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विकास के प्रमुख सिद्धांत-Principles of Development in Hindi

विकास के प्रमुख सिद्धांत
विकास के प्रमुख सिद्धांत

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विकास के प्रमुख सिद्धांत

जब एक छोटा पौधा, जो अंकुर बनकर फूटता है कुछ ही दिनों व वर्षों में पौधे या वृक्ष का रूप धारण कर लेता है, फिर हम कहते हैं कि देखो इस पौधे की वृद्धि हो गई, यह पेड़ बन गया। इसी तरह माँ के गर्भ में बच्चे की जब से जीवन-लीला शुरू होती है, तब से लेकर मृत्यु तक उसमें वृद्धि और विकास की प्रक्रिया चलती रहती है। अतः हम कह सकते हैं कि किसी भी जीव के लिए वृद्धि व विकास बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। यह एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। वैसे तो वृद्धि व विकास में चोली-दामन का सम्बन्ध है, जिन्हें अलग करना संभव नहीं है, फिर भी इनके अर्थों को व इनके बीच का अंतर समझने के लिए दोनों का अलग-अलग जानना अति आवश्यक है।

वृद्धि का अर्थ–

‘वृद्धि’ शब्द का प्रयोग व्यक्ति के शरीर, आकार, भार आदि में वृद्धि के सन्दर्भ में किया जाता है। इस वृद्धि में व्यक्ति की मांसपेशियों और शरीर की साधारण वृद्धि भी शामिल होती है। अतः हम कह सकते हैं कि वृद्धि की मुख्य विशेषता यह होती है कि इसे नापा, तोला व देखा जा सकता है। वृद्धि के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए फ्रैंक ने कहा है- “शरीर के किसी विशेष पहलू में जो परिवर्तन होता है, उसे वृद्धि कहते हैं।”

विकास का अर्थ-

बच्चे के शरीर की वृद्धि होने के साथ-साथ ही उसका मानसिक विकास भी होता रहता है अर्थात् बालक की वृद्धि के साथ-साथ उसकी विकास की प्रक्रिया भी चलती रहती है। शिशु के शारीरिक एवं मानसिक विकास के परिणामस्वरूप उसके व्यवहार में परिवर्तन दिखाई देते हैं और साथ ही उसमें विभिन्न प्रकार की योग्यताओं एवं शीलगुणों का उदय होता रहता है। बालक की बाल्यावस्था में विकास के पश्चात् उसमें विभिन्न प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। बाल्यावस्था में बालक में होने वाला यह विकास उसके भावी जीवन के लिए दिशा प्रदान करता है। इस प्रकार से धीरे धीरे एक नन्हा शिशु बढ़ते-बढ़ते एक जिम्मेदार नागरिक अथवा वयस्क का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार विकास की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है तथा व्यक्ति के व्यवहार को जीवन भर दिशा प्रदान करती रहती हैं अतः विकास के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि प्राणी में घटित होने वाले विभिन्न प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों के साथ-साथ गुणों तथा विशेषताओं की नियमित और क्रमिक उत्पत्ति को मनोविज्ञान की भाषा में ‘विकास’ के नाम से जाना जाता है।

इंगलिश तथा इंगलिश के अनुसार- “विकास शरीर व्यवस्था में एक लम्बे समय में होने वाले सतत् परिवर्तन का एक अनुक्रम है। विशेषतया मानव में इस प्रकार के परिवर्तन अथवा सम्बन्धित और स्थायी विशेष परिवर्तन उसके जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त होते रहते हैं।”

हरलॉक ने विकास का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है— “विकास का तात्पर्य ऐसे प्रगतिशील परिवर्तनों से हैं, जो नियमित और क्रमिक रूप से होते हैं। “

विकास के सिद्धान्त –

विकास की प्रक्रिया बहुत ही विस्तृत और जटिल होने के कारण तथा इसकी निरन्तरता के कारण इसे कुछ सिद्धान्तों का अनुकरण करना पड़ता है। अर्थात् विकास के कुछ सिद्धान्त हैं, जिनको जाने बिना विकास की प्रक्रिया को समझना कठिन है। विकास के कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का वर्णन निम्नलिखित है-

