जेण्डर का अर्थ-Meaning of gender in Hindi
लिंग की सामाजिक रचना होने के नाते जेण्डर से अभिप्राय लिंग के अनुरूप किए जाने वाले व्यवहार, भूमिकाओं, प्रत्याशाओं तथा समाज में की जाने वाली क्रियाओं से है। प्रत्येक समाज पुरुष एवं स्त्री से अलग व्यवहार की आशा करता है, उनकी भूमिकाओं, क्रियाओं एवं गतिविधियों में भी अन्तर पाया जाता है। अधिकांश समाजों में परम्परागत रूप से लिंग के आधार पर श्रम-विभाजन पाया जाता था, जिसके अनुसार स्त्रियों की भूमिका घर की चहारदीवारी के भीतर सीमित कर दी गई थी। पुरुष की भूमिका बाहर जाकर कार्य करने की रही है। इस प्रका यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्रीय भाषा में जेण्डर पर आधारित भूमिका से अभिप्राय विभिन्न संस्कृतियों में लिंग के अनुरूप किए जाने वाले व्यवहार प्रतिमानों से है। ऐसा माना जाता है कि ‘जेण्डर’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘जीनस’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ ‘प्रकार’ (Kind, type or sort) है। इसका अर्थ वर्ग के रूप में भी लिया जाता है। यह वह वर्ग है, जिसके साथ समाज को लिंगानुरूप मान्यताएँ जुड़ी होती हैं। महिलाओं का पुरुषों की तुलना में घरेलू कार्यों में संलग्न होना, लड़के के जन्म को लड़की की तुलना में अधिक प्राथमिकता देना, लड़के को माँ-बाप के बुढ़ापे का सहारा मानना तथा लड़की को पराया धन मानना, माता-पिता द्वारा लड़की की तुलना में लड़के की शिक्षा एवं रोजगार को अधिक प्राथमिकता देना, पुरुष को स्त्री की तुलना में अधिक ऊँची सामाजिक प्रस्थिति का मानना आदि जेण्डर से सम्बन्धित अन्तर माने जाते हैं।
जेण्डर की अवधारणा
जेण्डर एक सामाजिक-सांस्कृतिक तथ्य है, जिसे हम लिंग की सामाजिक रचना भी कह सकते हैं। यह किसी प्राकृतिक प्रक्रिया का परिणाम न होकर सामाजिक संरचना द्वारा निर्मित प्रक्रियाओं की सामाजिक रचना होती है। विभिन्न समाजों में सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर होने के कारण जेण्डर के रूप में लिंग की यह सामाजिक रचना भिन्न-भिन्न प्रकार की हो सकती है। इसीलिए विभिन्न समाजों में अथवा एक ही समाज के विभिन्न युगों में जेण्डर से सम्बन्धित भूमिकाओं में भी अन्तर पाया जाता है। इस नाते जेण्डर एक स्थायी एवं अपरिवर्तनीय सामाजिक रचना नहीं है। जेण्डर पर आधारित पहचान गतिशील (गत्यात्मक) होती है तथा इसे बनाए रखने में अनेक कारकों की निरन्तर अन्तक्रिया उत्तरदायी मानी जाती है। इन कारकों में सामाजिक, राजनीतिक, लैंगिक, आर्थिक तथा ऐतिहासिक प्रमुख हैं। जेण्डर पर आधारित वर्गीकरण का आधार लिंग पर आधारित श्रम-विभाजन है, जिसके आधार पर यह परिभाषित किया जाता है कि स्त्रियों के लिए कौन-सा श्रम वांछनीय है तथा पुरुषों के लिए कौन-सा?
