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सन्त काव्य की प्रमुख सामान्य प्रवृत्तियां/विशेषताएं | SANT kavya ki visheshta

सन्त काव्य की प्रमुख सामान्य प्रवृत्तियां
सन्त काव्य की प्रमुख सामान्य प्रवृत्तियां

सन्त काव्य की प्रमुख सामान्य प्रवृत्तियां/विशेषताएं | SANT kavya ki visheshta

सन्त काव्य की प्रमुख सामान्य प्रवृत्तियां/विशेषताएं – सन्त काव्य में वाटिका का श्रम साध्य अथवा कृत्रिम सौन्दर्य नहीं, उसमें वनराज की प्रकृति भी है। इस वाक्य मे आध्यात्मिक विषयों की अभिव्यक्ति हुई है पर वह जनजीवन में डूबी हुई अनुभूतियों से सम्पन्न है। सन्त काव्य ने अनेक धार्मिक संप्रदायों के प्रभाव को आत्मसात् किया है किन्तु इसमें धर्म अथवा साधना की कोई शास्त्रीय व्याख्या नहीं बल्कि जन-भाषा में उसका मर्म है। इस काव्य में जनजीवन के सत्य की अभिव्यक्ति अलंकारविहीन सीधी-सादी भाषा में है जहां पग-पग पर स्वाधीन चिन्तन प्रतिफलित हुआ है। सन्त साहित्य सादना, लोक-पक्ष तथा काव्य-वैभव, सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। नाथ संप्रदाय की पद्धति शास्त्रीय थी और साधना व्यक्तिगत थी किन्तु सन्त संप्रदाय की पद्धति स्वतंत्र और साधना सामाजिक थी। सन्त कवियों की विचारसरणि निजी अनुभूतियों पर आधृति है, अत: उसमें दर्शन शुष्कता न होकर काव्य की कोमलता है। सन्त साहित्य में एक अद्भुत विचारगत साम है। निम्नांकित पंक्तियों में सन्त साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों का उल्लेख किया जायेगा-

(1) निर्गुण ईश्वर में विश्वास-

सभी सन्त निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते हैं। ये कवि सूर और तुलसी के समान सगुण और निर्गुण के समन्वयवादी नहीं। उन्होंने ईश्वर के सगुण रूप का विरोध किया है। कवि का कहना है-

दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना,
रामनाम का मरम है जाना।

सभी वर्गों और समूची जातियों के लिए वह निर्गुण एकमात्र ज्ञानगम्य है। वह अविगत है। वेद, पुराण तथा स्मृतियां जहां तक नहीं पहुंच सकतीं-

निर्गुण राम जपहु रे भाई, अविगत की गति लखी न जाई।

वह ब्रह्म पुहुप वास से पातरा है, अजन्मा और निर्विकार है। यह सारा संसार उस अक्षय पुरुष रूपी पेड़ के पत्ते के समान है। वह ईश्वर घट-घट में विराजमान है। कबीर का कहना है जैसे कस्तूरी मृग की नाभि में रहती है और वह व्यरत ही उसे वन में ढूँढ़ने के लिए भटकता फिरता है, उसी प्रकार राम घट-घट व्यापी है, उसे बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं। प्रियतम इनके दिल में है, अतः उसे पातियां लिखना व्यर्थ है। प्रायः प्रत्येक सन्त ने अपने मत के प्रचारार्थ अपना-अपना संप्रदाय चलाया।

(2) हठयोग की प्रधानता-

संति कवि नाथ पन्थ के हठयोग से प्रभावित थे, जिससे इनके काव्य में हठयोग की प्रधानता रही। हठयोग के आधार पर योगी प्राणायाम द्वारा मूलाधार चक्र में स्थित कुण्डलिनी को जगाते हैं जो जाग्रत अवस्था में षट् चक्रों को पार कर ब्रह्म में स्थित सहस्स दल कमल पर पहुच जाती है। यहां वह चंद्र-विम्ब से निरंतर झरने वाले अमृत का पान करती है और परम दिव्य अनहद नाद श्रवण कर ब्रह्मानन्द का अनुभव करते हैं।

(3) बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध-

सन्त कवियों ने बहुदेववाद तथा अवतारवाद पर अविश्वास प्रकट करते हुए इस भावना का निभीकतापूर्वक खंडन किया है। कारण, तो शंकर के अद्वैतवाद का प्रभाव शेष था और दूसरे इसकी राजनीतिक आवश्यकता भी थी। मुसलमान एकेश्ववादी था। हिन्दू-मुस्लिम दोनों जातियों में विद्वेषाग्नि को शांत करके नमें एकता की स्थापना के लिए इन्होंने एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया और बहुदेववाद का घोर विरोध किया-

