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परामर्श की प्रविधियाँ | Methods or Techniques of Counselling in Hindi

परामर्श की प्रविधियाँ | Methods or Techniques of Counselling in Hindi
परामर्श की प्रविधियाँ | Methods or Techniques of Counselling in Hindi

परामर्श की प्रविधियाँ | Methods or Techniques of Counselling in Hindi

परामर्श की प्रविधियाँ (Methods or Techniques of Counselling)- परामर्श प्रक्रिया के अन्तर्गत एक ही प्रविधि कारगर सिद्ध नहीं होती है। परामर्श कार्य सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए उपयुक्त प्रविधि का प्रयोग करना पड़ता है। परामर्श प्रविधियों का वर्णन निम्नलिखित है, जो परामर्श कार्य में उपबोधक के कार्य को सरल बनाती हैं-

1. मौन धारण तकनीक (Silence Technique)-

जब उपबोधक उपबोध्य की समस्या या वार्ता को चुपचाप बिना किसी टिप्पणी के धैर्यपूर्वक सुनता रहता है तो इसे मौन धारण प्रविधि कहते हैं। इस विधि में उपबोधक बिना किसी विघ्न के उपबोध्य की समस्या को समझने का प्रयास करता है एवं उसके दृष्टिकोण को स्वीकार करता है। मौन धारण का दूसरा प्रभाव यह है कि उपबोध्य को अपने विचार तथा समस्या को विस्तार से स्पष्ट करने का अवसर प्राप्त होता है। ऐसा होने पर उपबोध्य के अचेतन में स्थित सभी कुण्ठाएँ बाहर आ जाती हैं। इस प्रविधि में उपबोधक उपबोध्य को अधिक बोलने के लिए प्रोत्साहित करता है। यदि कभी उपबोध्य बोलना बन्द करता है तो उपबोधक कुछ बोलकर उपबोध्य को बोलने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार समस्या को अच्छी प्रकार समझने के बाद अन्त में उपबोधक अपने विचार प्रकट करता है।

2. स्वीकृति प्रविधि (Acceptance Technique)-

इस प्रविधि में उपबोधक जब उपबोध्य द्वारा विचार या दृष्टिकोण प्रकट करते समय ‘ठीक है’, ‘अच्छा है’ आदि शब्दों का प्रयोग करके उसके विचारों को स्वीकृति प्रदान करता है तो इसे स्वीकृति प्रविधि कहते हैं। स्वीकृति प्रदान करने का मुख्य उद्देश्य उपबोध्य को अपने विचार निःसंकोच रूप से प्रकट करने की प्रेरणा देना है। उपबोधक द्वारा संकेतक रूप में स्वीकृति न देने की दशा में उपबोध्य को भ्रम हो सकता है कि उपबोधक उसमें या उसकी समस्या में रुचि नहीं ले रहा है। अतः उपबोधक को संकेत रूप में अपनी स्वीकृति देते रहना चाहिए।

3. पुनरावर्तन प्रविधि (Restatement Technique)-

कुछ विद्वानों के अनुसार पुनर्कथन या पुनरावृत्ति और स्वीकृति में कोई भिन्नता नहीं है। लेकिन स्वीकृति और पुनरावृत्ति में अन्तर है। स्वीकृति में कुछ शब्दों का प्रयोग यह संकेत देने के लिए किया जाता है कि वह उपबोध्य के कथन के प्रति सजग जबकि पुनरावृत्ति में उपबोधक उपबोध्य के कथन को दुहराता है ताकि उनको यह विश्वास हो जाये कि उपबोधक सजग है तथा वह कथन के प्रति स्पष्ट हो जाये। अनेक बार पुनरावृत्ति का प्रयोजन उपबोध्य को यह आश्वस्त करने के लिए करता है कि वह उपबोध्य के दृष्टिकोण को समझ रहा है। ऐसा करने से उपबोध्य के वर्णन में विस्तार होता है।

