राजनीति विज्ञान / Political Science

प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना | Criticism of Plato’s ideal state in Hindi

अनुक्रम (Contents)

प्लेटो (Plato): आदर्श राज्य की आलोचनाएँ ( Criticism ) in Hindi

प्लेटो (Plato): आदर्श राज्य की आलोचनाएँ

प्लेटो (Plato): आदर्श राज्य की आलोचनाएँ

आलोचनाएँ
(Criticism)

प्लेटो के आदर्श राज्य के चित्रण की निम्न आधारों पर आलोचना हुई है : न्याय सिद्धान्त दोषपूर्ण है, दोषपूर्ण साम्यावी व्यवस्था, आवर्श राज्य अव्यावहारिक है, अत्यधिक पथक्कता एवं अत्यधिक एकता पर बल…..

1. न्याय सिद्धान्त दोषपूर्ण है (Idea of Justice is Defective) :

प्लेटो का न्याय सिद्धान्त दोषपूर्ण और संकीर्ण है। उसमें कर्तव्यों की प्रधानता है और अधिकारों की उपेक्षा की है। इस सिद्धान्त में अन्तर्विरोध है। व्यक्ति की आत्मा के तीन तत्त्वों के आधार पर समाज को तीन वर्गों में बाँटकर उन्हें अपने-अपने कार्यों को करने की बात कही है। इसमें कोई वर्ग दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करेगा। दूसरी तरफ प्लेटो शासक वर्ग को शान्ति और व्यवस्था के लिए उत्पादक वर्ग के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकता है। उसका यह सिद्धान्त नैतिक सिद्धान्त मात्र है जिसे प्लेटो ने राजनीति में लागू करके राजनीति का प्रत्ययीकरण (दर्शनीकरण) किया है। प्लेटो के न्याय सिद्धान्त से अपराधियों को दण्ड देने वाली विधियों और न्यायालयों की स्थापना का भी पता नहीं चलता है। उसका न्याय का सिद्धान्त प्रचलित सभी न्याय की धारणाओं के प्रतिकूल है।

2. दोषपूर्ण साम्यावी व्यवस्था (Idea of Communism is Defective) :

प्लेटो द्वारा वर्णित साम्यवादी व्यवस्था मानव स्वभाव व आवश्यकताओं के सर्वथा विपरीत है। व्यक्ति परिवार व सम्पत्ति के कारण ही अपने क्रिया-कलापों में व्यस्त रहते हैं। यदि परिवार तथा सम्पत्ति का आकर्षण व्यक्ति के जीवन में न हो तो समाज का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। व्यक्ति को सम्पत्ति व परिवार विहीन करना मानवीय भावनाओं व परिवार के पवित्र सम्बन्धों का अपमान करना है। प्लेटो ने नारी मनोविज्ञान की गलत व्याख्या की है। आधुनिक युग में जो साम्यवादी व्यवस्थाएँ है, प्लेटो की धारणा उनसे बिल्कुल अलग है।

3. आवर्श राज्य अव्यावहारिक है (Ideal State is Impractical) :

प्लेटो का आदर्श राज्य एक काल्पनिक राज्य है। यह कल्पना स्वर्ग की है, धरती की नहीं। प्लेटो स्वयं स्वीकार करता है कि- “यह राज्य केवल शब्दों में स्थापित किया गया है। क्योंकि मैं जानता हूँ कि इसका अस्तित्व कहीं भी नहीं है। रिपब्लिक में वर्णित यह धारणा मूलतः अव्यावहारिक और काल्पनिक है। इनिंग ने इस कल्पना को रोमांस कहा है तथा मैक्सी ने प्लेटो को प्रथम कल्पनावादी कहा है। अतः प्लेटो का आदर्श राज्य निरी कल्पना तथा मृग तृष्णा है।

4. अत्यधिक पथक्कता एवं अत्यधिक एकता पर बल (Stress on Excessive Separation and Excessive Unity) :

प्लेटो ने एक साथ दो विपरीत संगठनात्मक सिद्धान्तों को बाँधने का गलत प्रयास किया है। वह समाज को तीन वर्गों में बाँटकर उन वर्गों को एक-दूसरे के कार्यों में अहस्तक्षेप की बात करता है। दूसरी तरफ शासक वर्ग को उत्पादन व सैनिक वर्ग को नियन्त्रित करने का अधिकार प्रदान करता है। वह एक तरफ तो अत्यधिक अनेकता और दूसरी तरफ पूर्ण एकता पैदा करता है। अतः इन दोनों सिद्धान्तों को मिलाना अव्यावहारिक व असंगत है।

5. आधुनिक राज्यों में लागू नहीं हो सकता (Cannot he Realized in Modern States):