(i) निरन्तरता का सिद्धान्त

विकास की प्रक्रिया कभी न रुकने वाली प्रक्रिया है अर्थात् यह जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती ही रहती है। बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से तो विकास की प्रक्रिया माँ के गर्भ में ही शुरू हो जाती है। दो कोषों अर्थात् शुक्र और अंड के निषेचन के परिणामस्वरूप बने निषेचित अंड से जीवन लीला शुरू होती है और विभिन्न परिवर्तनों का अनुभव करते हुए यह निषेचित अंड मानव बनकर विकास के अन्य पक्षों की ओर बढ़ता है। इस प्रकार विकास की यह प्रक्रिया धीरे-धीरे तथा निरन्तर चलती रहती हैं। लेकिन यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि विकास की निरन्तरता की गति एक समान नहीं रहती। इसमें भी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इस सिद्धान्त से यह भी स्पष्ट होता है कि व्यक्ति में आया कोई भी परिवर्तन अचानक नहीं होता। आज दिखाई देने वाला परिवर्तन निरन्तरता के सिद्धान्त का अनुकरण करते हुए कुछ समय पहले शुरू हुआ होगा।

(ii) एकरूपता का सिद्धान्त

विकास की प्रक्रिया में एकरूपता दिखाई देती है, चाहे व्यक्तिगत विभिन्नताएं कितनी भी हों। लेकिन यह एकरूपता विकास के क्रम के संदर्भ में होती है। उदाहरणार्थ- बच्चों में भाषा का विकास एक निश्चित क्रम से ही होगा, चाहे ये बच्चे विश्व के किसी भी देश के हों। बच्चों का शारीरिक विकास भी एक निश्चित क्रम में होगा अर्थात् — यह विकास सिर से शुरू होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बच्चों के विकास की गति में तो अन्तर हो सकता है, लेकिन विकास के क्रम में एकरूपता होती है। इसी प्रकार हम देखते हैं कि सभी बच्चों के दूध के दांत सबसे पहले टूटते हैं तथा दूसरे बाद में। इस प्रकार एक ही जाति के सदस्यों का विकास एक निश्चित क्रम या प्रतिमान द्वारा होता है।

(iii) वैयक्तिक भिन्नताओं का सिद्धान्त-

मनोवैज्ञानिक वैयक्तिक भिन्नताओं के सिद्धान्त को बहुत महत्त्व देते हैं। चूँकि विकास प्रक्रिया को विभिन्न आयु वर्गों में बांटा गया है तथा हर आयु वर्ग की अलग-अलग विशेषताएँ होती हैं, जिनके कारण हर आयु वर्ग के व्यवहारों में अन्तर होता है। इन अन्तरों की हम अनदेखी नहीं कर सकते। जुड़वाँ बच्चों में भी वैयक्तिक भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। अतः सभी व्यक्तियों की वृद्धि और विकास उनकी अपनी स्वाभाविक गति से होता है। किसी व्यक्ति में कुछ विशेषताएँ या व्यवहार शीघ्र विकसित हो जाते हैं तथा कुछ व्यक्तियों में वही विशेषताएँ या व्यवहार देर से विकसित होते हैं। इस प्रकार उनमें पर्याप्त वैयक्तिक भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। सभी बालक वृद्धि और विकास के संदर्भ में समानता नहीं रखते।

(iv) वंशानुक्रम और वातावरण के संयुक्त परिणाम का सिद्धान्त

बच्चे की वृद्धि और विकास वंशानुक्रम की ओर वातावरण का संयुक्त परिणाम है। विभिन्न अध्ययनों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि बालक की वृद्धि और विकास पर वंशानुक्रम और वातावरण का निश्चित रूप से प्रभाव पड़ता है। इन दोनों के प्रभाव को अलग नहीं किया जा सकता। वंशानुक्रम को बच्चे के व्यक्ति की नींव माना जाता है।

(v) समग्र विकास का सिद्धान्त

मनुष्य की शरीर का विकास समग्र रूप से ही होता है। मनुष्य के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों का विकास साथ-साथ चलता रहता है। जैसे सामाजिक, मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक विकास। ऐसा भी सत्य है कि सभी पक्ष परस्पर इस विकास पर निर्भर करते हैं तथा एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। इस दृष्टि से अध्यापक को बालक के सभी पक्षों के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए।

(vi) परिपक्वता और अधिगम का सिद्धान्त-

वृद्धि और विकास की प्रक्रिया में परिपक्वता और अधिगम की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। परिपक्वता से वृद्धि और विकास प्रभावित होते हैं और ये प्रभावित हुए वृद्धि और विकास बदले में सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। कोई भी बालक किसी एक कार्य को रोकने के लिए परिपक्वता ग्रहण कर लेता है। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि उसकी यह परिपक्वता अन्य कार्यों को करने के लिए उपयुक्त हो। अतः बच्चों में परिपक्वता के स्तर में भी भिन्नताएँ होती हैं। यही भिन्नताएँ उसकी अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं। उदाहरणार्थ, यदि कोई बालक किसी कार्य को सीखने के लिए अभिप्रेरित है, लेकिन उस कार्य के लिए अभी उसका भौतिक विकास पर्याप्त नहीं हैं तो वह बालक उस कार्य को सीखने में असमर्थ होगा और हमें उस बालक से अधिक आशाएँ रखनी भी नहीं चाहिए।

