राजनीति विज्ञान / Political Science

प्लेटो की अवधारणा (Platonic Conception of Justice)- in Hindi

प्लेटो की अवधारणा (Platonic Conception of Justice)- in Hindi

प्लेटो की अवधारणा

प्लेटो की अवधारणा

प्लेटो की अवधारणा
(Platonic Conception of Justice)

प्लेटो का न्याय सम्बन्धी सिद्धान्त इस धारणा पर आधारित है कि प्रत्येक मनुष्य का अपना अलग-अलग स्वभाव होता है। मनुष्य की आत्मा में तीन गुण होते हैं- विवेक, साहस और क्षुधा । आत्मा के प्रत्येक तत्त्व का अपना स्वाभाविक कार्य है। विवेक का कार्य नियन्त्रण करना, साहस का कार्य रक्षा करना एवं क्षुधा का कार्य भौतिक वस्तुओं का संचय करना है। प्लेटो के अनुसार यदि मानव आत्मा के तीनों गुणों के आधार पर व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुकूल कार्य करे तो वह न्याय है। प्लेटो के अनुसार- “एक व्यक्ति को केवल एक ही कार्य करना चाहिए, जो उसकी प्रकृति के सर्वथा अनुकूल है।” इस प्रकार प्लेटो प्रचलित तीनों धारणाओं का खण्डन करते हुए न्याय को बाह्य वस्तु न मानकर आत्मा का गुण (Quality of the soul) मानता है। प्लेटो का कहना है- “न्याय मानव आत्मा की उचित अवस्था और मानवीय स्वभाव की प्राकृतिक माँग है।”

प्लेटो के अनुसार न्याय के दो रूप
(According to Plato two forms of justice)

प्लेटो के अनुसार न्याय के दो रूप  हैं :-

1. सामाजिक न्याय (Social Justice):

प्लेटो का कहना है कि सामाजिक रूप में न्याय तभी सम्भव है जब समाज के सभी वर्ग अपने स्वभावानुकूल कार्यों को पूरा करते हैं और परस्पर सामंजस्य तथा एकता बनाए रखते हैं। प्लेटो राज्य में दार्शनिक वर्ग में विवेक, सैनिक वर्ग में साहस तथा उत्पादक वर्ग में क्षुधा या तृष्णा तत्त्वों की प्रधानता स्वीकारता है। न्याय का सम्बन्ध तो समूचे राज्य से होता है। प्रत्येक वर्ग अपने अपने कर्तव्यों का उचित दिशा में निर्वहन करके न्याय की स्थापना कर सकता है। प्लेटो का कहना है कि राज्य के तीनों – दार्शनिक शासक को, सैनिक वर्ग तथा उत्पादक वर्ग द्वारा अपने-अपने कार्यों का समुचित निर्वाह और पालन करना ही सामाजिक न्याय है। प्लेटो की न्याय सम्बन्धी धारणा विशिष्टीकरण के सिद्धान्त पर आधारित है। प्रत्येक व्यक्ति को केवल एक ही ऐसा कार्य करना चाहिए जो उसके स्वभाव के अनुकूल हो। प्लेटो के न्याय सिद्धान्त के बारे में बार्कर का कहना है– “न्याय का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उस कर्त्तव्य का पालन, जो उसके प्राकृतिक गुणों एवं सामाजिक स्थिति के अनुकूल है।

नागरिक की स्वधर्म चेतना तथा सार्वजनिक जीवन में उसकी अभिव्यंजना ही राज्य का न्याय है।” कवायर के अनुसार “प्रत्येक व्यक्ति को उसके अनुकूल भूमिका और कार्य देना ही न्याय है।” प्लेटो के अनुसार सच्चे न्याय के लिए समाज के सभी वर्गों में एकता व सामंजस्य बनाए रखना आवश्यक होता है। सेबाइन के अनुसार- “न्याय समाज की एकता का शत्रु है; यह उन व्यक्तियों के परस्पर तालमेल का नाम है, जिनमें से प्रत्येक ने अपनी प्रकृति और शिक्षा-दीक्षा के अनुसार अपने कर्तव्य को चुन लिया है और उसका पालन करता है। यह व्यक्तिगत धर्म भी है और सामाजिक धर्म भी, क्योंकि इसके द्वारा इसके राज्य तथा घटकों का परम कल्याण की प्राप्ति होती है।” अतएव वही राज्य न्यायी होता है जहाँ दार्शनिक राजा शासन करता है, सैनिक रक्षा करता है और उत्पादक उत्पादन करता है। ये तीनों वर्ग अपने-अपने कार्य क्षेत्र में विशिष्टता प्राप्त करते हैं, एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप किए बिना परस्पर सामंजस्य बनाए रखते हैं।

