मनोवैज्ञानिक निश्चयवाद से सम्बन्धित मनोविश्लेषणात्मक
मनोवैज्ञानिक निश्चयवाद से सम्बन्धित मनोविश्लेषणात्मक व्याख्या के उल्लेख कीजिए।
मनोवैज्ञानिक निश्चयवाद से सम्बन्धित सभी अवधारणाएँ किसी न किसी रूप में के विभिन्न पक्षों तथा जन्मजात प्रेरणाओं के प्रभाव से सम्बन्धित हैं लेकिन अनेक मनोवैज्ञानिक ऐसे हैं जिन्होंने व्यक्ति के मन और आत्म के आधार पर ही सभी तरह के मानवीय व्यवहारों की विवेचना की है। इनमें फ्रायड, आल्पोर्ट, जान डीवी, मैसलो, टालमैन तथा लेविन के विचा अधिक महत्वपूर्ण हैं। इन्हीं के विचारों को हम मनो-विश्लेषणात्मक व्याख्या के नाम से जानते हैं।
फ्रायड का सिद्धान्त–
फ्रायड उन प्रमुख मनोवैज्ञानिकों में से एक हैं जिन्होंने व्यक्ति के व्यवहारों को समझने के लिए व्यक्ति के मन तथा उसकी प्रेरणाओं का विश्लेषण करना आवश्यक माना है। प्रेरणा के मनो-विश्लेषणात्मक सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए फ्रायड ने मानव-मन के उन संरचनात्मक पक्षों का उल्लेख किया जो विभिन्न मूलप्रवृत्तियों को क्रियाशील बनाते हैं। उन्होंने बताया कि मानव-मन को इसके तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है—
(अ) चेतन मन (conscious mind), (ब) अर्द्ध-चेतन मन, (sub-conscious mind) तथा (स) अचेतन मन (unconscious mind)।
चेतन मन मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो तात्कालिक दशाओं से सम्बन्धित होता है। यह किसी भी व्यवहार को करते समय व्यक्ति को जागरूक अवस्था में रखता है तथा उसे एक ऐसी तार्किक बुद्धि देता है जिससे व्यक्ति कोई भी व्यवहार करते समय उसके अच्छे-बुरे परिणाम को समझ सके। अर्द्ध-चेतन मन वह पक्ष है जिससे सम्बन्धित विचार और इच्छाएँ व्यक्ति के व्यवहारों को प्रभावित तो करती है लेकिन व्यक्ति को उनकी जानकारी तत्काल नहीं होती। इसके बाद कुछ प्रयत्न करने पर व्यक्ति अपने अर्द्ध-चेतन मन में स्थित विचारों और इच्छाओं को अपनी स्मृति में ला सकता है। अचेतन मन वह भाग है जिसमें अनेक ऐसे विचार और इच्छाएँ रहती हैं जिनका सामाजिक नियमों के कारण व्यक्ति दमन कर देता है। मतिष्क के इस भाग से सम्बन्धित इच्छाएँ भी व्यक्ति के व्यवहारों को प्रभावित करती हैं लेकिन न तो व्यक्ति को इनकी कोई स्पष्ट जानकारी होती है और न ही साधारण प्रयत्न करने से इनके प्रभाव को समझा जा सकता है।
मानव मन के इन संरचनात्मक पक्षों के साथ ही मानव मन का एक गतिशील अर्थात् बदलते रहने वाला पक्ष भी होता है। फ्रायड ने इस गतिशील पक्ष को भी तीन भागों में विभाजित किया जिन्हें फ्रायड ने ‘इद्’ (Id), ‘इगो’ (Ego) तथा ‘सुपर इगो’ (Super Ego) कहा। इद् मन की वह अचेतन दशा है जो व्यक्ति को प्रत्येक स्थिति में अपनी इच्छाओं को पूरा करने और सुख प्राप्त करने की प्रेरणा देती है, चाहे उन्हें किसी भी तरह पूरा किया जाये। इद के सामने अच्छे- बुरे अथवा नैतिक या अनैतिक का कोई विचार नहीं होता। इसकी प्रकृति पाशविक प्रेरणाओं की तरह होती है। इद के प्रभाव से किये गये व्यवहार और क्रियाएँ अस्थायी रूप से व्यक्ति को सुख और सन्तुष्टि देते हैं। इसके बिल्कुल विपरीत, सुपर इगो सामाजिक चेतना से प्रभावित होता है। इसमें विवेक और नैतिकता का समावेश होता है। यह व्यक्ति को ऐसे