(vii) विकास दिशा का सिद्धान्त

वृद्धि और विकास की अपनी ही दिशा होती है. और यह दिशा निश्चित है। मानव के बच्चे का सबसे पहले ‘सिर’ प्रौढ़ आकार ग्रहण करता है तथा टाँगें सबसे बाद में। भ्केरूण विकास में यह सिद्धान्त बहुत ही स्पष्ट है। इस प्रकार विकास की निम्न दिशाएँ होती हैं-

(क) सिर से पाँव की ओर- मानव शिशु सिर से पाँव की ओर बढ़ता और विकसित होता है, न कि पाँव से सिर की ओर।

(ख) रीढ़ की हड्डी से बाहर की ओर- इसी प्रकार विकास का क्रम रीढ़ की हड्डी से शुरू होता है और फिर बाहरी विकास होना शुरू होता है। इस प्रकर हम कह सकते हैं कि भ्रणावस्था में सबसे पहले सिर का विकास होता है, फिर शरीर का निचला सिरा विकसित होता है। इसी प्रकार पहले सुषुम्ना नाड़ी का विकास होता है, फिर हृदय, छाती आदि भागों का विकास होता है।

(ग) स्वरूप के पश्चात क्रियाएँ– सर्वप्रथम शरीर के विभिन्न भाग विकसित होते हैं, फिर उसके पश्चात उनका प्रयोग किया जाता है। लेकिन उन्हें किसी विशिष्ट कार्य के लिए प्रयोग करने से पहले इनकी माँसपेशियों का विकास हो जाना चाहिए।

(viii) वृद्धि और विकास की गति की दर में भिन्नता का सिद्धान्त

व्यक्ति की वृद्धि और विकास की विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं। उन सभी अवस्थाओं के दौरान वृद्धि और विकास की गति की दर में भी भिन्नताएँ होती हैं। उन अवस्थाओं के दौरान विकास की गति-दर एक समान नहीं होती। प्रारम्भिक अवस्थाओं में यह गति तीव्र होती है, लेकिन बाद में वह गति धीमी पड़ जाती है। प्रारम्भिक अवस्थाओं में शारीरिक वृद्धि और विकास की दर तीव्र होती है, लेकिन बाद में भी धीमी हो जाती है। फिर एक ऐसी अवस्था आ पहुँचती है कि शारीरिक वृद्धि रुक जाती है। लेकिन तब गुणात्मक विकास होता रहता है।

(ix) विकास की भविष्यवाणी का सिद्धान्त-

अब अनुसंधान से यह भी स्पष्ट हो चुका है कि विकास की भविष्यवाणी करना अब संभव है। उदाहरणार्थ- बालक के सम्मान, रुचियाँ, अभिरुचियाँ वृद्धि इत्यादि।

(x) सामान्य से विशिष्ट की ओर विकास का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार बालक पहले सामान्य व्यवहार सीखता हैं, फिर धीरे-धीरे यह सामान्य व्यवहार विशिष्टता की ओर बढ़ता है। उदाहरणार्थ, सबसे पहले बच्चा किसी वस्तु को पकड़ने का प्रयास करता है, तो वह अपने हाथ इधर-उधर मारने का प्रयास करता है। लेकिन धीरे-धीरे वह समय के साथ विशिष्टता की ओर बढ़ता है। इसके परिणामस्वरूप वह उसी वस्तु पर हाथ डालता है, जिसे वह उठाना चाहता है। इसी प्रकार बालक पहले सामान्य शब्द सीखता है, फिर विशिष्ट अक्षरों को पहले बच्चा सभी पक्षियों को चिड़िया कहकर ही सम्बोधित करता है, लेकिन समय के साथ-साथ वह विभिन्न पक्षियों के नाम सीख लेता है तथा उनके नामों से उन्हें पुकारना शुरू कर देता है।

(xi) एकीकरण का सिद्धान्त –

इस सिद्धान्त के अनुसार पहले बच्चा सम्पूर्ण अंग को और फिर उसके विशिष्ट भागों को प्रयोग करना या चलाना सीखता है। फिर उन भागों का एकीकरण करना सीखता है। उदाहरणार्थ, पहले बच्चे पूरे हाथ को हिलाता है, फिर धीरे-धीरे हाथ को और उसकी उँगलियों को हिलाने का प्रयास करता है।

(xii) विकास की संचिता और पुनरावृत्ति का सिद्धान्त

विकास अनुभवों का कुल योग होता है, न कि केवल किसी एक ही अनुभव पर आधारित विकास पुनरावृत्ति वाला इसलिए होता है, क्योंकि विकास की प्रत्येक अवस्था की विशेषताओं की आवृत्ति दूसरी अवस्था में भी देखी जा सकती है। ‘उदाहरणार्थ, बचपन का प्रेम किशोरावस्था में भी देखा जा सकता है।

