मनोवैज्ञानिक निश्चयवाद की व्यवहारवादी
मनोवैज्ञानिक निश्चयवाद की व्यवहारवादी व्याख्या का उल्लेख कीजिए।
मनोविज्ञान की वह शाखा जो सभी तरह के मानव व्यवहारों की विवेचना एक विशेष शारीरिक और मानसिक आवश्यकता की पूर्ति के आधार पर करती है, उसे हम व्यवहारवाद व्याख्या कहते हैं। इसकी विवेचना विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अलग-अलग प्रकार से की है। इसके बाद भी इस सम्बन्ध में पावलोव, शेरिंग्टन, मैगनस तथा वुडवर्थ के विचार अधिक महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने यह माना कि मनुष्य कुछ विशेष प्रेरणाओं के प्रभाव से ही विभिन्न प्रकार के व्यवहार करता है। प्रत्येक व्यक्ति की कुछ ऐसी शारीरिक और मानसिक आवश्यकताएँ होती हैं जिनें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य एक विशेष परिस्थिति में एक विशेष तरह का व्यवहार करने लगता है। इन्हीं व्यवहारों को बार बार दोहराने से उसकी आदतों का निर्माण होता है। इस व्यवहारवादी व्याख्या को शेरिंग्टन ने भोजन की उत्प्रेरणा (food stimuli) के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया।
भोजन केवल एक-
शारीरिक आवश्यकता ही नहीं है बल्कि इसी के आधार पर मानव की विभिन्न मानसिक विशेषताओं तथा उसके व्यवहारों का निर्धारण होता है। व्यक्ति जब भूखा होता है तो मनोवैज्ञानिक रूप से वह एक विशेष तरह की कमजोरी, एकाकीपन और उदानसीनता अनुभव करने लगता है। भूख के प्रभाव से मस्तिष्क के कार्य करने की क्षमता कम हो जाने से व्यक्ति की तर्क-बुद्धि कमजोर पड़ने लगती है। यही वह दशा है जो मनुष्य के सभी दूसरे व्यवहारों को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए भूख की सन्तुष्टि न होने पर व्यक्ति चोरी, डकैती, हत्या या दूसरे अपराधी व्यवहार करने के लिए तैयार हो जाता है। इस दशा में वह कोई भी ऐसा काम कर सकत है जो पूरे समूह के लिए हानिकारक हो सकता है। ऐसे भी उदाहरण मिलते है जब भूख अथावा क्षुधा को शान्त करने के लिए मनुष्य बच्चों को चुराकर उन्हें खाने के लिए तैयार हो जाता है (cannibalism)। इसका तात्पर्य है कि भूख ऐसे विचार पैदा करती है जो असामान्य प्रकृति के होते हैं। यही दशा व्यक्ति में असामान्य व्यवहारों को जन्म देती है।
पावलोव ने यह स्पष्ट किया कि विभिन्न उत्प्रेरणाएँ असामान्य (abnormal) तथा रचनात्मक (creative) दोनों तरह के व्यवहारों का कारण होती है। भूख तथा यौन से सम्बन्धित उत्प्रेरणाओं की सन्तुष्टि न होने से व्यक्ति के व्यवहार आक्रामक होने के साथ अक्सर व्यवस्था विरोधी हो जाते हैं। दूसरी ओर इसके फलस्वरूप व्यक्ति व्यवहार के ऐसे नये तरीकों की भी खोज करने लगता है जिससे विभिन्न उत्प्रेरणाओं को सामाजिक ढंग से सन्तुष्ट किया जा सके। इससे समाज में नये-नये आविष्कार होते हैं। अप्रत्यक्ष रूप से मार्क्स ने भी भूख को सबसे बड़ी उत्प्रेरणा माना है जिसके फलस्वरूप समाज में क्रान्ति तक की दशाएँ उत्पन्न हो सकती हैं। मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि विभिन्न उत्प्रेरणाएँ ही किसी समाज में जन्मदर, मृत्युदर गतिशीलता, अपराध, नवाचार (Innovations), नियन्त्रण के तरीकों तथा नीतिगत विषयों जैसे व्यवहारों को प्रभावित करती है। इनके अनुसार विभिन्न समाजों में विकसित होने वाली सामाजिक संस्थाओं और विचारों का विकास भी उत्प्रेरणाओं के आधार पर ही होता है।
