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प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ

प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ
प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ

प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ

प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ निम्नलिखित है-

1.घोर अहंनिष्ठ व्यक्तिवाद-

प्रयोगवादी कविता के लेखक की अंतरात्मा में अर्हनिष्ठ इस रूप से बद्धमूल रूप है कि वह सामाजिक जीवन के साथ किसी प्रकार के सामजस्य का गठबन्धन नही कर सकता। यह इस प्रकार से व्यक्तिवाद की परम विकृति में परिणति है। वैयक्तिकता का अभिव्यंजन आधुनिक हिन्दी-साहित्य की एक प्रमुख विशेषता भारतेन्दु द्विवेदी एवं छायावादी में वैयक्तिकता की प्रधानता रही है किन्तु वह वैयक्तिकता समष्टि से सर्वथा विच्छिन नही थी उसमें अदात्त लोक व्यापक भावना थी। पूर्ववर्ती साहित्य में वैयक्तिकता की अभिव्यंजना में सहदय संवेद्यता एवं प्रेषणीयता की पर्याप्त क्षमा थी। किन्तु प्रयोगवाद की वैयक्तिकता के समीप में जर्जरित थाथा घोघा ही रह गया। जहां कवि न होउ नहि चतुर कहाऊ जैसी अदात्त अभिव्यंजना हुई वहाँ प्रयोगवादी काल में वैयक्तिकता आत्मविज्ञापन एवं प्रख्यापन ही बन कर रह गई। उदाहरणार्थ-

साधारण नगर में
मेरा जन्म हुआ

2. अति नग्न यथार्थवाद-

इस कविता में दूषित मनोवृत्तियों का चित्रण भी अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया है। जिस वस्तु को श्रेष्ठ साहित्यकार अरूचिकर अश्लील ग्राम्य और अस्वस्थ समझकर उसे साहित्य जगत से बहिष्कृत करता है। प्रयोगवादी उसी के चित्रण में गौरव अनुभव करता है। उसी कविता का लक्ष्य दमित वासनाओं एवं कुंठाओं का चित्रण-मात्र रह गया है। काम-वासना जीवन का अंग अवश्य है किन्तु जब वह अंगन रहकर अंगी और साधन न रहकर साध्य बन जाती है तब उसकी विकृति एक घोर भयावाह विकृति के रूप में होती है। प्रयोगवादी साहित्य की विवृत्ति उसी उक्त रूप में हई है। उदाहरण के लिए देखिये।

मरे मन की अधियारी कोठरी में
अतृप्त आकांक्षाओं की वेश्या बुरी तरह खाँस रही है।
पास घर आते तो
दिन भर का थका जिया मंचल जाये। (-अनन्तकुमार पाषाण)

शकुन्तला माथुर अपनी सुहाग बेला नामक कविता में लिखती है-

चली आई बेला सुहागिन पायल पहने
बाण्य बिद्ध हरिणी सी
बाँहो में सिमट जाने की
उलझने की लिपट जाने की
मोती की लड़ी समान।

उपर्युक्त पंक्तियों में भारतीय नारी का अनावृत चारित्रिक औदात्य और दाक्षिण्य दर्शनीय है। कवि कलगुरू कालिदास आदि ने जहाँ काम-क्रियाओं का कलात्मक अभिव्यंजन किया है। वहाँ कवियित्री कामवासना के अभिधात्मक कथन में गौरव का अनुभव करती है। भारतीय काव्यशास्त्रियों ने कामचेष्टाओं के चित्रण- प्रसंगों में गूढ़ इंगितों द्वारा कलात्क अभिव्यक्ति का सत्परामर्श दिया है।

3.निराशावाद-

नई कविता का कवि अतीत की प्रेरणा और भविष्य की उललासमीय उज्जवल आकांक्षा दोनो से विहीन है उसका दृष्टि केवल वर्तमान पर ही टिकी है। यह निराशा के कुहासे से सर्वत आवृत्त है। उसका दृष्टिकोण दृश्यमान जगत के प्रति क्षणवादी तथा निराशावादी है। उसके लिए कल निरर्थक है उसे उसके दोनो रूपों पर भरोसा और विश्वास नही है। डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त- के शब्दों में –“उनकी (नई कविता के कवियों की) स्थिति उस व्यक्ति की भाँति है जिसे वह विश्वास हो कि अगले क्षण प्रलय होने वाली है अतः वह वर्तमान क्षण में ही सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते है।

आओ हम उस अतीत को भूले,
और आज की अपनी रग-रग के अन्तर को छू ले
छू ले इसी क्षण
क्योंकि कल के वे नही रहे,
क्योंकि कल हम भी नहीं रहेगे।

4. अति बौद्धिकता-

आज की नई कविता में अनुभूति एवं रागात्मकता की कमी है इसक विपरीतइसमें बौद्धिक व्यायाम की उछल कूद आवश्यकता से भी अधिक है। नया कवि पाठक के हदय को तरंगित तथा उद्देलित न कर उसकी बुद्धि को अपनी पहली बुझैवल के चक्रव्यूह में आबद्ध करके उसे परेशान करना चाहता है। वह कुरेद कुरेद कर अपने मस्तिष्क से कविता को बाहर निकाल कर पाठक के मष्तिष्क कुरेदने पर विवश करना चाहता है। संक्षेप में हम कह सकते है कि आज की नई कविता में रागात्मकता के स्थान पर अस्पष्ट विचारात्मकता है और इसलिए उसमें साधारणीकरण की मात्रा का सर्वथा अभाव है। प्रयोगवाद के प्रशंसकों का कहना है कि आज के बुद्धिवादी वैज्ञानिक युग में जीवन-सत्य की सही अभिव्यक्ति बौद्धिकता से ही सम्भव है। इसके अतिरिक्त उन्होंने बुद्धि रस की एक नवीन उद्भावना भी कर ली है जो कि नितान्त अशास्त्रीय है। अस्तु धर्मवीर भारतीय इस कविता की बौद्धिकता का समर्थन करते हुए लिखते है-“प्रयोगवादी कविता में भावना है, किन्तु हर भावा के सामने एक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। इसी प्रश्नचिन्ह को आप बौद्धिकता कह सकते है। सांस्कृतिक ढाँचा चरमरा उठा है और यह प्रश्नचिन्ह उसी की ध्वनिमात्र है।” उदाहरण के लिये कुछ पंक्तियां देखिये।