पुरुषों एवं स्त्रियों के जैविक प्रवृत्ति से ही सामाजिक भूमिकाएँ निर्धारित होती हैं। स्त्रियों को घर एवं चूल्हे से तथा पुरुषों को बाहरी दुनिया, स्त्रियों को प्रकृति तथा पुरुषों को संस्कृति, स्त्रियों को नीति तथा पुरुषों को सार्वजनिक, स्त्रियों को भावनाओं तथा पुरुषों को तार्किकता से जोड़ा जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से संस्कृति द्वारा निर्मित पुरुषत्व तथा स्त्रीत्व का प्रचलन दोनों लिंगों में असमान शक्ति सम्बन्धों को बनाए रखने के लिए होता चला आ रहा है। स्त्रियों को सीमित भूमिका प्रदान की जाती है तथा यह उनके जैविक अनुभवों के इर्द-गिर्द ही है। यद्यपि यह सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिवेश में परिवर्तन तथा स्त्री आन्दोलनों के परिणामस्वरूप थोड़ा-बहुत परिवर्तित हुआ है, फिर भी सामाजिक व्यवहार को निर्धारित करने में इसे आज भी महत्वपूर्ण माना जाता है।
सन् 1950 एवं 1960 के दशक में अंग्रेज एवं अमेरिकी मनोरोग एवं चिकित्सा विशेषों ने पहली बार ‘लिंग’ एक ‘जेण्डर’ में लिंग के जैविक तथ्य होने के रूप में तथा जेण्डर के इसकी सामाजिक-सांस्कृतिक रचना के रूप में अन्तर किया। तभी से नारीवादी विद्वान् जेण्डर पर आधारित भेदभाव के विरुद्ध अपनी आवाज उठाते आ रहे हैं। उनका मत है कि जीवविज्ञान ही भाग्य का निर्धारण नहीं करता है अर्थात् स्त्री या पुरुष होना ही भाग्य रेखा को निर्धारित करने वाला एकमात्र तथ्य नहीं है। स्त्रियाँ भी वे सभी सामाजिक भूमिकाओं का निर्वहन कर सकती हैं, जिनका पुरुष करते हैं। इसलिए लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाना स्त्रियों के प्रति किए जाने वाले अन्याय, अत्याचार एवं शोषण का द्योतक है। नारीवादी विद्वान इस शोषण का विरोध करते हैं तथा पितृसत्ता के कारण लिंग पर आधारित भूमिकाओं तथा लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को अनुचित मानते हैं।
‘जेण्डर’ तुलना के एक सूचकांक के रूप में-
संस्कृति, राष्ट्र तथा वर्ग की भाँति जेण्डर को भी तुलना के सूचकांक के रूप में प्रयोग किया गया है। विभिन्न देशों में बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में एकाएक ऐसे अध्ययनों में तीव्रता से वृद्धि हुई जिनका केन्द्र-बिन्दु स्त्रियाँ थीं। इसका प्रमुख कारण स्त्रियों की प्रस्थिति में होने वाला अमूलचूल परिवर्तन तथा सभी क्षेत्रों के विकास में उनका बढ़ता हुआ महत्व है। अब यह धारणा सर्वमान्य हो गई है कि स्त्रियों को अनदेखा कर किसी भी समाज का विकास सम्भव नहीं है। इसीलिए भारत जैसे परम्परा से आधुनिकता की ओर अग्रसर समाजों में स्त्रियों की परिवार से बाहर भूमिका एवं उनके महत्वपूर्ण योगदान को स्वीकार कर लिया गया है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 1970-80 के दशक को स्त्रियों के रूप में मनाया जाने से इन पर केन्द्रित अध्ययनों से तेजी आई है। विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में ‘स्त्री अध्ययन’ (Women Studies) विषय पर अलग से विभागों की स्थापना इसी का परिणाम मानी जा सकती है। ‘लिंग’ एवं ‘जेण्डर’ (जिसे कई बार सामाजिक लिंग भी कहा जाता है) शब्दों का प्रयोग सामान्यतः पर्यायवाची रूप में किया जाता है। यदि अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश में जेण्डर का अर्थ देखा जाए तो इसे लिंग ही कहा गया है। आज न केवल अनेक भाषाविद् अपितु समाज वैज्ञानिक इस तथ्य से सहमत हैं कि दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। ‘लिंग’ शब्द का प्रयोग सम्पूर्ण विश्व में एक ही रूप में किया जाता है। सामान्य जनता भी इन दोनों में किसी प्रकार का भेद नहीं करती है। अतः तुलना के एक सूचकांक के रूप में जेण्डर की उपयोगिता एवं सीमाओं की व्याख्या करने से पहले लिंग एवं जेण्डर में अन्तर समझ लेना आवश्यक है।
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