बाल विकास के प्रमुख तत्त्व या विशेषताएँ-Main Characteristics of Child Development in Hindi
बाल विकास के प्रमुख तत्त्व या विशेषताएँ – बालक के विकास को अनेक बातें प्रभावित करती हैं, जैसे- बुद्धि, योनि, पोषण, प्रजाति, संस्कृति, चोट या रोग, शरीर के अन्दर की ग्रन्थियाँ, परिवार के स्थान आदि। इन सबका संक्षेप में बाल विकास के तत्त्वों के रूप में उल्लेख किया जा सकता है—
1. बुद्धि या मानसिक योग्यता- बालक के विकास में उसकी जन्मजात बौद्धिक योग्यता का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। तीव्र बुद्धि के बालकों का विकास भी तीव्र गति से होता है और मन्द बुद्धि के बालकों का विकास मन्द गति से। प्रायः देखा गया है कि मन्द बुद्धि के बालकों का शरीरिक विकास भले ही हो जाये, किन्तु उनके सामाजिक, सांवेगिक, नैतिक, मानसिक विकास की गति बहुत धीमी रहती है। टर्मन ने बालक के चलने और बोलने के बारे में अध्ययन किया। उनके अनुसार कुशाग्र बुद्धि के बालक 13 महीने की उम्र में चलना प्रारम्भ कर देते हैं। सामान्य बुद्धि के बालक 14 महीने की उम्र में, जबकि मूर्ख बालक 22 महीने की उम्र में तथा मूढ़ बालक तीस महीने की उम्र में इसी प्रकार बोलने के सम्बन्ध में कुशाग्र बुद्धि बालक 11 महीने की आयु में बोलने लगते हैं, सामान्य बुद्धि के बालक 16 महीने में, मूर्ख बालक 34 महीने में तथा मूढ़ बालक 51 महीने में बोलते हैं।
2. योनि या लिंग-भेद– योनि का बालक के विकास में महत्त्वपूर्ण योग होता है। इसका प्रभाव बालक के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ता है। वैसे जन्म के समय लड़के, लड़कियों से आकार में बड़े होते हैं, किन्तु बाद में उनका विकास अपेक्षाकृत तेजी से होता है। यौन परिपक्वता लड़कियों में शीघ्र आती है और वे अपना पूर्ण आकार लड़कों की अपेक्षा शीघ्र ग्रहण कर लेती हैं। लड़कों का मानसि विकास भी लड़कियों की अपेक्षा कुछ देर से होता है।
3. पोषण – बालक के स्वस्थ विकास के लिये पौष्टिक और संतुलित आहार अत्यन्त आवश्यक है। संतुलित आहार का अर्थ है कि बालक का आहार विभिन्न खाद्य पदार्थों का इस प्रकार और इतनी मात्रा में चयन करना है जिससे कि उसमें आवश्यक प्रोटीन, चिकनाई, स्टार्च, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन आदि सभी उपयुक्त मात्रा में हों। ये सभी बालक के शरीर और मस्तिष्क के विकास में संतुलित योग देते हैं। पोषक तत्त्वों के अभाव में बालक का संतुलित ढंग से विकास नहीं होता है। दूध, घी, फल, अण्डे आदि पोषक आहार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
4. प्रजाति या वर्ण-भेद- यद्यपि यह बात बहुत विवादास्पद है कि जीवशास्त्रीय दृष्टिकोण से कुछ प्रजातियाँ दूसरी प्रजातियों से श्रेष्ठ होती हैं अथवा नहीं, किन्तु कुछ विद्वानों के अध्ययनों से यह पता चलता है कि श्वेत जातियों का विकास अश्वेत नीग्रो या अन्य जातियों के अपेक्षा तीव्र गति से होता है। मैक्ग्रो ने अपने अध्ययन में यह बताया कि समान आयु में नीग्रो लोगों की विकास गति गोरों की अपेक्षा केवल 80% है। जुंग भी प्रजातीय प्रभाव को बालक के विकास में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनका कहना है कि भूमध्यसागरीय तट पर रहने वाले बालकों का शरीरिक विकास शेष यूरोप के बालकों की अपेक्षा शीघ्र होता है। वास्तव में श्वेत और अश्वेत बालकों के विकास में अन्तर जन्मजात कारणों से न होकर अवसर की कमी। से होता है। उदाहरण के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका में अभी भी गोरों की अपेक्षा नीग्रो बालकों को शिक्षा, हैं। पोषण और सामाजि सम्पर्क के कम अवसर प्राप्त है।
5. अन्तःस्त्रावी ग्रंथियों का स्त्राव – बालक के विकास पर अन्तःस्त्रावी ग्रंथियों का काफी प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव जन्म से पूर्व और जन्म के बाद दोनों ही स्थितियों में होता है। वास्तव में अन्तःस्त्राव ग्रन्थियों से जो रस निकलता है, वह रस रक्त में मिलकर बालक की विभिन्न क्रियाओं को प्रभावित करता है। गले की थायराइड ग्रन्थि, इसके पास स्थित पैराथायराइड ग्रन्थि, पीनल ग्रन्थि, थाइमस ग्रन्थि, पिट्यूटरी या मास्टर ग्रन्थि, योनि ग्रन्थि तथा एड्रीनल ग्रन्थि प्रमुख अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ हैं। इन ग्रन्थियों के सही ढंग से कार्य न करने पर शारीरिक और मानसिक विकास रुक जाता है तथा व्यक्ति अनेक रोगों का शिकार हो जाता है। उदाहरण के लिये थॉयरायड और पैराथॉयराइड ग्रन्थियों के दोष के कारण माँसपेशियों में अत्यधिक संवेदनशीलता आती है और शारीरिक विकास पर दुष्प्रभाव पड़ता है। थॉयराइड ग्रन्थि से निकलने वाले थायरॉक्सीन की कमी के कारण बालक मूढ़ हो जाता है।
6. रोग या चोट – बचपन में रोग होने या चोट लग जाने से भी कभी-कभी बालक पर स्थायी प्रभाव पड़ता है। बालक के सिर पर चोट लगने से उसका मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। बच्चों को तेज बुखार या टाइफायड हो जाने, शरीर में किसी प्रकार का विष पहुँचने से या फिर जन्मजात रोक के संक्रमण हो जाने से उसका जीवन रोगग्रस्त हो जाता है। अतः यह आवश्यक है कि बालक को इनसे बचाने और रोग हो जाने पर प्रारम्भ से ही इलाज करने का पूरी तरह प्रयास करना चाहिये।
7. शुद्ध वायु एवं प्रकाश- शुद्ध वायु और प्रकाश बालक के विकास के लिये नितान्त आवश्यक तत्त्व माने जाते हैं। इनके अभाव में शारीरिक और मानसिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः बालक के विकास के लिये खुले वातावरण में रहना तथा ऐसे मकान में, जिनमें खिड़कियाँ हों, आती हो और सूर्य का प्रकाश पहुँचता हो, आवश्यक है। •शुद्ध हवा
8. सांस्कृतिक प्रभाव – प्रत्येक संस्कृति में विकास के अलग-अलग अवसर होते हैं तथा रीति रिवाज और परम्पराएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। अतः बालक का विकास इन्हीं के अनुरूप होता है। मीड, वैनेडिक्ट और अन्य कई मानवशास्त्रियों ने आदिम समाजों के जो अध्ययन किये हैं उनसे इस बात पर काफी प्रकाश पड़ता है।
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