2. व्यक्तिगत न्याय (Individual Justice) :

प्लेटो व्यक्तिगत न्याय के बारे में भी वही आधार अपनाता है, जो सामाजिक न्याय के बारे में अपनाता है। प्लेटो का कहना है कि जब व्यक्ति की आत्मा के साहस और क्षुधा तत्त्व विवेक के नियन्त्रण व अनुशासन में कार्य करते हैं तो व्यक्तिगत न्याय की प्राप्ति होती है। प्लेटो के अनुसार राज्य व्यक्ति का ही विस्त त रूप है। प्लेटो का कहना है कि- “राज्य की उत्पत्ति वृक्षों और चट्टानों से नहीं, बल्कि उसमें निवास करने वाले व्यक्तियों के चरित्र से होती है।” जिस प्रकार सामाजिक न्याय में तीनों वर्ग अपने-अपने कार्यक्षेत्र में रहते हैं, उसी प्रकार व्यक्तिगत न्याय में भी आत्मा के तीनों तत्त्व अपने ही क्षेत्रों में सीमित रहते हैं। आत्मा के तीनों तत्त्वों में सहयोग, एकता, सामंजस्य एवं संतुलन पाया जाता है। वैयक्तिक न्याय ही वह गुण है जो व्यक्ति को सामाजिक बनाता है। अतः वैयक्तिक न्याय के बिना सामाजिक न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती।

प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की विशेषताएँ
(Features of Platonic Concept of Justice)

प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं :-

1. विशिष्टीकरण का सिद्धान्त (A Theory of Specialization) : प्लेटो का मानना है कि मनुष्य की आत्मा के प्रत्येक तत्त्व का अपना विशिष्ट कार्य होता है। विवेक का कार्य नेतृत्व करना, साहस का कार्य रक्षा करना और क्षुधा का कार्य उत्पादन करना है। विवेक, साहस और क्षुधा तत्त्व दार्शनिक वर्ग, सैनिक वर्ग और उत्पादक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं अर्थात् समाज का वह वर्ग जिसमें विवेक तत्त्व की प्रधानता होती है, शासन करने के योग्य है। साहस प्रधान वर्ग युद्ध तथा क्षुधा प्रधान वर्ग उत्पादन करने के योग्य होता है। चूंकि प्रत्येक वर्ग का अपना-अपना विशिष्ट कार्य होता है, एतएव अपनी-अपनी प्राकृतिक योग्यतानुसार ही कार्य करना न्याय है।

2. अहस्तक्षेप का सिद्धान्त (A Theory of Non-Interference) : प्लेटो का मानना है कि आत्मा के तीनों तत्त्वों या तीनों वर्गों का अपना-अपना कार्यक्षेत्र होता है। उनके लिए यह उचित है कि वे एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप न करें। दार्शनिक शासक को सैनिक वर्ग व उत्पादक वर्ग के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उसी प्रकार उत्पादक वर्ग को सैनिक व दार्शनिक वर्ग के कार्यों में तथा सैनिक वर्ग को दार्शनिक तथा उत्पादक वर्ग कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, यही बात आत्मा के तत्त्वों पर लागू होती है। एतएव अपने अपने कार्यों को निर्बाध रूप से करना और दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप न करना ही न्याय है। यदि व्यक्तियों या तीनों वर्गों या तत्त्वों द्वारा एक-दूसरे के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप किया जाएगा तो संघर्ष और विनाश की ही उत्पत्ति होगी।

3. सामंजस्य तथा एकता का सिद्धान्त (Theory of Harmony and Unity) : प्लेटो अपने न्याय के सिद्धान्त द्वारा राज्य के तीनों वर्गों व आत्मा के तीनों तत्त्वों में सामंजस्य ओर एकता बनाए रखना चाहता है। प्लेटो के अनुसार कार्य विशिष्टीकरण और अहस्तक्षेप की नीति के द्वारा आत्मा का प्रत्येक तत्त्व व राज्य का प्रत्येक वर्ग अपने को संयमित रखता है एवं अपने से श्रेष्ठ तत्त्व की अधीनता स्वीकार करके स्वेच्छा से सामंजस्य एवं एकता स्थापित करता है। प्लेटो का न्याय सिद्धान्त समरसता का सिद्धान्त है, एकता व सहयोग का सिद्धान्त है, प्रेम और शान्ति का सिद्धान्त है। यह न्यायनिष्ठ समाज की स्थापना का सूचक है।

