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निर्देशन की प्रविधियाँ | Methods of Guidance in Hindi

निर्देशन की प्रविधियाँ
निर्देशन की प्रविधियाँ

निर्देशन की प्रविधियाँ पर प्रकाश डालिए।

निर्देशन की प्रविधियाँ (Methods of Guidance)-निर्देशन प्रविधि का उद्देश्य व्यक्ति को विकास में सहायता करना है। इसकी एक निश्चित प्रविधि होती है। निर्देशन की तीन तकनीकें या प्रविधियाँ प्रचलित हैं-

(I) व्यक्तिगत परामर्श तकनीक-

व्यक्तिगत परामर्श एक प्रक्रिया होती है जिसमें में सहयोग व आत्मविश्वास अर्जित करता है। किसी निदेशन कार्यक्रम में सम्मिलित सेवाओं का परामर्शी अभिव्यक्त करने में पूर्णतः स्वतन्त्र अनुभव करता है। वह उपस्थित समस्याओं के समाधान एक घटक परामर्श होता है। परामर्श एक ऐसी निदेशन प्रक्रिया होती है जिसमें व्यक्ति अनेक प्रकार से अधिगम भी करता है।

व्यक्तिगत परामर्श प्रविधि मुख्य रूप से एक व्यक्ति, जो कि परामर्शी होता है। परामर्शदाता के मध्य वार्ता की प्रक्रिया होती है। जैसा कि क्रो एवं क्रो (Crow and Crow) का भी कथन है-
“साक्षात्कार-परमार्श का केन्द्र बिन्दु है।”

निर्देशन की व्यक्तिगत परामर्श तकनीक के अन्तर्गत मुख्य रूप से निम्न सोपान उल्लेखनीय है –

1. परामर्श पूर्व की तैयारी- प्रभावशाली परामर्श के लिए यह बहुत जरूरी हो परामर्श पूर्व तैयारी के आधार पर प्रारम्भ किया जाता है तभी परामर्श के पूर्ण सफल होने की सम्भावना होती है।

2. प्रारम्भिक संचरना का विकास- परामर्शी के लिए यह आवश्यक होता है कि उसे यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि सम्पर्क में आने वाले परामर्शदाता से वह किस प्रकार की सहायता या सहयोग की आशा कर सकता है। परामर्श के प्रारम्भ में ही परामर्शदाता परामर्शी को अपनी योग्यता, दक्षता तथा अनुभवों तथा परमार्श प्रक्रिया के संरचनात्मक पक्षों के बारे में पूरी
सत्यता के बारे में बताता है।

3. परामर्श-लक्ष्य निर्धारण- प्रारम्भिक निर्देशन (परामर्श) सत्र में ही परामर्श लक्ष्य का निर्धारण स्पष्ट हो जाना चाहिए, जिस लक्ष्य पूर्ति के लिए परामर्श के माध्यम से प्रयास किया जाना है। परामर्श प्रक्रिया का स्वरूप भी परामर्शदाता को पहले से ही स्पष्ट कर लेना चाहिए।

4. आपसी सम्बन्धों का विकास- परामर्श सत्र का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी होता है कि  परामर्शी व परामर्शदाता के मध्य स्वस्थ व सुमधुर सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए तथा उसमें उत्तरोत्तर विकास ही होना चाहिए। इन सम्बन्धों की शुरूआत परिचयात्मक-वार्ता से प्रारम्भ हो जाती है जो कि सौहार्द्रयता के साथ बने रहने चाहिए। परामर्शी के प्रति परामर्शदाता को पूर्णतः समर्पित वृत्ति का होना चाहिए। इन सम्बन्धों में एक-दूसरे के प्रति विश्वास महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

5. परामर्शी को प्रोत्साहन- आरम्भिक सत्र में परामर्शी में झिझक या अजनबीपन प्रभावी हो सकता है। अतः परामर्शक को परामर्शी को प्रोत्साहित करे कि वह सहज वार्ता की मानसिकता बनाए तथा परामर्शी को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वह उसकी मानसिक रूप से सहायता करना चाहता है। इस प्रकार परामर्श से सम्बन्धित समस्या का समाधान करने में काफी सहयोग मिलता है।