5. वैज्ञानिक युग बोध और नये मूल्यों का चित्रण-

प्रस्तुत काव्यधारा के लेखक ने आधुनिक युग-बोध और वैज्ञानिक बोध के नाम पर मानव जीवन के नवीन मूल्यों का अंकन न करके मूल्यों के विघटन से उत्पन्न कुत्सित विकृत्तियों का चित्रण किया है। नई कविता के लेखक ने संक्रान्तिजन्य त्रास, यातना, घुटन, द्वन्द्व, निराशा, अनास्था, जीवन की क्षणिकता सन्देह तथा अनेकधा-विभक्त-व्यक्तित्व का निरूपण किया है। इसे आधुनिक बोध या वैज्ञानिक बोध कहना नितान्त भ्रामक है। निःसन्देह आधुनिक विज्ञान ने मनुष्य की आस्था, विश्वास, करूणा और प्रेम जैसी चिंतन भावनाओं को जोरदार आघात पहुँचाया है। किन्तु ये उसके केवल निषेधात्मक मूल्य हैं। इसके अतिरिक्त परस्पर सहयोग, विश्व मानवतावाद, विश्व-शान्ति, अन्तर्राष्ट्रीयता स्थान मूल्य और समय के व्यवधान को समाप्ति तथा ज्ञान का अपरिमित विस्तार आदि उसके विधात्मक हैं। नई कविता विज्ञान के केवल निषेधात्मक मूल्यों के चित्रण तक ही सीमित है।

6. रीतिकाव्य की आवृत्ति-

बड़े आश्चर्य का विषय है कि अत्याधुनिकता का दंभ भरने वाली नई कविता सदियों पुराने रीतिकाव्य की पद्धति का अनुसरण कर रही है। जिस प्रकार रीतिबद्ध शृंगारी कवि ने जीवन के व्यापक मूल्यों में से केवल रसिकता और कामुकता का एक विशेष पद्धति पर चित्रण किया वैसे ही नया कवि जुगप्सित कुंठाओं एवं दमित वासनाओं पर वैज्ञानिक बोध का झिल- है मिल आवरण डाल कर उनकी अर्धशून्य अभिव्यक्ति में संलग्न है। रीति कवि के काव्य में जीवन के मांसल भोग की गहन अनुभूतियाँ थीं, जबकि नई कविता में जीवन के प्रति वितृष्णा को गाया जा रहा में है। रीतिकाव्य की चमत्कारवादिता नई कविता में भी देखी जा सकती है। रीतिकाव्य का कलापक्ष परम मनोरम है किन्तु खेद है कि नई कविता का यह पक्ष भी प्रायः दुर्बल, अव्यवस्थित और कला-शून्य है। रीतिकाव्य में काम-वृत्ति को सर्वप्रमुखता प्रदान करते हुए उसकी बिना किसी गोपन के उत्कट भोगपरक व अभिव्यक्ति की गई है। किन्तु नये कवि की भोग-लिप्सा एक नपुंसक की भोग-रुग्णता जैसी है। इसमें यत्र-तत्र दमन, ग्रंथियाँ और बिम्बों की भूल-भुलइया है।

7. छन्द-

कविता के अन्य क्षेत्रों में समान प्रयोगवादी कलाकार प्रायः छन्द आदि के बन्धन को स्वीकार न करके मुक्तक परम्परा में विश्वास रखता है और उसने इसी का प्रयोग किया है। कहीं- कहीं इन्होंने लोकगीतों के आधार पर अपने गीतों की रचना की है। कहीं-कहीं पर इन्होंने इस क्षेत्र में अपने नये प्रयोग किये हैं। कुछ ऐसी भी प्रयोगवादी कविताएँ हैं जिनमें न लय है और न गति, उनमें गद्य की-सी नीरसता और शुष्कता है। हिन्दी के एक प्रसिद्ध आलोचक का प्रयोगवादियों के छन्दों के सम्बन्ध में कथन है, “यही कारण है कि प्रयोगवादी कवियों के मुक्तक छन्द अपने में हलचल सी, एक बवण्डर सा रखते हुए प्रभावशून्य प्रतीत होते हैं। उनकी करुणा और उच्छ्वास भी पाठक के हृदय को द्रवित नहीं कर पाते। हाँ, तो होता क्या है एक विस्मयकारिणी सृष्टथ्।”

प्रयोगवादी कवि ने शैली के भी विविध प्रयोग किये हैं। वैचित्र्य प्रदर्शन और नवीनता की धुन के कारण इस दिशा में दुरूहता आ गई है। प्रयोगवादी कवि शायद इस तथ्य को भूल जाता है कि कविता की उदात्तता उसकी अन्तरात्मा में है न कि बाह्य रूप विधान में। इस कविता का भीतर इतना खोखला है कि बाहर की सारी चमक-दमक व्यर्थ सिद्ध होती है और वह पाठक के मन पर कोई इष्ट प्रभाव नहीं डालती।

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