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कार्ल मार्क्स का अलगाव का सिद्धांत, algav ka siddhant, theory of aleivation in hindi

कार्ल मार्क्स का अलगाव का सिद्धांत
कार्ल मार्क्स का अलगाव का सिद्धांत

कार्ल मार्क्स का अलगाव का सिद्धांत, algav ka siddhant, theory of aleivation in hindi

कार्ल मार्क्स का अलगाव का सिद्धांत – theory of aleivation in hindi – सामान्यतया अलगाव से तात्पर्य एक ऐसी स्थिति से है जिससे व्यक्ति अपने घर परिवार तथा समाज के प्रति उदासीन हो जाता है तथा सामाजिक सम्बन्धों के जाल से वह स्वयं को मुक्त कराने का प्रयास करता है। अलगाव शब्द अंग्रेजी के शब्द “एलिअनेसन (Alienation) का हिन्दी रूपान्तर है। इसे अनेक उपनामों से भी पुकारा जाता है, यथा- मनमुटाव, विरसता, विरसज आदि। प्रारम्भ में अलगाव शब्द का प्रयोग पागल व्यक्ति के लिए किया जाता था। लेकिन बाद में अपने प्रति विरह या पृथक भाव के लिए अलगाव शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। कार्ल मार्क्स ने वर्ग संघर्ष की भाँति अलगाव के सिद्धान्त’ का भी प्रतिपादन किया, जो समाजशास्त्र में विशेष महत्व रखता है। मार्क्स ने अपने अलगाव सिद्धान्त की धारणा भौतिक जगत के सम्बन्ध में रखी, जिसने समाजशास्त्री अवधारणाओं में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया। कार्ल मार्क्स के अनुसार, ‘अलगाव व्यक्ति की वह दशा है जिसमें उसके अपने कार्य पराई शक्ति बन जाती हैं, जो कि उसके द्वारा शासित न होकर उससे ऊँची परन्तु उसी के विरुद्ध है।’

मार्क्स के लिए मानवता के इतिहास के दो भिन्न पहलू हैं, प्रथम यह व्यक्ति का प्रकृति पर अधिकाधिक नियंत्रण का इतिहास है तथा दूसरे वह व्यक्ति के अधिकाधिक अलगाव का इतिहास भी है। कार्ल मार्क्स के अनुसार, ‘अलगाव का वर्णन उस दशा के रूप में किया जा सकता है जिसमें व्यक्ति अपने द्वारा निर्मित वस्तुओं का ही दास हो जाता है तथा जिनमें उसे परदेशी या पराई शक्तियों के रूप में संघर्ष करना पड़ता है। यह अवधारणा मार्क्स के प्रारम्भिक दार्शनिक लेखन का प्रमुख सार है परन्तु वह इसे एक दार्शनिक मुद्दा न मानकर सामाजिक घटना ही मानता है।’

अलगाव का स्वरूप – मार्क्स ने 1844 ई0 में अपनी कृति ‘इकोनोमिकल मैन्युरिक्रप्ट’ में अलगाव से सम्बन्धित अपने विचार व्यक्त किये जिसे मेसजारोस ने ‘मार्क्स थ्योरी ऑफ एलीनेशन’ में मार्क्स के अलगाव सम्बन्धी विचारों का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया। मेसजारोस ने मार्क्स के अलगाव की धारणा के चार प्रमुख पक्ष बताये, जिनका विवरण अग्रांकित है।

(1) उत्पादित वस्तुओं के प्रति अलगाव- मेसजारोस लिखते हैं कि-मार्क्स का कहना है कि मजदूर जानता है, कि जो कुछ वह उत्पादन उसका नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि श्रमिक में उत्पादित वस्तुओं के प्रति अलगाव की भावना पैदा हो जाती है। श्रमिक उत्पादन की प्रक्रिया में एक छोटे-से भाग की भूमिका अदा करता है इसलिए वह अपने आप को वस्तु का एकमात्र निर्माता नहीं कह सकता। श्रमिक का वस्तु की क्रय-विक्रय सम्बन्धी प्रक्रिया पर कोई नियंत्रण नहीं होता। ये सभी परिस्थितियाँ श्रमिक में उत्पादित वस्तु के प्रति अलगाव पैदा करती है।