आधुनिक राज्यों की जनसंख्या अधिक होने के कारण समस्त जनसंख्या को तीन वर्गों में बाँटना मुश्किल व असम्भव काम है। लोगों को बुद्धि, साहस तथा क्षुधा तत्त्वों के आधार पर बाँटना असम्भव व कल्पना की उड़ान मात्र है। अतः इसे आधुनिक विशाल जनसंख्या वाले राज्यों में लागू नहीं किया जा सकता।

6. कानून की उपेक्षा (Omission of Law) :

प्लेटो ने आदर्श राज्य में कानून को कोई स्थान न देकर बड़ी भूल की है। उसने स्वयं लॉज में इस गलती को स्वीकार किया है। कानून के शासन के अभाव में राज्य में अशान्ति व अराजकता का माहौल पैदा हो सकता है। आधुनिक प्रजातन्त्रीय युगीन राज्यों में तो कानून की उपेक्षा कोई शासक नहीं कर सकता। अरस्तू ने कहा है– “कानून इच्छाओं से अप्रभावित विवेक है।” प्लेटो का दार्शनिक शासक विवेकी होने के कारण यदि कानून की उपेक्षा करता है तो वह राज्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।

7. सर्वाधिकारी राज्य (Totalitarian State):

प्लेटो द्वारा वर्णित आदर्श राज्य मानव स्वभाव के विपरीत अधिनायकवादी राज्य का ही प्रतिबिम्ब है। यह व्यवस्था राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को साध्य मानकर चलती है जबकि आधुनिक युग में राज्य को जनकल्याण का उपकरण मात्र माना जाता है। प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य में कर्तव्यों की तो व्यवस्था की है लेकिन अधिकारों व स्वतन्त्रताओं को छीन लिया है। प्लेटो का राज्य लोगों के पारिवारिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर इतने प्रतिबन्ध लगा देता है, जिससे इसे अधिनायकवादी कहना सर्वथा ठीक है। प्लेटो ने शासक वर्ग को असीमित शक्तियाँ देकर उसे निरंकुश बना दिया है। शासक पर विधि, परम्परा तथा जनमत का कोई नियन्त्रण नहीं है। आधुनिक युग की विचारधाराएँ फासीवाद, नाजीवाद, उग्र प्रत्यवाद आदि प्लेटो के चिन्तन से ही प्रभावित हैं।

8. व्यक्ति व राज्य में पूर्ण समानता अनुचित (Complete Analogy Between Man and State is not Justified) :

प्लेटो ने राज्य को व्यक्ति का व हत् रूप माना है। उसने व्यक्ति की आत्मा के तीन तत्त्वों – बुद्धि, उत्साह व क्षुधा की समानता राज्य के तीन वर्गों – उत्पादक, सैनिक तथा शासक वर्ग से की है। वास्तव में राज्य एक मानसिक संरचना है जबकि व्यक्ति का शरीर एक जैविक व भौतिक संरचना है। उसने राज्य को एक व हत् व्यक्ति (सावयवी) बताकर एक ऐसे राज्य की स्थापना की है जो स्वयं में एक साध्य है और व्यक्ति की स्वतन्त्रता का शत्रु है। व्यक्ति तथा राज्य की समानता सामान्य व्यक्ति की समझ से परे की बात है।

9. उत्पावक वर्ग की उपेक्षा (Producer Class is Ignored) :

प्लेटो ने उत्पादक वर्ग के लिए कोई शिक्षा का पाठ्यक्रम तय नहीं किया है। यद्यपि यह वर्ग राज्य की आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करता है लेकिन उनके कार्यों में विशिष्टता व दक्षता लाने हेतु उन्हें किसी भी प्रकार के प्रशिक्षण या औपचारिक शिक्षा से वंचित रखकर भारी भूल की है। उत्पादक-वर्ग भी राजनीतिक जीवन में भाग ले सकता है। उसकी यह व्यवस्था अलोकतान्त्रिक है और अभिजात-वर्ग की ही पोषक है। प्लेटो की यह व्यवस्था राज्य के अस्तित्व को नष्ट करने वाली है।

10. दास प्रथा पर मौन (Silent on Slavery) :

उस समय यूनान में दास प्रथा थी। स्वयं प्लेटो को भी दास बनाकर बेचा गया था। दासों की स्थिति दयनीय थी। परन्तु प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य में दासों की स्थिति सुधारने बारे कोई उपाय नहीं सुझाया है। उसका दास-प्रथ पर यह मौन समर्थन समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।

11. विशिष्टीकरण के सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of the Principles of Specialisation ) :