(xiii) मूर्त से अमूर्त की ओर सोचने का सिद्धान्त-

मानसिक विकास भौतिक रूप से उपस्थित वस्तुओं के बारे में चिन्तन करने की योग्यता से उन वस्तुओं को देखने के सिद्धान्त का अनुकरण करता है, जो अमूर्त रूप में होती हैं। बालक प्रभाव और कारण को समझने का प्रयास करता है।

(xiv) बाहरी नियंत्रण से आन्तरिक नियंत्रण का सिद्धान्त-

छोटे बच्चे मूल्यों और सिद्धान्तों के लिए दूसरों पर निर्भर करते हैं, जैसे ही वे बड़े होते हैं, उनकी स्वयं की मूल्य प्रणाली, स्वयं की आत्मा तथा उनका स्वयं का आन्तरिक नियंत्रण का समूह या सैट विकसित हो जाता है।

(xv) विकास में विभेदीकरण तथा एकीकरण की प्रक्रिया होती है-

शिशु के रूप में व्यक्ति की क्रियाएँ ठोस अर्थात् एकीकृत होती हैं। इन क्रियाओं द्वारा व्यवहार के सामान्य, विशिष्ट एवं समन्वित प्रतिम त उत्पन्न होते हैं। विशिष्ट प्रतिमान नए और जटिल व्यवहार को सीखने के लिए पुनः एकीकृत होते हैं। विकास के दो सामान्य नियम होते हैं प्रथम, विभेदीकरण तथा द्वितीय श्रेणीबद्ध एकीकरण। ये दोनों,नियम परस्पर निकट सम्बन्ध रखते हैं। बच्चों का शारीरिक विकास उनके नियन्त्रण की मात्रा में तथा क्रियात्मक कार्यों में विशिष्टता को दर्शाता है। शिशु शीघ्र क्रियात्मक समन्वय की अभिव्यक्ति करना शुरू सुधार होना कर देते हैं। पहले वे भुजाओं की क्रियाओं पर नियन्त्रण दिखाते हैं, फिर हाथ की क्रियाओं तथा अन्त में अंगुलियों की क्रियाओं का पूर्ण नियन्त्रण दिखाते हैं। यह नियन्त्रण बच्चों की शारीरिक क्रियाओं में विभेदीकरण कहलाता है। अनेक व्यक्तिगत क्रियाएँ जिनमें, बच्चा प्रवीणता प्राप्त कर लेता है, व्यवहार के अधिक जटिल एवं परिष्कृत प्रतिमानों के रूप में एकीकृत कर ली जाती है। वरनर ने इस प्रक्रिया को श्रेणीबद्ध एकीकरण इस प्रक्रिया का अर्थ है कि बच्चे के नए सीखे गए क्रियात्मक कौशल के अलग-अलग भागों को क्रियात्मक व्यवहार की पूर्ण इकाई के रूप में अधिकाधिक संगत ढंग से एकीकृत किया जाता है। उदाहरणार्थ, बच्चे द्वारा भुजाओं, टांगों एवं गर्दन की गतिविधियों पर पूर्णरूपेण नियन्त्रण करने (विभेदीकरण) के पश्चात् व इन विभेदी क्रियाओं में एकत्रित करता है जिसके फलस्वरूप अधिक जटिल एकीकृत व्यवहार उत्पन्न होता है, जैसे बच्चे द्वारा बिना सहारे के बैठना (श्रेणीबद्ध एकीकरण)। इसी प्रकार हम देखते हैं कि बच्चा प्रारम्भ में खाना खाते समय हाथों तथा चम्मच का अभद्र रूप से प्रयोग करता है तथा खाने का कुछ भाग नीचे भी डाल देता है (विभेदीकरण)। परन्तु धीरे-धीरे वह पूर्ण दक्षता के साथ अंगुलियों या चम्मच की सहायता के बिना नीचे बिखरते हुए खाना शुरू करता है तथा साथ-साथ बातें भी करता है या समाचार पत्र पढ़ सकता है। यह ‘एकीकरण’ कहलाता है यह प्रक्रिया विकास के प्रत्येक पहलू में देखी जा सकती है, जैसे अंकों व अक्षरों को सीखा जाना, फिर साधारण प्रश्न एवं पंक्ति याद की जाती है तथा पूर्ण विकास के बाद जटिलतम समस्याओं का भी समाधान कर लिया जाता है। इस प्रकार, विकास प्रक्रिया में ‘विभेदीकरण’ एवं ‘एकीकरण’ की प्रक्रिया निरन्तर बनी रहती है ।

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