(2) मार्क्स ने अलगाव का दूसरा स्वरूप व्यक्ति की अपने स्वयं के प्रति अलगाव की भावना बताया है। आपका कहना है कि पूँजीपति व्यवस्था में श्रम-विभाजन के कारण श्रमिक उत्पादन की प्रक्रिया में एक छोटा सा हिस्सा होता है। वह अपना श्रम बेचता है व जीवन पर्यन्त उत्पादन की प्रक्रिया को बार-बार करता है इससे श्रम के प्रति उसकी अरुचि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। मार्क्स ने श्रम को एक मानवीय क्रिया कहा है जो मानव की मानवता को परिभाषित करती है। पूँजीपति व्यवस्था में श्रम मानवीय क्रिया न होकर जीविकोपार्जन को बनाये रखने का साधन मात्र रह जाता है। श्रमिक की कार्य सम्बन्धी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है, जो व्यक्ति में अलगाव पैदा करती है। श्रम आन्तरिक सन्तुष्टि न रहकर बाह्य मजबूरी हो जाती है, जो व्यक्ति में अलगाव पैदा करती है।

मार्क्स ने इसी अलगाव को निम्नवत व्यक्त किया है- ‘श्रम मजदूर के लिए बाह्य है, कि यह उसके स्वभाव का एक अंग नहीं है, परिणामस्वरूप वह अपने कार्य में अपने को संतुष्ट नहीं पाता है, बल्कि अपने को नकारता है, दरिद्रता का अनुभव करता है, शारीरिक एवं मानसिक ऊर्जा का विकास नहीं कर पाता है वरन शारीरिक थकान और मानसिक रूप से उखड़ापन अनुभव मजदूर के करता है। उसका काम ऐच्छिक नहीं वरन लादा गया है, बेगारी का श्रम है। अन्त में लिए काम का अलगाव लक्षण इस तथ्य से प्रकट होता है कि यह काम उसका नहीं वरन किसी दूसरे के लिए है और वह काम में स्वयं से नहीं अपितु किसी दूसरे से जुड़ा होता है।’

(3) मानवजाति से अलगाव- अलगाव का तीसरा जो स्वरूप मार्क्स बतलाते हैं उसके अनुसार, ‘पूँजीपति व्यवस्था में श्रम-विभाजन एवं उत्पादन की प्रकृति व्यक्ति में मानव जाति के प्रति अलगाव पैदा कर देती है। मार्क्स लिखते हैं कि श्रमिक को समाज में रहकर अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। पूँजीवादी व्यवस्था में उसकी इतनी अधिक अरुचि पैदा हो जाती है कि वह स्वयं से ही नहीं बल्कि अपने परिवार के सदस्यों, मित्रों, मानव जाति से अलगाव अनुभव करने लगता है। वह इन सब प्रकार के सदस्यों से दूर हटता जाता समुदाय और है। उसका इतना अधिक शोषण होता है कि वह अपने जीवन और संसार के प्रति निष्क्रिय हो जाता है। पूँजीपति व्यवस्था श्रमिक को मुद्रा और उत्पादन के साधनों का निष्क्रिय दास बना देती है और यही निष्क्रियता व्यक्ति में मानव जाति के प्रति अलगाव पैदा करता है।’

(4) व्यक्ति का व्यक्ति से अलगाव- अलगाव का चौथा स्वरूप जो मार्क्स ने बताया है वह तीसरे प्रकार के स्वरूप का ही निर्णय मात्र है। मार्क्स के अनुसार जब व्यक्ति अपने प्राकृतिक एवं सामाजिक लक्षणों से अलग-थलग पड़ जाता है तब प्रत्येक व्यक्ति समाज के अन्य व्यक्तियों से भी अलगाव की स्थिति में आ जाता है।

उपरोक्त वर्णित अलगाव के स्वरूप को मार्क्स ने एक तरह से समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अनुसार लिखा है। समाजशास्त्र में पूर्ण समाज का अध्ययन व्यक्ति का व्यक्ति के साथ व्यक्ति का समूह के साथ, समूह का समूह के साथ किया जाता है। मार्क्स ने इसी प्रकार के अलगाव स्वरूप व्यक्ति के स्तर पर, समूह के स्तर पर और स्तर पर भिन्न-भिन्न बताये हैं। एक प्रकार से पूँजीवादी व्यवस्था समाज में विभिन्न प्रकार के अलगावों को पैदा करके व्यक्ति, समूहों और समाज मैं असंतुलन पैदा करती है।

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