प्लेटो के कार्य विशिष्टीकरण के आधार पर समाज को तीन वर्गों में बाँटा है। प्रत्येक वर्ग को अपने निर्दिष्ट कर्तव्य ही पूरे करने हैं। ऐसी अवस्था में-

  1. व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास नहीं हो सकता।
  2. इससे हित की पुष्टि में तीन राज्य स्थापित होते हैं जो राज्य की एकता के लिए खतरनाक हैं।
  3. व्यक्ति अपने सारे जीवन में एक ही गुण में अधीन रहता है। सत्य तो यह है कि व्यक्ति एक नहीं, तीनों गुणों का भी स्वामी हो सकता है। यह शासक व सैनिक की भूमिका एक साथ भी निभा सकता है। उत्पादक वर्ग भी सैनिक के कर्तव्यों को विशेष प्रशिक्षण द्वारा पूरा कर सकता है। अतः प्लेटो का विशिष्टीकरण का सिद्धान्त अमनोवैज्ञानिक एवं अस्वाभाविक सिद्धान्त है।

12. कला व साहित्य पर नियन्त्रण गलत है (Censorship of Art and Literature is Wrong) :

प्लेटो कला व साहित्य पर नियन्त्रण का पक्षधर है। आधुनिक युग में अनेक मनोवैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि कला और साहित्य पर नियन्त्रण उनके विकास में बाधक होता है। कला और साहित्य तो स्वतन्त्र वातावरण में ही फलते-फूलते हैं। यह नियन्त्रण अमनोवैज्ञानिक व अव्यावहारिक है।

13. दार्शनिक शासक सम्बन्धी आलोचना (Criticism Related to Philosopher King) :

प्लेटो का दार्शनिक शासक को विवेक का मूर्त व साकार रूप मानता है, किन्तु व्यवहार में ये दोनों भिन्न तथ्य हैं। एक व्यक्ति को सारे अधिकार व शक्तियाँ प्रदान करना उसे निरंकुश बनाना है। यदि एक व्यक्ति या समूह को इतने सारे अधिकार एक साथ मिल जाएँ तो वह सत्ता के नशे में जनता पर अत्याचार करने लगता है। लार्ड एक्टन कहता है- “शक्ति भ्रष्ट करती है और सम्पूर्ण शक्ति सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है।” सेवाइन ने इसे ‘प्रबुद्ध निरंकुशतन्त्र’ (Enlightened Tyranny) कहा है। राजा सांसारिक जीव होता है, अत: वह गलती भी कर सकता है। प्लेटो का दार्शनिक शासक व्यवहार में अच्छा शासक नहीं हो सकता।

14. शासन के संगठनात्मक पक्ष की उपेक्षा (Ignore the Organisational Aspect of Government) :

प्लेटो के आदर्श राज्य में शासन के आवश्यक संगठनात्मक तत्त्वों का अभाव है। इसमें कानून, दण्डात्मक शासन-व्यवस्था, न्याय का प्रबन्धक, अधिकारियों की नियुक्ति प्रणाली आदि का कोई उल्लेख नहीं है। अतः इस स्थिति में शासन का संचालन कठिन कार्य है।

15. पलायनवादी द ष्टिकोण (Escapist Approach) :

प्लेटो की आदर्श राज्य की कल्पना अव्यावहारिक है। प्लेटो ने अपने युग की समस्याओं का सामना करने की बजाय पलायनवादी दृष्टिकोण ही अपनाया है। उसके ये विचार कल्पना की दुनिया के हैं। उसने केवल अपनी सौन्दर्य भावना की त प्ति के लिए ही इसकी रचना की है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्लेटो का आदर्श राज्य अनेक आलोचनाओं का शिकार हुआ है। उसे कल्पनालोक की वस्तु मानकर प्लेटो को पलायनवादी भी कहा गया है। परन्तु इन आलोचनाओं के बावजूद भी प्लेटो के आदर्श राज्य का इतिहास पर उतना ही प्रभाव पड़ा है जितना स्पार्टा के वास्तविक राज्य का। मध्ययुग के पादरियों ने प्लेटो द्वारा बताए गए मार्ग पर चलते हुए स्वयं को आदर्श के ढाँचे में ढालने का प्रयास किया। प्लेटो का आदर्श राज्य का सिद्धान्त आदर्शवादियों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत रहा है। प्लेटो का आदर्श राज्य वह मंजिल है जिस तक पहुँचना प्रत्येक राज्य के लिए वांछनीय है। यह वह आदर्श है जो मौजूदा राज्यों को अपना व्यक्तित्व ऊँचा उठाने की प्रेरणा देता है। अतः प्लेटो का आदर्श राज्य राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक अमूल्य देन है।

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