प्रगतिवादी काव्य की विशेषताएं या प्रवृत्तियाँ Pragativad Ki Visheshta
प्रगतिवादी काव्य की विशेषताएं या प्रवृत्तियाँ- प्रगतिवादी छायावाद के कोमल स्वप्नों का यथार्थ की कटुता से छिन्न-भिन्न करके काव्य जगत में अवतारित हुआ था। इसलिए वह जीवन के अधिक निकट है। प्रगतिवादियों ने आदर्श के तरह वायुमण्डल यथार्थ धरती पर उतरकर जनजीवन की जीती जागती प्रतिभा को काव्य के माध्यम से प्रस्तुत किया है। प्रस्तुतीकरण भी इस प्रक्रिया में जनजीवन की भीतरों और बाहरी दोनों ही तस्वीरें उभर कर सामने आयी है। समाज की उन्नति और नव निर्माण के लिए सबसे पहले रूढ़ियों का प्रहार किया गया। युगो से चली आ रही धार्मिक और नैतिक मान्यताओं को छोडकर शोषित और पीड़ितों का करूण गान प्रस्तुत होने लगा। इन कवियों ने मजदूरो और किसानों के प्रति सहानुभूतिपरक दृष्टिकोण अपनाया साथ ही मध्यवर्गीय समाज की विलखती जिन्दगी भी इनकी दाष्टि से अलग नही रह सकी। अतः स्पष्ट है कि प्रगतिवादी कवि जीवन की ओर मुड़े उन्होंने छायावादी हवाई किले बनाने छोड दिए। अतः प्रगतिवादी कवियों की यथार्थवादी दृष्टि को निम्नलिखित विशेषताओं के देखा और परखा जा सकता है।
1. वर्ग संघर्ष की भावना-
वर्ग भेद की भावना बहुत पुरानी है। हमारा समाज हमेशा से दो वर्गों में बँटा रहा है किन्तु वर्ग सम्बन्ध युगीन परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते है। सामान्तवाद के पश्चात पूँजीवादी और तत्पश्चात साम्यवाद का प्रदुर्भाव हुआ। आज हमारा समाज पूंजीवादी के दौर से गुजर रहा है। जिसमें मालिक और मजदूर के बीच संघर्ष चल रहा है। इस वर्ग संघर्ष के बीच एक वर्ग है। जो सार्वनिक पिंस रहा है उसकी स्थिति त्रिंशुक से कुछ कम नहीं है। मध्यवर्गीय व्यक्ति के स्वप्न उसे उच्च वर्ग की ओर ले जाते है किन्तु उसकी वर्तमान परिस्थिति का रूझन निम्न वर्ग की ओर खीचता है। इसलिए इस वर्ग की परिस्थितियों उसे क्रान्ति भी नही करने देती है। फलस्वरूप आघातो के थपेडे उसे बनाते बिगाडते रहते है। प्रगतिवादी जागृतिचेता कवियों ने पूँजीपतियों के वर्ग स्वार्थों का विरोध किया और पूँजीपति वर्ग की सत्ता को सर्वथा समाप्त करके एक ऐसे समाज का निर्माण किया जो निम्नलिखित पंक्तियों में चित्रित हुआ है-
रूढिरीतियाँ जहाँ न हो आधारित
श्रेणी वर्ग में मानव नही विभाजित
धन बल से जहाँ न हो जल-श्रय शोषण
पूरित भव जीवन के लिखित प्रयोजन
आ रहा मानव प्रगति का उगता खूनी सवेरा
दे रहा सन्देश वह सन्धा सितारे का सवेरा
विश्वास- एक दिन काली घटाओं ने घिरा आकाश
खुलकर ही रहेगा। (-महेन्द्र भटनागर)
2. प्रकृति का स्वरूप –
प्रगतिवादी काव्य मे प्रकृति का वह कोमल स्वरूप नहीं रहा जो छायावाद में था। राजनैतिक और सामाजिक संघर्षों के प्रभाव के कारण वातारण कुछ कठोर हो गया। फलस्वरूप प्रकृति की कोमल छवियों का चित्रांकन नहीं हो सका। यो कुछ प्रकृति कविताएँ भी कतिपय कवियों ने लिखी। किन्तु उनमें प्रकृति का वह प्रांजल रूप नही रहा जो छायावादी काव्य में था। नागार्जुन केदारनाथ अग्रवाल शिवमंगल सिंह आदि कुछ ऐसे प्रगतिवादी कवि हुए जिन्होने प्रकृति की कवितायें लिखी किन्तु उनमें रसमयता नही जिसकी अपेक्षा एक रसिक कवि से की जाती है।
3. प्रेम-