4. स्पष्टीकरण प्रविधि (Clarification Technique)-

उपबोधक और उपबोध्य दोनों के लिए स्पष्टीकरण आवश्यक है। यदि उपबोध्य द्वारा कहीं कोई बात उपबोधक की समझ में नहीं आती है तो उसे उपबोध्य से उसकी बात को और स्पष्ट रूप में व्यक्त करने के लिए कहना चाहिए। इससे समस्या को समझने में सरलता होती है। कभी-कभी उपबोधक भी उपबोध्य की बात को अपनी समझ के अनुसार स्पष्ट कर सकता है। ऐसा करने से उपबोध्य को विश्वास होगा कि उपबोधक उसके द्वारा व्यक्त तथ्यों में रुचि ले रहा है।

5. मान्यता प्रदान प्रविधि (Approval Technique)-

उपबोध वार्तालाप के समय अपनी समस्या से सम्बन्धित अनेक तथ्य तथा विचार-व्यक्त करता है। ऐसे समय उपबोधक को उसके तथ्यपूर्ण विचारों को बीच-बीच में मान्यता प्रदान करनी चाहिए। उपबोधक द्वारा मान्यता प्राप्त विचार उपबोध्य को आगे की योजना बनाने की प्रेरणा देते हैं।

6. सामान्य नेतृत्व तकनीक (General Leadership Technique)-

सामान्यतः प्रबोधक को यह अनुभव होता है कि उपबोध्य अब अपना वक्तव्य समाप्त करने वाला है तो उसे अपनी वार्ता को और आग बढ़ाने की प्रेरणा देने के लिये इस प्रविधि का प्रयोग करना चाहिये। इस कार्य के लिये उपबोधक को वार्तालाप के समय अल्प नेतृत्व करना पड़ता है। वक्तव्य का अंश समाप्त होने पर उपबोधक पूछ सकता है कि “तुम इस कार्य को करने की क्या योजना बना रहे हो?”

7. विश्लेषण प्रविधि (Analysis Technique)-

इस प्रविधि में उपबोध्य द्वारा बतायी गयी समस्या और उससे सम्बन्धित तथ्यों का विश्लेषण उपबोधक द्वारा दिया जाता है। इस विश्लेषण में वे ही तथ्य तथा सूचनायें सम्मिलित होनी चाहिये जो उपबोध्य द्वारा वर्णित हो उपबोधक को तथ्यों को तोड़-मरोड़कर विश्लेषण नहीं करनी चाहिये।

8. विवेचन तकनीक (Interpretation Technique)-

विश्लेषण के विवेचन आवश्यक है। विवेचना तथ्यों के विश्लेषण के बाद निष्कर्ष निकालने का महत्त्वपूर्ण सोपान है। उपबोधक विवेचना के बाद ऐसे निष्कर्ष निकालता है जिन निष्कर्षों तक पहुँचने में उपबोध्य अपने को असमर्थ पाता है

9. परित्याग से संबंधित प्रविधि (Regression Technique)-

कभी-कभी उपबोधक को उपबोध्य के विचार त्रुटिपूर्ण लगते हैं। ऐसे में दोषपूर्ण विचारों का परित्याग करना उपबोधक के लिये आवश्यक हो जाता है। परित्याग का उद्देश्य उपबोध्य की विचारधारा में परिवर्तन लाना है। परित्याग के समय उपबोधक को सावधान रहना चाहिये, क्योंकि उपबोध्य इसका गलत अर्थ लेकर नाराज न हो।

10. आश्वासन से संबंधित प्रविधि (Assurance Technique)-

आश्वासन स्वीकृति से अधिक व्यापक है। उपबोध्य को निराशा से बचाने के लिये आवश्यक है कि उबोधक उसे आश्वस्त करता रहे कि उसकी समस्या का समाधान अवश्य होगा। ऐसा करने से उपबोधक में उसका विश्वास बढ़ेगा और वह उपबोधक से सम्पर्क स्थापित करने के लिये उत्सुक रहेगा।