6. परामर्शी सत्र-समापन- प्रभावशाली परामर्श के लिए सत्र की शुरुआत तथा समापन दोनों ही अति महत्त्वपूर्ण होते हैं बल्कि यह कहना गलत न होगा कि परामर्श की सार्थकता काफी हद तक इन्हीं दो चरणों पर निर्भर करती है। यदि परामर्श वार्ता या साक्षात्कार का विषय व्यक्ति की कोई समायोजनात्मक समस्या है तो समाधान से पूर्व ही चिन्ताएँ पुनः सक्रिय हो सकती हैं। अतः चिन्ता उत्पन्न करने वाली सांवेगिक क्षेत्रों का परिहार करके संज्ञानात्मक क्षेत्र को सुदृढ़ता प्रदान करनी चाहिए।

7. अनुवर्ती कार्य- परामर्श के प्रत्येक सत्र समाप्ति के पश्चात् अनुवर्ती कार्य रूप में प्रतिवेदन/अभिलेख के माध्यम से आवश्यक सूचनाओं तथा विशेष टिप्पणियों को सुरक्षित रखना चाहिए। इनका उपयोग भविष्य के लिए अगले सत्र जैसी स्थिति में बहुत महत्त्वपूर्ण होगा। अभी सम्पन्न हुए परामर्श सत्र के सन्दर्भ में एक लघु टिप्पणी अगले सत्र के समय परामर्शदाता के लिए इस केस की पुनः स्मृति को ताजा करने में एक आवश्यक उपकरण जैसी सिद्ध होती है।

(II) उपचारात्मक तकनीक (Therapeutic Clinical Techniques)-

निर्देशन की उपचारात्मक प्रविधि को निर्देशन का नैदानिक उपागम (Clinical Approach) भी कहा जाता है। उपचारात्मक तकनीक के रूप में निर्देशन को कुछ विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है। वर्तमान में कई विकसित क्षेत्रों में निर्देशनात्मक कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए निर्देशनात्मक उपचारात्मक केन्द्रों को स्थापित किया जा रहा है।

परामर्शदाता सर्वप्रथम परामर्शी की समस्या/समस्याओं का निदान (Diagnosis) करता है। तत्पश्चात् उस समस्या के निराकरण के लिए उपचारात्मक तकनीकी (Therapeutic Techniques) का उपयोग करके समस्या का समाधान करने में सहयोग करता है। परामर्शदाता परामर्शी की समायोजनात्मक एवं संवेगात्मक समस्याओं के समाधान के लिए ऐसी तकनीकों या प्रविधियों का उपयोग करता है जिनकी प्रक्रिया उपचारात्मक पद्धतियों जैसी होती है। व्यक्ति की वह प्रमुख समस्याएँ जिनके समाधान के लिए परामर्शदाता/निर्देशनदाता निर्देशन की उपचारात्मक तकनीकों का उपयोग करता है, वे समस्याएँ निम्नलिखित होती हैं-

1. व्यावहारात्मक विकृतियाँ या दोषपूर्ण व्यवहार व्यक्ति के अपने लिए तो हानिकारक होता ही है, अन्य लोगों के लिए भी समस्यात्मक होता है। व्यक्ति इन दोषपूर्ण आदतों तथा अनुशासनहीनता का सुधार करना अत्यन्त आवश्यक होता है।

2. भाषा दोष, लिखने-पढ़ने में कठिनता तथा गणितीय ज्ञान जैसी अनेक अधिगम से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान सहयोग के लिए सर्वप्रथम निर्देशनकर्ता को बच्चे की समस्या के कारण को जानना होता है। तत्पश्चात् अब बालक या व्यक्ति को कोई अधिगम अर्थात् अध्ययन प्रविधियों का तकनीकों द्वारा शिक्षित प्रशिक्षित किया जाता है।

3. पारिवारिक परिवेश या वातावरण को छोड़कर जब विद्यार्थी विद्यालय जाना शुरू करता है तो उसके मन में अनेक छोटी बड़ी चिन्ताएँ तथा भय-भाव उत्पन्न हो सकते हैं। यह भी सम्भव है उसे अन्य सहपाठियों के साथ समायोजित होने में दिक्कत आए, कक्षा में अधिगम तथा गृह कार्य के दबाव से बचने के लिए वह विद्यालय न जाना चाहे इत्यादि।

4. व्यक्ति की विभिन्न समस्याओं के समाधान में सहयोग के अतिरिक्त व्यक्ति के सकारात्मक गुणों के विकास हेतु भी ध्यान देना आवश्यक होता है। कभी-कभी व्यक्ति स्वयं भी अपने में केन्द्रों पर जाकर सेवा प्राप्त करना चाहता है। व्यक्तित्व के सकारात्मक गुणों का अभाव अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में वो स्वयं ही अपने सकारात्मक गुणों में विकास करना चाहता है जिसके लिए वह स्वयं ही निर्देशनात्मक उपचार