प्रगतिवादी कविता का प्रेम व्यक्तिगत होते हुए भी जीवन और जगत से सम्ब है कहने का तात्पर्य यह है प्रेम प्रतिवादी कवतिा का मुख्य विषय नही है। प्रणयानुभूति वेदना और निराशा के चित्र भी अपवाद स्वरूप ही मिलते है। प्रगतिवाद का प्रेमी हाथ मे पतवार लेकर ही अगम सागर पर कर सकता है। प्रेयसी की प्रेममयी वाणी प्रेम को सासारिक जीवन की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती है ।
4. नारी-
हिन्दी साहित्य में नारी की बडी विचित्र स्थितियां रही है। भोग्या आराध्या और सहकर्मिणी आदि अनेक रूप नारी के रहे है। छायावादी कवियों ने उसकी सामाजिक स्थिति पर बल दिया और उसे शोषितो के वर्ग में बिठा दिया। उनका प्रयास हमेशा यही रहा कि नारी का स्वतन्त्र व्यक्तित्व हो वह किसी के द्वारा शोषित न की जाये। कुछ साम्यवादी कवि इस प्रयत्न में लगे रहे कि नारी की स्थिति पुरूष के बराबर रहे। यहाँ तक कि छायावादी कवियों के विचार भी बदलने लगे। फलतः ‘पन्त ने अपनी प्रगतिवादी रचना में स्पष्ट रूप से घोषित किया-
‘आज मनुज जग से मिट जाये कुत्सिव लिंग-विभाजित
नारी नर की निखिल क्षुद्रता आधिम मानों पर स्थिति
सामूहिक जन-भाव स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित
नर-नारी की हृदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत” (-पन्त)
सामन्तवादी ने नारी को कामकारी की बन्दिनी बना दिये था। प्रगतिवादी कवियों ने उसके इन बन्धनों को तोड दिया उनका पूर्ण प्रयास उसको मुक्त देखना था प्रगतिवादी में स्वस्थ यौन सम्बन्धों का स्वागत किया गया है : किन्तू पूँजीवादी समाज मे यौन वर्णनाओं के हाते हुए भी नारी का प्रत्येक अंग वासना के चिन्हों से चित्रित है। प्रगतिवादी कवियों ने श्रमिक नारी के क्षण अंकुर यौवन का ही चित्रण किया है। अंचल जैसे कवियों ने छायात्मक नारी की परिकल्पना के सूक्ष्म सौनदर्य के स्वरूप और समस्त नैतिकता और मर्यादाओं को भंग करते हुए वासना के तीव्र आवेग का वर्णन किया है। प्रगतिवादी कवियों की सामाजिक विवशताओं और आर्थिक प्रभावों की प्रेम वेदना की अपेक्षा अधिक तीव्रता के साथ अनुभव किया है।
पर ठोकर पर ठोकर हमने जान
तोल तराजू के पलड़े में
मन के संघर्षों से बाहर के सवर्ष
अधिक बेझिल है
और हृदय की कलियाँ खिलती देखी
रूपयों की पूनों में
और प्यार के चांद बुझ गये
जीवन की सड़कों पर आकर (-शिवमंगल सिंह सुमन)
5. राष्ट्रीय भावना-
प्रगतिवादी काव्य में राष्ट्रीय भावना का काई एक रूप नहीं मिलता है। कही शान्ति का प्रसार है तो कही समाज-सुधार की भावना व्यक्त की गई है। राष्ट्रीयता प्रगतिवादी काव्य की बहुत बड़ी उपलब्धि है। समस्त काव्य देश वासियों की आशा- आकाँक्षा सुख-दुःख तथा जीवन की विविध स्थितियों से भरा पड़ा है।
6. धर्म और ईश्वर –
प्रगतिवादी काव्य में धर्म और ईश्वर का खुलकर विरोध किया गया है। मार्क्सवादी ईश्वर और धर्म दोनो में विश्वास नही करते। प्रगतिवादियों ने भी उन्ही के तरीके को अपनाया है। इसकी मान्यता है कि धर्म और ईश्वर की दुहाई देकर भोली जनता को भ्रमित करना है। यह विरोध का मान्यताओं के प्रति है जो रूढ़ियाँ बन गई है और समाज जाने अनजाने उन्हे अपनाये चले जा रहा है। केदार की चित्रकूट के बोड़म यात्री राम विलास शर्मा की मूर्तियाँ और पन्त की ग्राम देवता आदि कविताओं में सही विरोध अभिव्यक्त किया गया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रगतिवादी कवि धर्म और ईश्वर में विश्वास नही रखते। वे मनुष्य को ही ईश्वर का स्वरूप मानते है।
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