कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के आवश्यक लक्षण
ऐतिहासिक भौतिकवाद के लक्षण – कार्ल मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या करते हुए लिखा है कि, ‘जब द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त का अनुप्रयोग संस्कृति के संदर्भ में होता है, तो यह ऐतिहासिक भौतिकवाद को जन्म देता है।’ ऐतिहासिक भौतिकवाद में यह परिकल्पना भी व्यक्त की जाती है कि ‘समस्त सामाजिक परिवर्तन एवं राजनैतिक क्रान्तियों के कारण मनुष्यों के मस्तिष्कों अथवा शाश्वत सत्य और न्याय में उनकी बेहतर अन्तर्दृष्टि में नहीं बल्कि उत्पादन व विनिमय के तरीकों में होने वाले परिवर्तनों में खोजना चाहिये।’ इस मत के अनुसार, उत्पादन की पद्धति सामानतः सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक जीवन के चरित्र को निर्धारित करती है। ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धान्त में जो विन्ध्यात्मक नियम अथवा लक्षण या विशेषता निहित है, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।
1. मावर्स का कहना है कि वर्तमान में विद्यमान प्रत्येक संस्कृति संरचनात्मक दृष्टि से अम्बद्ध एक सम्पूर्णता है। अतः उस सम्पूर्णता की विधि संहिता, शैक्षिक कार्य, धर्म, कला, व्यापार अथवा ऐसे ही किसी अन्य पक्ष को स्वतंत्र कारक के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
2. संस्कृति एक विकासशील सम्पूर्णता है। अतः इसे मात्र एक अन्तर्सम्बद्ध सम्पूर्णता ही नहीं माना जा सकता है। विकासशील सामाजिक सम्पूर्णता का स्वतंत्र चर न केवल एक समाज से दूसरे समाज में परिवर्तन की बल्कि किसी भी समय अस्तित्ववान प्रमुख सांस्कृतिक प्रणाली की विवेचनकारी कुंजी का काम करता है। ऐतिहासिक भौतिकवादी के अनुसार स्वतंत्र चर आर्थिक उत्पादन का तरीका या पद्धति है।
3. मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद का तात्पर्य ‘उत्पादन के सम्बन्धों के सफल योग से है। यहाँ मार्क्स का तात्पर्य उन सामाजिक सम्बन्धों से है, जो विभिन्न मनुष्य एक-दूसरे के साथ स्थापित करते हैं, या जिनके सूत्रों में एक-दूसरे को आबद्ध पाते हैं, जब कभी उन्हें समाज के आर्थिक जीवन में भागीदारी करनी पड़ती है।
4. एक निश्चित सामाजिक सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में आर्थिक उत्पादन की पद्धति अभिव्यक्ति होती है, जो किसी भी व्यक्ति से स्वतंत्र होते हैं। मनुष्य का जन्म एक ऐसे समाज में होता है जिसमें सम्पत्ति सम्बन्ध पहले ही आकार ग्रहण कर चुके होते हैं। ये सम्पत्ति सम्बन्ध सामंत-स्वामी और दास या मालिक और नौकर जैसे भिन्न सामाजिक वर्गों को परिभाषित करते हैं।
5. समाज में होने वाले वर्ग विभाजन से ही राजनैतिक, आचारिक, आध्यत्मिक एवं दार्शनिक विचारधाराओं का जन्म होता है। यही विचारधाराएँ प्रभुत्व सम्पन्न वर्ग की शा तथा सत्ता को या तो मजबूत बनाने की या फिर कमजोर करने की प्रवृत्ति दिखाती हैं। मार्क्स इन विचारधाराओं का अवलोकन करने के बाद कहते हैं कि ‘प्रत्येक युग में शासन करने विचार सदैव शासक वर्ग के विचार रहे हैं।’
6. भौतिक शक्तियों का प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन होता रहता है, जैसा कि आदिम समाजों में हुआ था। यह परिवर्तन किसी प्राकृतिक घटना के होने के कारण हुआ था। यथा-नदी का जल सूख जाने से, भूमि की उर्वरा शक्ति समाप्त होने से आदि। परन्तु इस परिवर्तन के मूल में उत्पादन के उपकरणों का विकास होता है। अपने विकास के एक बिन्दु पर उत्पादन की शक्तियों में बदले सम्बन्ध तत्कालीन सम्पत्ति सम्बन्धों से टकराते हैं। परन्तु कार्ल मार्क्स इस संदर्भ में कहते हैं कि, ‘जब तक सभी सामाजिक शक्तियाँ विकसित नहीं हो जाती हैं, कोई भी सामाजिक व्यवस्था जिसमें इनके लिए जगह होती है, समाप्त नहीं होती है, और नये व उत्पादन के उच्चतर सम्बन्ध उस समय तक प्रकट नहीं होते हैं जब तक उनके अस्तित्व की भौतिक दशायें पुराने समाज के गर्भ में परिपक्व नहीं हो जाती हैं।’
7. इस प्रकार आदिम साम्यवाद की समाप्ति के बाद का सम्पूर्ण इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास दिखाई पड़ता है। इसके बाद पूँजीवादी और सर्वहारा के बीच संघर्ष सामाजिक संघर्ष के अन्तिम ऐतिहासिक स्वरूप को निरूपित करता है।
आलोचना- कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की कई विद्वानों ने आलोचना भी की है। इन विद्वानों का कहना है कि यदि विभिन्न व्यक्ति ऐसे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रवृत्त होते हैं जो हमेशा व्यक्तिगत हित के लिए प्रकार्य नहीं करते हैं। उक्त सन्दर्भ में विद्वानों का कहना है कि यदि इस बात को मान भी लिया जाय तो प्रश्न उठता है कि वे विशिष्ट मैकेनिज्म कौन-कौन हैं जिनके जरिये आर्थिक दशायें विभिन्न वर्गों की आदतों और मंश को प्रभावित करती हैं। दूसरा प्रश्न यह उठता है कि आर्थिक दशाएँ अन्ततोगत्वा सामाजिक जीवन को निर्धारित करती हैं या वे समाज की वास्तविक आधारशिलायें हैं। परन्तु अब तक सामाजिक अनुशासन के लिए इस तरह के सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया जा सका है।
कतिपय विद्वानों ने मार्क्स के दास – कैपिटल का उदाहरण देते हुए कहा कि यदि इस कथन को सत्य मान लिया जाये कि अपने बाहरी परिवेश को बदलने की प्रक्रिया में मनुष्य अपनी ही प्रकृति को बदलता है तो आदिम दासता के परिप्रेक्ष्य में मानव स्वभाव कुछ दृष्टियों से निःसंदेह आधुनिक पूँजीवाद के परिप्रेक्ष्य में मानव स्वभाव से भिन्न होगा। इस स्थिति में ऐतिहासिक अनुभव को ठीक वैसे ही समझ पाना कैसे सम्भव है जैसे हम वर्तमान अनुभव को समझते-बूझते हैं, चूँकि इसमें समझ के लिहाज से एक अपरिवर्तनीय विश्लेषण प्रणाली की पूर्वकल्पना अन्तर्निहित है? इत्यादि। परन्तु यह केवल ऐतिहासिक भौतिकवाद की ही समस्या न होकर इतिहास के सभी दर्शनों की समस्या है।
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