निदेशात्मक परामर्श क्या है?
निर्देशात्मक परामर्श– निर्देशात्मक परामर्श को परामर्शदाता केन्द्रित परामर्श एवं नियोजक परामर्श भी कहते हैं। इसके मुख्य प्रवर्तक मिनिसोता विश्वविद्यालय के ई. विलियमसन है। इस परामर्श में प्रार्थी का स्थान गौण परन्तु परामर्शदाता का स्थान महत्वपूर्ण होता है।
निर्देशीय परामर्श के अन्तर्गत परामर्श का मुख्य उत्तरदायित्व विशिष्ट रूप से प्रशिक्षण प्राप्त परामर्शदाता होता है। वह परामर्श देने से पूर्व प्रार्थी के साथ मधुर एवं मैत्रीयपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करता है। इस प्रकार के परामर्श में परामर्शदाता की भूमिका सक्रिय होती है और वह प्रायः स्वयं के दृष्टिकोण और भावनाओं को स्वतन्त्र रूप से प्रकट करता है। इसमें परामर्शदाता प्रायः प्रमापीकृत प्रश्नों की एक श्रृंखला पूछता है, जिनके उत्तर संक्षिप्त हो सकते हैं। परामर्शदाता प्रार्थी को अपनी अभिव्यक्ति और भावनाओं को व्यक्त करने की आज्ञा नहीं देता है। सेवार्थी उदासीन रूप में अपनी भूमिका अदा करता है। परामर्शदाता एक विशेषज्ञ के तौर पर नेतृत्व करता है मूल्यांकन करके स्वयं ही सुझाव देता है। परामर्श की सम्पूर्ण प्रक्रिया के अन्तर्गत वह धुरी के समान क्रियाशील रहता है। परामर्शदाता स्वयं ही प्रार्थी की समस्या विचार-विमर्श के द्वारा ज्ञात करता है और पूर्णरूपेण स्वयं ही दिशा-निर्देशन प्रदान करता है।
प्राथमिक मूलभूत अवधारणाएँ-
(1) परामर्श प्रक्रिया एक बौद्धिक प्रक्रिया है- परामर्श प्राथमिक रूप से बौद्धिक प्रक्रिया है यह व्यक्ति के व्यक्तित्व के संवेगात्मक पक्ष के बजाय बौद्धिक पक्ष पर अधिक बल देता है।
(2) सुझाव देने में सक्षमता- परामर्शदाता एक उत्तम प्रशिक्षण प्राप्त एवं अनुभवी व्यक्ति होता है। उसके पास प्रार्थी से सम्बन्धित सभी प्रकार की सूचनाएँ होती हैं। वह समस्या समाधान के विषय में सुझाव देने में अधिक सक्षम होता है।
(3) परामर्श के उद्देश्य समस्या समाधान- परामर्श के उद्देश्य समस्या समाधान स्थिति में माध्यम से प्राप्त किए जाते हैं।
(4) सेवार्थी की समस्या समाधान में अक्षमता- परामर्श का यह मानना है कि सेवार्थी में सदा ही समस्या समाधान करने की योग्यता नहीं होती है। इस विधि में प्रत्यक्ष रूप सलाह दी जाती है। इस प्रकार के परामर्श में व्यक्ति की अपेक्षा उसकी समस्या पर अधिक ध्यान केन्द्रित रहता है। प्रार्थी का कार्य केवल परामर्शदाता के कार्य में सहयोग देना मात्र है। प्रार्थी को परामर्शदाता के अधीन ही कार्य करना होता है न कि परामर्शदाता के साथ मिलकर। सेवार्थी स्वयं की समस्या में अक्षम होता है।
विलियमसन ने भी परामर्श की मूलभूत अवधारणों को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-
(1) परामर्श व्यक्ति की विशेषता को स्वीकार करता है।
(2) परामर्श में परस्पर आपसी सम्बन्ध निष्पक्ष होते हैं।
(3) परामर्श प्रार्थी की मर्यादा का सम्मान करता है।
(4) परामर्श प्रक्रिया का उपचारात्मक होना।
(5) परामर्श को व्यक्ति पर थोपना।
(6) परामर्श तभी प्रदान किया जाना चाहिए जब सेवार्थी समस्याग्रस्त हो, स्वयं अपनी समस्या को समाधान न कर पाए।
निर्देशीय परामर्श की विशेषताएं-
इस विधि में निम्नलिखित विशेषताओं और अवधारणाओं की भूमिका रहती है-
1. परामर्शदाता अपनी योग्यता, बौद्धिक आत्म-विश्वास तथा अनुभव के आधार पर प्रार्थी (उपबोध्य) की सहायता करता है।
2. परामर्शदाता पहले समस्या का निदान करता है, फिर उसका उपचार (समाधान) करने में सहायता करता है।
3. प्रार्थी के सामने जब कोई ऐसी समस्या आती है, जिसका समाधान करने में वह समर्थ नहीं है, तभी वह उपबोधक के पास आता है।
4. इस विधि में समस्या पर केन्द्रित रहकर उसके समस्त पहलुओं पर विचार किया जाता है।
5. परामर्श एक जटिल व बौद्धिक प्रक्रिया है।
6. प्रार्थी आवश्यकतानुसार साक्षात्कार के पूर्व ही उपबोधक के पास अपनी समस्या से सम्बन्धित सूचनाएं प्रेषित कर सकता है।
7. इसमें परामर्शदाता तथा प्रार्थी दोनों को वस्तुनिष्ठता का पालन करना आवश्यक होता हैं, क्योंकि यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
निदेशात्मक परामर्श के गुण –