5. निर्देशन की एक उपयोगिता जैसा कि गत अध्याय में भी दिया गया है, निर्देशन सेवा की आवश्यकता को प्रतिभाशालियों तथा सृजनशील व्यक्तियों ने भी अनुभव किया है। उपचारात्मक निर्देशन में निर्देशनकर्ता ऐसे (इस वर्ग के) व्यक्तियों की व्यापक आवश्यकताओं तथा समस्याओं के लिए भी सहायक होती है। इस उपचारात्मक निर्देशन के कार्यक्रम का स्वरूप निम्न चरणों के रूप में तैयार किया जा सकता है-

(i) समायोजनात्मक समस्याओं को व्यापकता से समझना।
(ii) निर्देशनार्थी के बारे में विस्तृत सूचनाएँ या व्यक्ति अध्ययन प्राप्त करना।
(ii) प्राप्त सूचनाओं का उसकी समस्याओं में सम्बन्ध का विश्लेषण करना।
(iv) उपयुक्त उपचारात्मक निर्देशन कार्यक्रम की योजना बनाना।
(v) निर्धारित उपचारात्मक निर्देशन कार्यक्रम को क्रियान्वित करना।
(vi) उपचारात्मक निर्देशन कार्यक्रम समापनोपरान्त अनुवर्ती सेवा का उपयोग करना तथा प्रगति एवं समायोजन का मूल्यांकन करना।

(III) समूह निर्देशन तकनीक (Group Guidance Techniques)-

निर्देशन तकनीक प्रतिपादन के कुछ समय पश्चात् ही निर्देशन का सामूहिक रूप में उपयोग किया जाने लगा। इस प्रकार सामूहिक निर्देशन की शुरुआत हुई। इसे निर्देशन मनोवैज्ञानिकों ने समूह निर्देशन तकनीक कहा। संसार में प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्ति की अपेक्षा निम्न प्रकार का होता है लेकिन व्यवहार मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्तियों को समूह के दृष्टिकोण में देखा जाए तो एक समूह के व्यक्तियों में कम या अधिक आपसी समानताएँ भी पाई जाती हैं। स्पष्टतः उस समूह के व्यक्तियों या लगभग समान प्रकार की समायोजनात्मक कठिनाइयाँ होगी तो उनके निराकरण या समाधान में मिलती-जुलती निर्देशनात्मक शैली, प्रविधि या तकनीक का उपयोग करके उस व्यक्ति का समस्या समाधान में सहयोग किया जा सकता है। इस प्रकार समूह हेतु उपयोग की जाने वाली निर्देशन प्रक्रिया प्रविधि को समूह निर्देशन तकनीक कहते हैं।

जब कोई निर्देशनकर्ता निर्देशन कार्यक्रम का क्रियान्वयन किसी समूह के लिए करता है तो उसकी मनःस्थिति उस समूह को एक सामाजिक इकाई स्वीकारती है। अर्थात् समग्र समाज का एक लघु रूप मानकर उस पर निर्देशन कार्यक्रम को प्रशासित करता है। इस उस समूह को स्थिति में समूह का प्रत्येक निर्देशनार्थी स्वयं भी अपना स्वःमूल्यांकन करने के लिए भी पूर्णतः स्वतन्त्र भी होता है और निर्देशनकर्ता से भी अपने मूल्यांकन के सन्दर्भ में आंशिक स्थिति जान सकता है। निर्देशनकर्ता व्यक्ति को एकांकीरूप व सामूहिक भूमिकाओं दोनों रूपों में अवलोकन कर सकता है। व्यवहारगत सामाजिक जीवन में कुछ नवीन अर्जित व्यवहार को अपनाते समय व्यक्ति को कुछ घबराहट व संकोच भी होता है लेकिन सामूहिक निर्देशनात्मक परिवेश में उसे अपेक्षाकृत अधिक संरक्षित अवसर प्राप्त होता है। इन उपादेयता को ध्यान में रखते हुए निर्देशन मनोविज्ञानी समूह निर्देशन तकनीक को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व देते हैं। इस प्रकार के निर्देशन कार्यक्रम के क्रियान्वयन में सबसे बड़ी विशेषता यह देखी जाती है कि समूह निर्देशनात्मक परिस्थितियों में व्यक्ति को स्वमूल्यांकन का अवसर उपलब्ध होता है।

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