व्यवहार करने की प्रेरणा देता है जो समाज के मूल्यों द्वारा स्वीकृत हो। एक व्यक्ति समाज में दूसरे व्यक्तियों के व्यवहारो के अनुरूप अपने व्यवहार में जितना अधिक परिवर्तन ले आता है, उसका सुपर इगो उतना ही अधिक विकसित हो जाता है। ‘इगो’ इन दोनों के बीच की दशा है जिसमें मन के अचेतन और चेतन दोनों पक्षों का समावेश होता है। इसके बाद भी मन का यह पक्ष तर्क और वास्तविकता से अधिक प्रभावित होता है। यह व्यक्ति को अपनी परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार करने का निर्देश देता है। इगो इस अर्थ में अधिक व्यावहारिक है कि यह परिस्थितियों के अनुकूल होने पर ही इद् को अपनी इच्छाएं पूरी करने की अनुमति देता है।
आल्पोर्ट के विचार-
आल्पोर्ट ने कार्यात्मक स्वतन्त्रता (functional autonomy) की अवधारणा के आधार पर यह स्पष्ट किया कि मानव व्यवहारों को प्रभावित करने में आदतों (Chabits) की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है। मनो-विश्लेषणात्मक व्याख्या के अनुसार आदतों का निर्माण एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है तथा आदतें किसी न किसी उत्प्रेरणा का परिणाम होती हैं। उत्प्रेरणाओं से निर्मित होने वाली आदतें ही व्यक्ति को एक विशेष लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता देती हैं। साथ ही व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करने में भी इनकी प्रमुख भूमिका होती है। अपनी एक विशेष आवश्यकता को पूरा करने के लिए व्यक्ति में जब कोई आदत विकसित हो जाती है तो उसकी सन्तुष्टि के लिए वह मानसिक रूप से बेचैनी अनुभव करने लगता है। इसका तात्पर्य यह है कि आरम्भ में आदतों का विकास किसी उद्देश्य को पूरा करने के एक साधन के रूप में होता है लेकिन उद्देश्य प्राप्त हो जाने के बाद भी आदतों का प्रभाव समाप्त नहीं होता। उदाहरण के लिए सभ्यता के विकास के आरम्भिक स्तर पर शिकार की आदत का उपयोग भूख मिटाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के रूप में हुआ लेकिन बाद में भूख मिटाने के दूसरे साधन विकसित हो जाने के बाद भी शिकार का प्रचलन बना रहा। इसका तात्पर्य है कि अपनी आन्तरिक और मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों के फलस्वरूप व्यक्ति में जो आदतें विकसित होती हैं, मानव व्यवहारों को प्रभावित करने में उनका प्रभाव हमेशा बना रहता है।
मैसलो के विचार-
मैसलो द्वारा प्रस्तुत विचारों को ‘आत्म-कार्यान्वयन के सिद्धान्त’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि व्यक्ति के व्यवहारों को प्रभावित करने वाली सबसे प्रमुख प्रेरणा उसकी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ हैं। आरम्भ में यह आवश्यकताएँ कम होती हैं लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती जाती है। सभी आवश्यकताओं का विकास एक निश्चित कड़ी के रूप में होता है जिसे मैसलो ने एक उद्विकासीय क्रम में स्पष्ट किया।
(1) शारीरिक आवश्यकताएँ- व्यक्ति की सबसे पहली आवश्यकता शारीरिक है जिसके द्वारा वह भूख, प्यास तथा काम आदि का अनुभव करता है। यह बुनियादी आवश्यकताएँ हैं जिनकी सन्तुष्टि का प्रयत्न वह सबसे पहले करना चाहता है।
