विद्यालय प्रबन्धन की विधियाँ अथवा आयाम कौन-कौन से हैं? प्रत्येक का विस्तृत वर्णन कीजिए।
विद्यालय प्रबन्धन में अनेक विधियाँ (आयाम) का उपयोग किया जाता है। प्रमुख आयाम निम्नलिखित हैं-
(1) मानव-शक्ति आयाम
(2) सामाजिक माँग विधि
(3) विनियोग आयाम अथवा लागत विधि
(4) समाजितक न्याय-विधि अथवा सामाजिक न्याय आयाम।
(1) मानव-शक्ति आयाम— इस विधि को नियोजन का प्रतिमान भी मानते हैं। इसको मानवीय स्रोतों के विकास का आयाम भी कहते हैं। यह शब्द अधिक व्यावहारिक है तथा इस आयाम के अर्थ को प्रकट करता है। प्रत्येक सामाजिक प्रणाली अथवा तंत्र प्रभावी ढंग से संचालित करने के लिए शिक्षित तथा प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। ऐसे व्यक्तियों में सुनिश्चित ज्ञान, अपेक्षित अभिवृत्तियाँ तथा वांछित कौशल होते हैं। मानवीय-शक्ति आयाम में ऐसे व्यक्तियों की माँग तथा आवश्यकता होती है। मानव-शाक्ति से समाज तथा राष्ट्र का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, तकनीकी विकास एवं परिवर्तन किया जाता है। शिक्षा द्वारा मानवीय- स्रोतों का अपेक्षित विकास किया जाता है, जो राष्ट्र के आधुनिकीकरण में सहायक होता है। शैक्षिक नियोजन में शिक्षा की अहम् भूमिका होती है तथा शैक्षिक नियोजन का लक्ष्य मानव- शाक्ति में स्रोतों का अधिकतम विकास करना है। शैक्षिक नियोजन से शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन तथा विकास किया जाता है। राष्ट्र के मानव-शक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए।
(2) सामाजिक माँग विधि- आज विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के छात्रों के प्रवेश के लिए, दौड़ तथा भीड़ लगी है। यह समाज की शिक्षा की माँग का परिचायक है। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि मानव-शक्ति का विकास-सामाजिक विकास के अनुरूप हो। सामाजिक माँग के दो पक्ष हैं-प्रथम पक्ष में समाज की माँग यह है कि सभी को शिक्षा ग्रहण करने का अवसर मिले। यह मांग प्रवेश के समय दिखाई देती है। प्रत्येक माँ-बाप यही प्रयास कर रहे हैं कि उनके बच्चे को उत्तम शिक्षा तकनीकी या व्यावसायिक शिक्षा में प्रवेश दिला सकें। इसके लिए लाखों रुपये का अनुदान देते हैं। द्वितीय पक्ष में समाज की माँग यह भी है कि शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उन्हें अच्छा व्यवसाय भी मिल सके, परन्तु ऐसा नहीं हो पा रहा है। राष्ट्र की आवश्यकता से अधिक मानव-शक्ति का विकास हो रहा है। यह समस्या शिक्षा नियोजन की कमी के कारण हो रही है।
यह समस्या मांग तथा पूर्ति के कारण है। राष्ट्र तथा समाज की माँग से अधिक पूर्ति के लिए प्रशिक्षित व्यक्ति उपलब्ध हैं। इस प्रकार समाज में बेरोजगारी में वृद्धि शीघ्रता से हो रही है। इसके परिणामस्वरूप आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याएँ पैदा हो रही हैं। इस प्रकार ऐसी शिक्षा नीति अपनायी जाये, जिससे योग्य छात्रों को ही प्रोत्साहित किया जाये। शैक्षिक उपलब्धियों के आधार पर चयन किया जाये, जिससे राष्ट्र के लिए आवश्यक नेतृत्व हेतु शिक्षा द्वारा व्यक्ति तैयार किये जा सकें। इसके लिए शिक्षा नियोजन में विशेष सावधानियाँ रखनी होंगी तभी संतुलन रखा जा सकेगा। यदि सामाजिक माँग और संवैधानिक प्रावधान के अनुसार शिक्षा तथा प्रशिक्षण दिया जाये तो बेराजगारी की समस्या होगी। यह समस्या अन्य समस्याओं को जन्म देगी। सामाजिक और राजनीतिक स्थायित्व को खतरा हो जायेगा।
(3) विनियोग आयाम या लागत-विधि- शिक्षा नियोजन में विनियोग आयाम को भी महत्त्व दिया जाता है। इसका अर्थ होता है कि शिक्षा ग्रहण करने में जितना व्यय किया गया है, उससे अधिक आय शिक्षा ग्रहण के बाद होनी चाहिए। इसे शिक्षा विनियोग भी कहते हैं।
शिक्षा विनियोग का अर्थ-
शिक्षा के विनियोग के दो अर्थ होते हैं-
(i) शिक्षा का परिणाम- प्रशिक्षण संस्थाओं में जिन छात्रों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया उन्होंने कोई उत्पादन क्षमता ग्रहण नहीं की है, जिससे वे उत्पादन में सहयोग कर सकें। यहाँ योगदान से तात्पर्य उत्पादन में वृद्धि से है। बिना शिक्षा के उत्पादन कितना था और प्रशिक्षण से उत्पादन में कितनी वृद्धि हुई है। दोनों के उत्पादन के अन्तर को शिक्षा की उत्पादकता कहते हैं।
(ii) जीविकोपार्जन का स्तर- शिक्षित व्यक्ति का स्तर अशिक्षित व्यक्ति से ऊँचा होना चाहिए। यदि शीक्षित व्यक्तियों का स्तर ऊँचा है तब कह सकते हैं कि शिक्षा का लाभ है और शिक्षा एक विनियोग है। यह दोनों प्रकार के विनियोग, शक्ति तथा राष्ट्रीय दोनों स्तर पर होते हैं। साक्षरता में वृद्धि से राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय बढ़ जाती है। यह व्यक्ति तथा राष्ट्रीय दो ही प्रकार की है। शिक्षा के बाद बेरोज़गारी नहीं है। यह भी धनात्मक लाभ है। इस प्रकार शिक्षा व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के लिए उपयोगी तथा लाभकारी है। उच्च शिक्षा से आय भी अधिक होती है, इसलिए उच्च शिक्षा सभी ग्रहण करना चाहते हैं।
(4) सामाजिक न्याय आयाम- इस आयाम को सामाजिक नियोजन अथवा ‘सामाजिक विकास हेतु नियोजन’ भी कहते हैं। समाज और राष्ट्र के लक्ष्यों की प्राप्ति शिक्षा द्वारा दी जाती है। कोठारी आयोग (1964-66) में भी कहा गया है कि-“भारत के भाग्य का निर्माण उसकी कक्षा में होता है।’ राष्ट्रीय नीतियों के प्रतिपादन में सामाजिक विकास के लक्ष्यों को ही ध्यान में रखा जाता है।
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