सिसरो के प्रमुख राजनीतिक विचार
सिसरो के राजनीतिक चिन्तन का मूल्यांकन
सिसरो के राजदर्शन की कई आधारों पर आलोचना की जाती है। आलोचकों के अनुसार सिसरो में मौलिकता का अभाव था। जहाँ उसने मिश्रित संविधानों के ऐतिहासिक चक्र का सिद्धान्त पोलीबियस से ग्रहण किया था वहाँ स्टोइकों से प्राकृतिक कानून का विचार अपना लिया। सेबाइन के अनुसार, “उसका दर्शन स्टोइक दार्शनिकों के विचारों का संकलन मात्र है, पोलीबियस के सिद्धान्तों की उसने पुनरावृत्ति की है।” आलोचकों का यह भी कहना है कि उसके विचार इतने स्पष्ट नहीं जितनी प्रभावशाली उसकी भाषा है। वह राज्य की सत्तां ‘जनता’ के हाथों में रखना चाहता है, लेकिन जनता से उसका अर्थ क्या है, स्पष्ट नहीं है। उसके कानून सम्बन्धी विचारों से ऐसा लगता है कि वह राजनीतिक चिन्तक के बजाय आध्यात्मिक चिन्तक अधिक है।
सिसरो के विचारों में भौतिकता न होते हुए भी उसका राजनीतिक चिन्तन के क्षेत्र में असाधारण महत्त्व है। यह निर्विवाद है कि यदि सिसरो नहीं होता तो प्राचीन काल के चिन्तन के कुछ अमूल्य विचारकण विस्मृत हो जाते।
सिसरो की सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन उसका प्राकृतिक कानून का सिद्धान्त है। उसकी प्राकृतिक कानून की धारणा स्टोइक विचारधारा पर निश्चित रूप से एक महत्त्वपूर्ण सुधार है। प्राकृतिक कानून की उसने न केवल सुस्पष्ट एवं युक्तिसंगत व्याख्या की है, प्रत्युत उसे एक मापदण्ड के रूप में प्रतिस्थापित किया है, ताकि विभिन्न राज्यों के कानूनों का इसके आधार पर मूल्यांकन किया जा सके। सेबाइन के अनुसार, “राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में उसकी महत्ता इस बात में है कि उसने स्टोइक के प्राकृतिक कानून के सिद्धान्त को वह रूप प्रदान किया, जिसमें वह स्वयं उसके काल से लेकर 19वीं शताब्दी तक समस्त पश्चिमी यूरोप में सार्वभौम रूप से मान्य किया गया।”
प्राकृतिक कानून से ही सम्बन्धित सिसरो की दूसरी महत्त्वपूर्ण देन है-सीमित राजसत्ता का सिद्धान्त। इस सम्बन्ध में उसने इन विचारों का प्रतिपादन किया कि सत्ता का आधार जन-हित होना चाहिए, उसका प्रयोग कानून के अनुसार किया जाना चाहिए और उसका औचित्य केवल नैतिक आधार पर ही सिद्ध किया जा सकता है। उसने इस बात पर बल दिया कि स्वयं राज्य और उसका कानून ईश्वरीय कानून, नैतिक कानून अथवा प्राकृतिक कानून के अधीन है।
मानवमात्र की प्राकृतिक समानता की उद्घोषणा करके शासन को जनता की अमानत बताकर तथा शासन में जनता को भागीदारी बनाने की सलाह देकर सिसरो ने लोकतान्त्रिक जीवन की परम्पराओं को सुदृढ़ किया है। उसके ‘न्याय’ तथा ‘प्राकृतिक कानून’ सम्बन्धी विचारों की रोम के कानून विषयक विचारों पर गहरी छाप पड़ी है। उसके विचारों ने साम्राज्यवादी युग के विधिशास्त्रियों एवं प्रारम्भिक ईसाई लेखकों को अत्यधिक प्रभावित किया है। गैटिल के अनुसार, “मध्ययुग के राजनीतिक चिन्तन पर तो उसके विचारों का प्रभाव सर्वाधिक रूप में पड़ा है। उसके सार्वभौम कानून तथा विश्व एकता की धारणाओं में समूचे मध्य युग के राजनीतिक चिन्तन के केन्द्रीभूत तत्त्व होने का यश प्राप्त किया है।” आधुनिक युग में मॉण्टेस्क्यू सिसरो के सर्वाधिक निकट है। उसके माध्यम से सिसरो के मिश्रित संविधान के सिद्धान्त ने अमेरिका के संविधान निर्माताओं को प्रभावित किया। सिसरो का मूल्यांकन करते हुए मॉन्टेस्क्यू ने लिखा है, “वह पहला रोमन था जिसने दर्शन को विद्वानों के हाथ से लेकर उसे विदेशी भाषा के बोझ से मुक्त किया है। उसने दर्शन को विवेक की भाँति जनसाधारण की मिली-जुली सम्पत्ति बना दिया।” इन सबके अतिरिक्त यूनानी राजनीतिक विचारों का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रसारक होने के नाते सिसरो का राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। सेबाइन के शब्दों में, “सिसरो का महत्त्व अपने विचारों की मौलिकता में नहीं वरन् अभिव्यंजना की शैली में है। उसकी शैली ओजपूर्ण है और उसमें धाराप्रवाह है…..।”
संक्षेप में, सिसरो का महत्त्व विशिष्ट राजनीतिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन में नहीं है, अपितु इस बात में है कि उसने यूनान के आदर्शों को रोमन विचारधारा में प्रविष्ट होने में योग दिया। उसने रोम के कानून सम्बन्धी विचारों के साथ न्याय तथा औचित्य के विचारों को मिलाकर रोमन विधिशास्त्र को विकसित करने तथा उसे पूर्णता प्रदान करने में अपना महत्त्वपूर्ण अंशदान किया है।
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