(2) सुरक्षा की आवश्यकताएँ- शारीरिक आवश्यकता पूरी होने के बाद व्यक्ति अपने शरीर को स्वस्थ्य और सुरक्षित रखने की आवश्यकता महसूस करने लगता है। वह अनेक ऐसे व्यवहार करना आरम्भ करता है जिनसे उसकी सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकता पूरी हो सके।
(3) अपनत्व और प्रेम की आवश्यकताएँ- मैसलो के अनुसार आवश्यकताओं के विकास की कड़ी में दूसरों से अपनापन, प्रेम और स्नेह पाने की आवश्यकता का स्थान तीसरा है। जब पहली दोनों आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं, तब व्यक्ति अनेक ऐसे व्यवहार करता है जिससे उसे दूसरों से अपनत्व, प्रेम और घनिष्ठता मिल सके।
(4) सम्मान की आवश्यकता– प्रत्येक व्यक्ति अपने समूह में प्रतिष्ठा, सम्मान और ख्याति प्राप्त करना चाहता है। इस आवश्यकता का विकास तभी होता है जब इससे पहले की तीन आवश्यकताएँ काफी अंश तक पूर्ण हो जाती हैं।
(5) आत्म-कार्यान्वयन की आवश्यकता— इस आवश्यकता अथवा प्रेरणा का विकास सबसे बाद में होता है। इनका सम्बन्ध वैयक्तिक विकास, विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति तथा उन क्षमताओं के विकास से है जिनसे व्यक्ति आत्म-सन्तुष्टि की अनुभूति करता है।
उपर्युक्त क्रम के द्वारा मैसलो ने यह स्पष्ट किया कि शारीरिक आवश्यकताएँ सबसे निम्न स्तर की लेकिन बुनियादी होती हैं जबकि आत्म-कार्यान्वयन की आवश्यकताएँ मानव व्यवहारों के सबसे उच्च स्तर को स्पष्ट करती हैं। कोई व्यक्ति जैसे- जैसे मनोवैज्ञानिक रूप से विकसित होता जाता है, उसकी आवश्यकताओं की संख्या भी बढ़ती जाती हैं। यह दशा एक विशेष प्रेरणा है जो सभी मानवीय व्यवहारों को प्रभावित करने के साथ मानवीय व्यवहारों में परिवर्तन भी लाती रहती है।
टॉलमैन तथा लेविन के विचार-
इन मनोवैज्ञानिकों ने प्रेरणा का संज्ञानात्मक ‘सिद्धान्त’ प्रस्तुत करके मानव व्यवहारों की विवेचना की। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने निर्णयों और व्यवहारों का निर्धारणा व्यक्तिगत संज्ञान के आधार पर करता है। इसे स्पष्ट करने के लिए टॉलमैन तथा लेविन ने शक्ति को मानव व्यवहारों के सबसे प्रमुख स्रोत के रूप स्वीकार किया। टॉलमैन ने लिखा कि अनेक मनोवैज्ञानिक दशाएँ, जैसे व्यक्ति की आवश्यकता तथा प्रेरणाओं से उत्पन्न होने वाले उद्दीपन शक्ति का स्त्रोत होते हैं। इसी के अनुसार व्यक्ति अपने लक्ष्यों और व्यवहारों का निर्धारण करता है। इसी बात को दूसरी तरह से स्पष्ट करते लेविन ने बतलाया कि विभिन्न आवश्यकताओं के कारण मनुष्य की जीव-रचना में उत्पन्न होने वाले तनाव शक्ति का वास्तविक स्त्रोत होते हैं। इनमें मानसिक तनाव सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। व्यक्ति में जब कोई तनाव पैदा होता है, तभी वह कुछ ऐसे व्यवहार करता है जिनकी सहायता से वह एक विशेष लक्ष्य को निर्धारित करके उसे प्राप्त कर सके। इन्हीं व्यवहारों से उसके नीया और उत्तेजना का समाधान होता है। व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले प्रत्येक व्यवहार के लिए एक विशेष शक्ति अथवा ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा उन उद्दीपनों से ही उत्पन्न होत है जिनका सम्बन्ध कुछ विशेष चालकों से होता है।
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