संक्षेपण की परिभाषा एंव इसके तत्व
डॉ कैलाशचन्द्र भाटिया के अनुसार- “किसी स्वतंत्र अथवा सम्बद्ध विषय की सविस्तार व्यवस्था, लम्बे वक्तव्य अथवा पत्र-व्यवहार के तथ्यों का ऐसा संयोजन ‘संक्षेपण’ हैं जिसमें से अनावश्यक बातों, अप्रासंगिक तथा असम्बद्ध तथ्यों को छोड़ दिया जाये।”
डॉ के0 डी0 भींगाकर कहते हैं कि संक्षेपण याने किसी बड़े चित्र का छोटा छवि चित्र मात्र है। संक्षेपण में शब्द कम कर दिये जाते हैं, लेकिन भाव और विचार वे ही रखे जाते हैं। इस तरह किसी बड़े अनुच्छेद में अभिव्यक्ति विचारों या भावों को थोड़े में प्रस्तुत करना ही संक्षेपण है।
डॉ मधुवाला नयाल के विचार से किसी विस्तृत अवतरण, कथन, पत्र, भाषण, समाचार आदि को सुनियोजित तथा संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करना भाव-संक्षेपण अथवा संक्षेपीकरण कहलाता है।
डॉ राघेलाल नवचक्र के अनुसार अधिक शब्दों में व्यक्त भाव या विचार को कम शब्दों में प्रकट करना एक कला है। इसे संक्षेपण कला कहते हैं। सामान्यतया किसी मूल गद्यांश को एक तिहाई शब्दों से संक्षिप्त करना ही संक्षेपण कहलाता है।
संक्षेपण प्रत्येक युग में प्रासंगिक रहा है, उसका महत्व निर्विवाद रहा है किन्तु आज विश्वपूँजी की पराधीनता में जकड़ और आत्मसंकुचन का शिकार हो चुके व्यक्ति के लिए इसका महत्व सम्भवतः पहले की तुलना में ज्यादा बढ़ा है। हर व्यक्ति स्वार्थों के खानों-टुकड़ों में बंटा है।
सामाजिक सामूहिकता और सरोकार उसके लिए बेमानी हो गये हैं। वह आज के व्यस्त्तम समय में रेल की तरह बेतहाशा भाग रहा है। किसी चीज की मुकम्मल समझ के लिए उसके पास अवकाश नहीं रह गया है। अत: ऐसे कठिन समय में हमें संक्षेपण के मुख्य तत्वों और उसकी जड़ों पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि वे तत्व संक्षेपण में हमारे लिए सहायक सिद्ध होंगे। बहरहाल, कुछ मुख्य तत्वों को इस प्रकार देखा जा सकता है। यदि इन पर अमल किया जाये तो संक्षेपण करने में हमें सुविधा होगी।
1. कई शब्दों के बदले महज एक शब्द का प्रयोग- भाषा में अपनी बात को संक्षेप में व्यक्त करने के लिए शब्द-समूह के स्थान पर प्रयुक्त किये जाने वाले शब्द अनेक शब्द लिये शब्द कहलाते हैं। इन्हें ‘शब्द समूह के लिए एक शब्द’, ‘वाक्यांश के लिए एक शब्द’ अथवा ‘वाक्यांश’ प्रकाशक शब्द भी कहा जाता है। अनेक शब्दों के लिए एक शब्द के कुछ उदाहरण देखिए- “नारी नर की शक्ति है। वह माता, बहन, पत्नी और पुत्री आदि रूपों में के पुरुष में कर्तव्य की भावना जगाती है। वह ममतामयी है। अतः पुष्प के समान कोमल है, किन्तु चोट खाकर वह अत्याचार के लिए सन्नद्ध होती है, तो वज्र से भी कठोर हो जाती है। तब वह न माता रहती है, न प्रिया, उसका एक ही रूप होता है और वह है दुर्गा का। वास्तव में नारी सृष्टि का ही रूप है, जिसमें सभी शक्तियाँ समाहित हैं।”
उक्त बड़े वाक्य में प्रयुक्त अनेक शब्दों के स्थान पर कम शब्दों के सहयोग से इसे इस प्रकार बनाया जा सकता है- “सभी शक्तियों में सम्पन्न, चोट खाकर दुर्गा के समान प्रचण्ड बनने वाली नारी माता, बहन, पत्नी और पुत्री बनकर पुरुष में कर्त्तव्य भावना जगाती है।