व्यवहारवादी व्याख्या उत्प्रेरणा (stimulies) के अतिरक्त जिस दूसरी मानसिक शक्ति से सम्बन्धित है, उसे मनोवैज्ञानिकों ने प्रेरणा (motivation) का नाम दिया। मनोवैज्ञानिक निश्चयवाद यह मानता है कि व्यक्ति का प्रत्येक जन्मजात और अर्जित व्यवहार किसी न किसी प्रेरणा का ही परिणाम होता है। प्रेरणा क्या है? इसे स्पष्ट करते हुए विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने यह स्पष्ट किया कि प्रेरणा कोई भी वह आन्तरिक शक्ति है जो एक विशेष व्यवहार के लिए व्यक्ति को प्रेरित करती है तथा से एक गति प्रदान करती है। उनके अनुसार प्रेरणाएँ व्यक्ति की जीवन-रचना में ही विद्यमान होती है। प्रेरणा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए जे. पी. गिलफोर्ड (J.P. Guilford) ने लिखा है, “प्रेरणा एक ऐसा आन्तरिक कारक अथवा दशा है जो किसी क्रिया को आरम्भ करने तथा उसे जारी रखने की प्रवृत्ति उत्पन्न करती है।”1 श्रीमती शैरिफ (Mr. Sherif) के अनुसार, “प्रेरणा एक मनः शारीरिक चालक शक्ति है जो व्यक्ति को अनेक जैविकीय और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ क्रियाएँ करने को प्रेरित करती है।” इन कथनों से स्पष्ट होता है कि प्रेरणा व्यक्ति को एक विशेष ढंग से व्यवहार करने की उत्तेजना ही प्रदान नहीं करती बल्कि इसका काम उन तनावों और कठिनाइयों को दूर करना भी है जो लक्ष्य प्राप्ति के रास्ते में बाधक होती हैं।
हिलगार्ड (Hilgard) ने प्रेरणा का विश्लेषण करने के लिए इससे सम्बन्धित तीन मुख्य तत्वों को स्पष्ट किया। इन्हें हम आवश्यकता (need), चालक (drive) तथा उद्दीपन (incentive) कहते हैं। इन्हीं तत्वों के सहयोग से प्रेरणाओं का निर्माण होता है। हिलगार्ड ने लिखा, “चालक मानसिक तनाव की वह दशा है जो व्यक्ति को कोई क्रिया या व्यवहार करने के लिए बेचैन करती है और आवश्यकता की पूर्ति से सम्बन्धित व्यवहार को एक विशेष दिशा प्रदान करती है। उद्दीपन बाहरी वातावरण से सम्बन्धित वह विशेषता है जो व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति करती है और इस प्रकार इससे चालक की सन्तुष्टि होती है।” स्पष्ट है कि मनुष्य की प्रत्येक आवश्यकता से एक विशेष चालक का जन्म होता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति अपने अन्दर कुछ मानसिक या शारीरिक तनाव महसूस करने लगता है। यह तनाव तभी दूर होता है जब किसी उद्दीपन के द्वारा इस आवश्यकता को पूरा कर लिया जाता है। उदाहरण के लिए व्यक्ति को जब भोजन नहीं मिल पाता, तब भूख का चालक पैदा होता है। इससे व्यक्ति शारीरिक और मानसिक तनाव महसूस करता है। यह तनाव तभी दूर होता है जब व्यक्ति को भोजन प्राप्त हो जाता है। हिलागर्ड का विचार है कि सभी मानव व्यवहारों को किसी न किसी आवश्यकता, उससे उत्पन्न होने वाले चालक तथा कुछ उद्दीपनों के आधार पर ही समझा जा सकता है।
मनोवैज्ञानिकों ने मानव व्यवहारों को प्रभावित करने वाली प्रेरणाओं को अनेक भागों में विभाजित किया है। ऐसे सभी वर्गीकरणों में मैसलो (Maslow) द्वारा दिया गया वर्गीकरण अधिक महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार सभी मुख्य प्रेरणाओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।