4. न्याय सिद्धान्त रचनात्मक सिद्धान्त है (Justice Theory is Architectonic) : प्लेटो न्याय की आधारशिला पर राज्यरूपी सुन्दर भवन का निर्माण करता है जहाँ व्यक्ति और वर्ग एक-दूसरे के साथ ऐसे एकता के सूत्र में बंधे रहते हैं कि प्रत्येक सम्पूर्ण का निर्माण करते हुए अपने वास्तविक सौन्दर्य को भी परिलक्षित करता है। न्याय राज्य के तीनों निर्माणकारी तत्त्वों में घनिष्ठ सम्बन्ध पैदा करता है। प्लेटो का न्याय भवन निर्माण कला से मिलता-जुलता है। जिस प्रकार एक भवन निर्माण विशेषज्ञ अपने अधीनस्थ कारीगरों को अंकुश में रखता है, उसी प्रकार न्याय मनुष्य की विभिन्न आकांक्षाओं को नियन्त्रित कर तुम्हें अनेक कार्य करने से रोकता है एवं उस कार्य की ओर प्रेरित करता है जिसे करने की उसमें स्वाभाविक क्षमता होती है। इस प्रकार न्याय का सिद्धान्त एक रचनात्मक कार्यक्रम पेश करता है।

5. स्त्रियों को समान अधिकार : प्लेटो अपने न्याय सिद्धान्त में स्त्रियों और पुरुषों को समान मानकर स्त्रियों को सार्वजनिक क्षेत्र में बराबर अधिकर प्रदान करता है। प्लेटो का विश्वास है कि स्त्रियाँ राजनीतिक व सैनिक कार्यों में भाग ले सकती हैं।

6. न्याय के दो प्रकार (Two Types of Justice) : प्लेटो न्याय को दो भागों – वैयक्तिक न्याय तथा सामाजिक न्याय में बाँटता है। मूलतः न्याय का निवास स्थान आत्मा में होता है। प्लेटो राज्य को व्यक्ति का वृहत् रूप मानता है। प्लेटो न्याय का निवास राज्य में भी मानता है क्योंकि राज्य आत्मा के तीनों तत्त्वों व तीनों वर्गों का संयोग है। इसलिए प्लेटो इसे सामाजिक न्याय कहता है। वैयक्तिक न्याय द्वारा आत्मा की तीनों प्रवृत्तियों में सामंजस्य पैदा होता है तथा व्यक्ति में एकता स्थापित होती है। वैयक्तिक न्याय में आत्मा के तीनों तत्त्व अपना-अपना कार्य करते हुए परस्पर तालमेल बनाए रखते हैं। इस तरह वैयक्तिक न्याय का भी आधार वही है, जो सामाजिक न्याय है। अतः दोनों न्यायों में आधारभूत समानता है।

7. व्यक्तिवाद का विरोधी (Theory Against Individualism) : प्लेटो का मानना है कि समाज या राज्य से अलग व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। व्यक्ति और राज्य दोनों का लक्ष्य एक श्रेष्ठ जीवन का विकास करना है। राज्य के अंग के रूप में अपनी प्राकृतिक क्षमता तथा प्रशिक्षण के आधार पर निर्धारित क्षेत्र में अधिक से अधिक श्रेष्ठता प्राप्त करके ही व्यक्ति अपने जीवन का समुचित विकास कर सकता है। प्लेटो ने अपने इस सिद्धान्त द्वारा सोफिस्टों की व्यक्तिवादी विचारधारा को यूनानी नगर राज्यों के लिए सबसे बड़ा अभिशाप माना है। प्लेटो का उद्देश्य संकीर्ण स्वार्थों से व्यक्ति को निकालकर स्वयं तथा राज्य के कल्याण का मार्ग दिखाना है। इस प्रकार व्यक्ति एक व्यवस्था का अंग है और उसका उद्देश्य एकाकी आत्मा के सुखों की सिद्धि नहीं बल्कि व्यवस्था में एक नियत स्थान की पूर्ति करना है।