यह सिर नवे न राम कुँ, नाहीं गिरियो टूट।
आन देव नहिं पररसिये, यह तन जाये छूट॥-चरनदास

(4) सद्गुरु का महत्त्व-

गुरु को भगवान से भी अधिक महत्त्व देना सन्त कवियों की एक सर्वमान्य विशेषता है।  की एक सर्वमान्य विशेषता है। कबी के शब्दों में-

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पाइ।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताइ।

इन पंक्तियों का विश्वास है कि राम की कृपा भी तभी होती है जब गुरू की कृपा होती है। यों तो गुरु की महत्ता सगुण भक्त कवियों में भी मिलती है पर अन्तर यह है कि सन्त कवि गुरु को परमेश्वर भी मान लेते हैं। सारांश यह है कि निर्गुण भक्त कवि सगुण भक्त कवियों की अपेक्षा गुरु को अधिक महत्त्व देते हैं।

(5) जाति-पांति के भेद-भाव का विरोध-

सभी सन्त कवि जाति-पांति और वर्ग-भेद के प्रबल विरोधी हैं। ये लोग एक सार्वभौम मानव धर्म के प्रतिष्ठापक थे। इनकी दृष्टि में भगवद्भक्ति में सबको समान अधिकार है-

जाति पांति पूछे नहीं कोई,
हरि को भजे सो हरि का होई।

इसका विशेष कारण यह है कि एक तो सभी सन्त निम्न जाति से सम्बन्ध रखते थे- कबीर जुलाहे थे, रैदास चमार थे। इसके अतिरिक्त भक्ति आंदोलन भी जाति-भेद एवं वर्ग-भेद को तुच्छ ठहरा रहा था। इसके सात इन सन्तों को हिन्दू-मुसलमानों में एकता स्थापित करने के लिए एक सामान्य भक्ति मार्ग की प्रतिष्ठा भी करनी थी। इस भेद के निवारणार्थ इनके स्वर में अत्यंत प्रखरता और कटुता आई-

अरे इन दाउन राह न पाई।
हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी, तुरकन की तुरकाई॥-कबीर

इसी प्रकार है-

तू ब्राह्मण हौ काशी का जुलाहा चीन्ह न मोर गियाना।
तू जो बामन बामनी जाया और राह है क्यों नहीं आया।

(6) रूढ़ियों और आडम्बरों का विरोध-

प्रायः सभी सन्त कवियों ने रूढ़ियों, मिथ्या आडम्बरों तथा अन्धविश्वासों की कटु आलोचना की है। इसका कारण इन लोगों का सिद्धों और नाथपंथियों से प्रभावित होना है। ये लोग तत्कालीन समाज में पाई जाने वाली इन कुप्रवृत्तियों का कड़ा विरोध कर चुके थे। इन्होंने मूर्तिपूजा धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा, तीर्थ, व्रत, रोजा, नमाज, हज आदि विधि विधानों, बाह्य आडम्बरों, जाति-पांति के भेद आदि का डटकर विरोध किया है। प्रायः इन्होंने अपने युग के वैष्णव संप्रदाय को छोड़कर शेष सभी धर्म  संप्रदायों की कट आलोचना की है जैसे-

बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।

जे जन बकरी खात है, तिन को कौन हवाल॥
कांकर पाथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदाय॥
पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूवू पहार।
ताते वह चक्की भली पीस खाय संसार॥

कदाचित् इस भर्त्सनामय खण्डनात्मकता के कारण कबीर को सिकन्दर लोधी द्वारा दी गई यन्त्रणाओं को भी सहना पड़ा और इसी कारण इनसे हिन्दू और मुसलमान दोनों चिढ़ गये थे। संप्रदाय से आई। प्रणयानुभूति के क्षेत्र में पहुंचकर ये खंडन-मंडल की प्रवृत्ति को भूल जाते हैं

(7) रहस्यवाद-

सन्त संप्रदाय में प्रेमाक्ति और रहस्यमयता की प्रवृत्तियां विठ्ठल पर्याप्त सफलता मिली है। सन्त काव्य में मुख्यतः अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना हुई जिसे रहस्यवाद और इनका मृदुल एवं पेशल हृदय तरल हो जाता है। विरहानुभूतियों की अभिव्यक्ति में इन्हें की भी संज्ञा दी गई है। साधना के क्षेत्र में जो ब्रह्म है, साहित्य के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।

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