को मन्द करता है। स्वास्थ्य एवं पोषण शारीरिक तथा मानसिक विकास दानों को प्रभावित करते हैं।

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शारीरिक विकास के प्रतिमान

भिन्न-भिन्न विकास की अवस्थाओं में शारीरिक विकास की गति समान एवं एकरूप नहीं होती है। शारीरिक विकास व्यक्तियों में लगभग प्रारम्भिक 20 वर्षों की अवधि में पूर्ण हो जाता है। सामान्यतः सम्पूर्ण शारीरिक विकास की अवधि को निम्नलिखित चार मुख्य उप-भागों में विभक्त किया जा सकता है

1. शैशवावस्था और पूर्व बाल्यावस्था –  ( 5 वर्ष की आयु तक)

इस अवस्था में मानव वृद्धि के विकासात्मक कार्यों में निम्न स्तर की गति विधियों का विकास होता है, जैसे चलना, ठोस आहार खाना, बातें करना, शौच आदि का नियन्त्रण, यौन भिन्नताओं की समझ, शारीरिक संतुलन प्राप्त करना, साधारण सामाजिक तथा भौतिक वास्तविकताओं के प्रत्यय का निर्माण तथा परिवार के सदस्यों के साथ संवेगात्मक सम्बन्ध द्वारा उचित-अनुचित का अन्तर स्पष्ट करना सीखना आदि।

2. मध्य एवं पश्चात् बाल्यावस्था –  ( 12 वर्ष की आयु तक)

शारीरिक कौशलों को सीखना, स्वावलम्बन एवं साथी समूह में साधारण कार्यों को सीखना,  वृद्धि का आत्म-प्रत्यय, उचित यौन भूमिका को सीखना, लिखने-पढ़ने में मूल कौशलों का विकास, सामाजिक एवम् नैतिक अभिवृत्तियों का विकास इस अवस्था में होता है।

3. किशोरावस्था

विकास की इस अवस्था में व्यक्ति अपने शरीर गठन को स्वीकार करना और पुरूषत्व या स्त्रीत्व की भूमिकाओं को स्वीकार करना सीखता है। वह हम उम्र एवं विपरीत यौन वाले व्यक्तियों के साथ नए सम्बन्ध स्थापित करना, माता-पिता व अन्य वयस्कों के संवेगात्मक और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करना, व्यवसाय चुनना, बौद्धिक कौशलों का विकास और सामाजिक स्वीकृत व्यवहार को दर्शना आदि व्यवहार प्रदर्शित करता है।

4. वयस्क एवं वृद्धावस्था –(20 वर्ष से मृत्यु तक)

सबसे लम्बे एवं स्थिर जीवन का विस्तार अनुमानतः 20 वर्ष से 65 वर्ष तक होता है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने जीवन को दिशा प्रदान करते हैं तथा उन पर बच्चों के आश्रित होने से उत्तरदायित्व होते हैं। शारीरिक परिवर्तन बहुत ही मन्द गति से होते हैं। 25 से 30 वर्ष तक मांसपेशीय शक्ति चरम सीमा पर होती है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है क्रियात्मक सक्रियता में कमी होती जाती है, सीखने की क्षमता तथा स्मृति का ह्रास होना शुरू हो जाता है तथा नैतिक, बौद्धिक एवं सृजनात्मक शक्तियाँ मन्द होनी प्रारम्भ हो जाती है। वृद्धावस्था में बाल सफेद होना, दाँतों का टूटना, त्वचा में शुष्कता एवं झुर्रियाँ पड़ना, संवेदनाओं का ह्रास देखने को मिलता है। वृद्धि का यह प्रतिमान सभी बच्चों में होता है, परंतु इसमें वैयक्तिक भिन्नता पाई जाती है। लड़के एवं लड़कियों के विकास प्रतिमान में भिन्नता होती है। शारीरिक विकास को सदैव भिन्न अंगों के अनुपात में परिवर्तन द्वारा जाना जाता है। शरीर के विभिन्न अंग अपने-अपने ढंग से विकसित होते हैं। जन्म के समय, बच्चों के शीर्ष भाग भारी होते हैं। बाल्यावस्था में, शरीर के दूसरे अंगों की अपेक्षा उनका सिर मन्द गति से बढ़ता है। जबकि धड़ एवं दूसरे अंग इस अवस्था में तीव्र गति से बढ़ते हैं। शारीरिक विकास की यह तीव्र गति धीरे-धीरे मन्द हो जाती है तथा बच्चा एक निश्चित आकार प्राप्त कर लेता है।

एक बच्चे की शारीरिक वृद्धि पूर्व बाल्यावस्था (3 से 7) के दौरान उसकी बचपनावस्था ( प्रथम 2 वर्ष) की वृद्धि से भिन होती है। बच्चे की एक वर्ष की आयु के बाद वृद्धि मन्द होनी शुरू हो जाती है तथा सम्पूर्ण बाल्यावस्था में मन्द बनी रहती है।इस अवस्था में बाह्य वृद्धि की अपेक्षा बच्चे के आन्तरिक अंग हृदय, फेफड़े तथा पाचन संस्थान तीव्र गति से बढ़ते हैं, परन्तु ऊँचाई तथा वजन मन्द गति से बढ़ते हैं। शारीरिक वृद्धि की अपेक्षा शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है। फलस्वरूप बच्चों के शरीर 5-6 वर्ष की आयु तक शिशुओं के अनुपात में सुडौल एवं सुगठित दिखाई देते हैं। शरी, आकार की ऊँचाई तथा वजन द्वारा मापा जाता है। शरीर वृद्धि को पीयूष ग्रन्थि द्वारा तथा स्त्रावित वृद्धि को हारमोन द्वारा नियन्त्रित किया जाता है। इस ‘वृद्धि हारमोन’ की न्यूनता व अधिकता शरीर वृद्धि को प्रभावित करती है।

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