11. व्याख्यान से संबंधित प्रविधि (Lecture Technique)-

शिक्षा जगत् में व्याख्यान प्रविधि का प्रचलन अधिक लोकप्रिय है। शिक्षण विधि के रूप में शिक्षकों द्वारा इसका उपयोग माध्यमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक किया जाता है। परामर्श के क्षेत्र में इस प्रविधि का उपयोग कुछ अवसरों पर ही किया जाता है। व्याख्यान प्रविधि का उपयोग प्रायः सामूहिक परिस्थिति में किया जाता । इसमें परामर्शदाता या वक्ता प्रधान होता है तथा उपबोध्य निष्क्रिय रूप में श्रवण करते हैं। इस प्रविधि का प्रयोग प्रायः निम्नलिखित कार्यों के लिये किया जाता है-

उपबोध्यों को प्रेरित करने के लिये (To motivate the counselees),
समय बचाने के लिये (To save time),
समस्या को स्पष्ट करने में (To clarify problem),
संक्षिप्तीकरण हेतु (To abridge)|

12. परिचर्या प्रविधि (Discussion Technique)-

परिचर्चा भी परामर्श की एक महत्त्वपूर्ण प्रविधि है। परिचर्चा से आशय किसी प्रकरण या समस्या स्तर पर परस्पर वार्तालाप करना। परिचर्चा वैसे तो परामर्श से परामर्शदाता और उपबोध्य के मध्य की स्थिति में उपयुक्त मानी जाती है, किन्तु इसका उपयोग सामूहिक परामर्श में भी किया जा सकता है। यह प्रविधि इस सिद्धान्त पर आधारित है कि उपबोध्य परामर्श प्रक्रिया में उपबोध्य की सम्भागिता जितनी अधिक होगी, उतना ही अधिक परामर्शदाता उपबोध्य और उसकी समस्या को समझ सकेगा। परिचर्च को स्पष्ट करते हुये योकम और सिम्पसन ने कहा है कि “परिचर्चा वार्तालाप का एक विशिष्ट रूप है। साधारण वार्तालाप की अपेक्षा परिचर्चा में उच्च स्तर के तार्किक विचारों का विनिमय होता है और वार्तालाप में महत्त्वपूर्ण विचारों या समस्याओं पर चर्चा होती है।

क्लार्क और स्टार के अनुसार, “परिचर्चा किसी व्यक्ति को अहम् भाव प्रदर्शित करते हुए वार्तालाप में प्रभुत्व स्थापित करने का स्थान नहीं है और न अपने दृष्टिकोण को दूसरे पर लादना है। परिचर्चा अन्य शब्दों में न तो व्याख्यान है और न वर्णन।”

हर्बट गुली ने ठीक लिखा है कि “परिचर्चा उस समय होती है जब व्यक्तियों का समूह आमने-सामने एकत्रित होता है और मौखिक अन्तःक्रिया द्वारा सूचनाओं का विनिमय करता है या किसी सामूहिक समस्या पर निर्णय लेता है।”

परिचर्चा के सोपान (Step in Discussion)

– इसके तीन सोपान हैं-

(1) पूर्व तैयारी- परिचर्चा प्रारम्भ करने से पूर्व परामर्शदाता को परिचर्चा की पूरी योजना बना लेनी चाहिये। परिचर्चा में छात्रों के बैठने की तथा परिचर्चा में भाग लेने वालों की सूची बना लेनी चाहिये। विषय पहले से ही प्रतिभागियों को बता देना चाहिये।

(2) संचालन- परिचर्चा का संचालन व्यवस्थित ढंग से होना चाहिये। संचालन में चार सोपान प्रयोग में आते हैं- 1. नवाचार (Orientation), 2. विश्लेषण (Analysis), 3. व्याख्या (Explanation), 4. सारांश (Summarisation) |

(3) मूल्यांकन- परिचर्चा की समाप्ति पर इसका मूल्यांकन होना चाहिये।

(13) अभिनय प्रविधि (Dramatics)-

अभिनय भी परामर्श की एक प्रविध है। इस तकनीक का प्रयोग परामर्शदाता उपबोध्य से समस्या तथा उसमें स्वयं से सम्बन्धित तथ्यों को प्रकट करवाने के लिये करता है।

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