इसके प्रमुख गुणों का वर्णन निम्नलिखित है-
1. यह विधि व्यक्ति के बौद्धिक पक्ष पर अधिक बल देती है।
2. सहायता के लिये आने पर उपबोध्य को आवश्यक सहायता प्रदान की जाती है।
3. इसमें कम समय में अनेक क्रियायें सम्पन्न हो सकती हैं।
4. इस परामर्श में उपबोध्य की अपेक्षा उसकी समस्या पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
5. इस प्रक्रिया में उपलबोध्य की सहायता की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
6. इसमें परामर्शदाता का प्रभुत्व होता है।
7. उपबोध्य में अपनी समस्या के समाधान की क्षमता का विकास नहीं होता है, वह सदैव इसके लिये दूसरों पर निर्भर रहता है।
8. इसमें उपबोध्य की मौलिकता का विनाश हो जाता है।
9. यह परामर्श अमनोवैज्ञानिक और प्रभावहीन होता है।
निर्देशीय परामर्श की सीमाए अथवा निर्देशीय परामर्श के दोष
सामान्यतः निर्देशीय परामर्श प्रार्थी की सहायता करने और उसे लाभान्वित करने के उद्देश्य से ही दिया जाता है, किन्तु कार्ल रोजर्स इस प्रकार के परामर्श से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार इस प्रकार के परामर्श के कारण उसमें स्वयं पर निर्भर न रहकर परामर्शदाता पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति जागृह हो जाती है, जो उसके विकास के लिए हानिकारक है। होना तो यह चाहिए कि प्रार्थी उपबोधक से केवल जानकारी और परामर्श तो ले, किन्तु अन्तिम निर्णय स्वयं करें। इस प्रकार निर्देशीय परामर्श में निम्नलिखित दोष परिलक्षित होते हैं-
1. इस परामर्श में परामर्शदाता का निष्पक्ष, योग्य, प्रशिक्षित एवं वस्तुनिष्ठ होना बहुत आवश्यक है, अन्यथा यह प्रार्थी का अहित कर सकता है।
2. इसके द्वारा प्रार्थी में आत्मनिर्भरता का विकास नहीं हो पाता है तथा वह दूसरे पर निर्भर रहने की आदत डाल सकता है।
3. परामर्शदाता, कभी-कभी आवश्यकता से अधिक आत्म विश्वास प्रदर्शित कर सकता है, जो उपबोधन के उद्देश्य के विरूद्ध है।
4. इसके द्वारा एक समस्या तो सुलझ जाती है, किन्तु अनेक नयी समस्याएं जन्म ले सकती हैं।
निर्देशीय परामर्श के सोपान (Step In Directive Counselling)
(1) विश्लेषण (Analysis)- विश्लेषण के अन्तर्गत उपबोध्य के बारे में सही सूचनाएँ विभिन्न माध्यम से इकट्ठे किए जाते हैं। जिन्हें एक सत्य और विश्वसनीय आधार के रूप में परामर्श प्रक्रिया में प्रयुक्त किया जा सकता है। सभी तथ्यों एवं आँकड़ों को एकत्र करने के लिए कैसे हिस्ट्री विधि का प्रयोग किया जाता है।
(2) संश्लेषण (Synthesis)- संश्लेषण विधि को विलियमसन ने इस प्रकार परिभाषित किया है, कि-विश्लेषण से प्राप्त आँकड़ों का इस प्रकार से संक्षिप्तीकरण और संगठन किया जाता है जिसमें विद्यार्थी के गुणों, न्यूनताओं, समायोजन और कुसमायोजन की स्थितियों का पता लगाया जा सके।
(3) निदान (Diagnosis)- निदान के अन्तर्गत सेवार्थी द्वारा अभिव्यक्त समस्या के रूप में दिए गए आँकड़ों की व्याख्या करना शामिल है जो कि विद्यार्थियों की विशेषताओं दायित्वों, दुर्बलताओं और शक्तियों को दर्शाता है।
(4) पूर्व अनुमान (Prognosis)- इसके अन्तर्गत छात्रों की समस्या के सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जाती है। यह सोपान निदान का अंग भी हो सकता है तथा अलग से सोपान भी हो सकता है। पूर्व अनुमान उपलब्ध विशिष्ट सूचनाओं पर निर्भर होता है। यह प्रार्थी एवं परामर्शदाता के मध्य सहयोग के रूप में चलने वाली प्रक्रिया है।
(5) अनुवर्तन (Counselling or Treatment)- इस सोपान के अन्तर्गत परामर्शदाता प्रार्थी के समायोजन हेतु तथा पुनः सामंजस्य के विषय में वांछनीय कदम उठाता है। इसमें कई प्रश्नों के उत्तर दिए जाते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर सेवार्थी अपने लिए स्वयं ही देता है,जैसे- मैं यह परिवर्तन किस प्रकार कर सकता हूँ। इसका दूसरा विकल्प क्या हो सकता है?
(6) अनुवर्तन (Follow-up)- इस सोपान के अन्तर्गत परामर्श प्रक्रिया की प्रभावशीलता का मूल्यांकन किया जाता है।
अनिदेशात्मक परामर्श- महत्व, विशेषताएं, अवधारणा व दोष/सीमाए
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