2. वाक्यों के लिए शब्द-समूहों या पदों का प्रयोग- जिस प्रकार, शब्द-समूह जगह एक शब्द का प्रयोग करके भावार्थ निकाल लिया जाता है, ठीक उसी तरह कुछ शब्द अनेक वाक्यों के स्थानापन होकर पूर्ण अर्थ देने में सक्षम होते हैं, यथा-“स्वास्थ्य का अर्थ मोटा होना नहीं होता। अनेक मोटे व्यक्ति अत्यन्त निर्बल और अक्ल के मोटे होते हैं। स्वास्थ्य से मनुष्य की बुद्धि ठीक रहती है, उसकी स्मरण शक्ति उसका साथ देती है। अत: स्वस्थ रहना और उसके लिए व्यायाम करना आवश्यक है। साधारणत: शरीर की स्वस्थता और मन की प्रसन्नता व्यायाम पर निर्भर है।”
इस बड़े वाक्य को कुछ नपे-तुले शब्दों में मूल अर्थ की रक्षा करते हुए इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है, स्वास्थ्य में बुद्धि तथा स्मरण शक्ति तो ठीक रहती ही है, प्रसन्नता के लिए भी वह अनिवार्य है।”
3. अतिव्याप्ति, फिजूल और बेमतलब तथ्यों को हिलोरपछोर कर निकलना- वैसे तो हर छोटी-बड़ी घटना रचनाकार के लिए किसी-न-किसी पड़ाव पर महत्वपूर्ण होती है, रचनाकार इन सबको अपने लेखन में सम्मिलित करता है, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि यदि वह इन्हें अपने लेखन में उल्लेख न करे तो भी काम चल सकता था, बल्कि छोटी-छोटी ये घटनाएँ मूल कथ्य पर आँच पैदा करती हैं। अत: संक्षेपण करते समय इन बेमतलब के प्रसंगों से बचना चाहिए। संक्षेपण का यह भी मुख्य तत्व है, यथा- “किसी से कुछ पाने की इच्छा रखना ही मनुष्य के दुख का कारण है। जब तक पाने की इच्छा मनुष्य में विद्यमान है, तब तक उसे सच्चे सुख की प्राप्ति होना असंभव है। वस्तुतः सच्चा सुख किसी से कुछ पाने में नहीं वरन् देने में हैं। जिस प्रकार अंगूर की सार्थकता अपने तमाम रस को निचोड़कर दूसरों के लिए देने में है, उसी प्रकार मनुष्य जीवन की सार्थकता अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं, योग्यताओं और समृद्धि को दूसरो के लिए अर्पित कर देने में है। इस वाक्य में जिन तथ्यों, वर्णनों के बिना भी काम चलाया जा सकता है, उन्हें कहते हुए इस प्रकार लिखा जा सकता है- “सच्चा सुख अंगूर की भाँति अपनी क्षमताओं के रस को दे देने में ही है।”
संस्कृत का यह श्लोक “अर्द्ध मात्रा लाघवेन पुत्र जन्म मन्यते वैयाकरणा:” अर्थात् “यदि व्याकरण में आधी मात्रा कम हो जाये तो वैयाकरण को इतनी प्रसन्नता होती है जितनी पुत्र जन्म पर सिद्ध करता है कि भारतीय मनीषा की समझदारी और सोच प्रारम्भ से ही संक्षेपण के प्रति सजग-सतर्क रही है। दरअसल, प्राचीनकाल में मुद्रण कला का विकास न होने के कारण वाचिक परम्परा पर बल दिया जाता था एवं तथ्यों को कंठस्थ भी करना पड़ता था। संभवतः इसीलिए ज्ञान के साधकों ने सूत्र शैली का ईजाद किया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि कम-से-कम शब्दों और अक्षरों से अधिक-से-अधिक भावाभिव्यक्ति हो।
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