8. न्याय सिद्धान्त के सहायक एवं अनिवार्य साधन (Means of Justice) : प्लेटो ने अपने न्याय के सिद्धान्त को अमली जामा पहनाने के लिए दो साधनों की व्यवस्था की है। उनमें से पहला शिक्षा का सकारात्मक तरीका है तथा दूसर साम्यवाद नकारातमक तरीका है। प्लेटो का विचार है कि अन्याय का आधार अज्ञान होता है। अज्ञान एक मानसिक रोग होता है और उसकी एकमात्र उपचार या औषधि उचित शिक्षा है। प्लेटो अपने न्याय के सिद्धान्त में शिक्षा द्वारा अज्ञानता रूपी रोग का ईलाज करना चाहता है। साम्यवादी व्यवस्था शासक व सैनिक वर्ग को पथभ्रष्ट होने से रोकने का नकारात्मक तरीका है। ये दोनों तरीके राज्य से अज्ञान को हटा सकते हैं।

9. दार्शनिक शासक (Philosopher King) : न्याय की प्राप्ति के लिए राज्य के शासन की बागडोर एक विवेकी, निस्वार्थी और कर्तव्यपरायण व्यक्ति के हाथ में होनी चाहिए। प्लेटो ने ऐसे सद्गुणी व्यक्ति को दार्शनिक शासक का नाम दिया है। प्लेटो का दार्शनिक शासक विवेक की साक्षात् प्रतिमूर्ति होता है। वह कानून से ऊपर है। उसका प्रमुख कर्त्तव्य सैनिक व उत्पादक वर्ग पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित करना है। दार्शनिक शासक ही समाज के तीनों वर्गों में सामंजस्य एवं सन्तुलन स्थापित करता है। राज्य को आंगिक एकता प्रदान करता है। प्लेटो का दावा है कि शासक वर्ग न तो स्वेच्छाचारी हो सकता है और न ही अत्याचारी, ग्रात्सियान्सकी के अनुसार- “प्लेटो की न्याय व्यवस्था में राज्य दार्शनिकों के लिए न होकर दार्शनिक राज्य के लिए होते हैं।” प्लेटो का दार्शनिक शासक सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति है।

10. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण (Psychological Angle) : प्लेटो के मतानुसार जब व्यक्ति अपनी मूल प्रवृत्ति के अनुसार कार्य करता है तब उसमें उसकी रुचि बढ़ती है, वह विशिष्टता प्राप्त करता है और उनमें अधिकतम कुशलता प्राप्त करता है। इससे कार्यों के विशेषीकरण के सिद्धान्त का जन्म होता है।

11. सावयवी एकता का सिद्धान्त (Theory of Organic Unity) : प्लेटो को न्याय सिद्धान्त में व्यक्ति राज्य के लिए है और राज्य के प्रति उसके कर्तव्य ही हैं अधिकार नहीं। राज्य साध्य है और व्यक्ति साधन है। प्लेटो ने कहा है- “नागरिकों के कर्तव्य भावना ही राज्य का न्याय सिद्धान्त है।” राज्य से अलग व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। प्लेटो का न्याय सिद्धान्त राज्य में एकता व सामंजस्य स्थापित करता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व राज्य के व्यक्तित्व में ही लीन हो जाता है।

12. नैतिकता का सिद्धान्त (Theory of Morality) : प्लेटो की न्याय सम्बन्धी अवधारणा को केवल वैधानिक कर्त्तव्यों पर ही आधारित नहीं किया गया है बल्कि नैतिक व सर्वव्यापी कर्तव्यों का प्रावधान है। अत: प्लेटो का सिद्धान्त नैतिकता का पोषक है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छा से अपने निर्दिष्ट कर्त्तव्यों का पालन करते हुए दूसरों के क्षेत्राधिकार में प्रवेश नहीं करता। प्लेटो बुराई का प्रतिकार भलाई से करने की बात करता है। प्लेटो का न्याय उन सभी सद्गुणों का सम्मिलित रूप है जो मनुष्य दूसरों के साथ अपने आचरण में प्रदर्शित करता है। प्लेटो स्वधर्म पालन पर जोर देता है। इस अर्थ रूप है जो मनुष्य दूसरों के साथ अपने आचरण में प्रदर्शित करता है। प्लेटो स्वधर्म पालन पर जोर देता है। इस अर्थ में प्लेटो का न्याय सिद्धान्त नैतिक और आध्यात्मिक धारणा है।

13. आदर्श राज्य का रक्षक (Protector of Ideal State) : प्लेटो ने न्याय को ऐसा गुण माना है जो राज्य में तब भी निवास करता है जब विवेक, साहस और आत्मसंयम क्षीण हो जाते हैं। प्लेटो का मन है कि न्याय की अनुपस्थिति में समाज अक्षमता, अव्यवस्था, स्वार्थपरता, फूट और कलह जैसी व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है। अतः प्लेटो का न्याय-सिद्धान्त आदर्श राज्य का रक्षक व त्राता है।

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