(1) जन्मजात प्रेरणाएँ (Innate Motivations)- इनके अन्तर्गत उन उद्दीपनों को सम्मिलित किया जाता है जो किसी न किसी रूप में व्यक्ति के व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। भूख, प्यास, भय, काम तथा जीवन-रक्षा आदि इसी तरह की प्रेरणाएँ हैं।
(2) अर्जित प्रेरणाएँ ( Acquired Motivations)- इसमें वे प्रेरणाएँ आती हैं जिनका सम्बन्ध चारित्रिक और नैतिक गुणों, सम्मान पाने की भावना तथा सहयोग सम्बन्धी व्यवहारों
मनोवैज्ञानिक निश्चयवाद के अनुसार व्यक्ति के सभी व्यवहार जैविक प्रेरणाओं तथा अर्जित प्रेरणाओं से ही प्रभावित होते हैं। जन्मजात अथवा जैविक प्रेरणाएँ वे हैं जो व्यक्ति को जीवित रखने के लिए आवश्यक होती हैं तथा इन्हें पूरा किये बिना मानव समाज का अस्तित्व नहीं हो पाता। उदाहरण क्रियाओं को प्रभावित करती है। अपनी जैविकीय आवश्यकताओं को पूरा न होने की दशा में मानव के द्वारा प्राप्त नहीं करता। इसके बाद भी यह आवश्यकताएँ व्यक्ति के अधिकांश व्यवहारों और से होता है। व्यक्तित्व में क्रोध, तनाव, कुण्ठा, द्वेष, हीनता तथा चिड़चिड़ाहट जैसी प्रवृत्तियों का विकास होता है। इससे स्पष्ट होता है कि जैविकीय प्रेरणाओं का मानव जीवन में एक विशेष स्थान है तथा इन्हीं के आधार पर किसी व्यक्ति की व्यक्तित्व सम्बन्धी आवश्यकताओं को समझा जा सकता है।
अर्जित प्रेरणाएँ अथवा सामाजिक प्रेरणाएँ वे हैं जिन्हें व्यक्ति अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में प्राप्त करता है। साधारण रूप से अनेक समाजविज्ञानी अर्जित प्रेरणाओं को सामाजिक सीख का परिणाम मानते हैं लेकिन मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सामाजिक रूप से अर्जित की जाने वाली प्रेरणाएँ भी कुछ मानसिक दशाओं का परिणाम होती हैं। सामाजिक प्रेरणाएँ दो प्रकार की होती हैं-सामान्य सामाजिक प्रेरणाएँ तथा वैयक्तिक सामाजिक प्रेरणाएँ। सामान्य सामाजिक प्रेरणाएँ व्यक्ति को उन व्यवहारों के लिए प्रेरित करती हैं जिनसे व्यक्ति में पारस्परिक सहयोग, समायोजन और दूसरों के हित की भावना को बल मिल सके। एडलर ने लिखा है कि सामान्य सामाजिक प्रेरणाओं का आधार व्यक्ति में आत्म-प्रदर्शन की भावना का होना है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरो की निगाह में अपने आपको अच्छा और श्रेष्ठ दिखाने का प्रयत्न करता है। इसी प्रेरणा के फलस्वरूप वह दूसरों को सहयोग देता है अथवा दूसरो के हित के लिए काम करता है। जब इस प्रेरणा की सन्तुष्टि हो जाती है, तब व्यक्ति में श्रेष्ठता की भावना विकसित होने लगती है। इसका तात्पर्य है कि प्रशंसा और निन्दा जैसी दशाएँ सामाजिक प्रेरणाओं का ही परिणाम होती है। वैयक्तिक सामाजिक प्रेरणाएँ व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व से सम्बन्धित होती है। उदाहरण के लिए वैयक्तिक इच्छाएँ, मनोवृत्तियाँ आतें तथा आकांक्षाएँ विभिन्न प्रकार की वैयक्तिक सामाजिक प्रेरणाएँ है। यह प्रेरणाएँ सभी लोगों में एक-दूसरे से कुछ भिन्न होती है, इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में कुछ भिन्नता देखने को मिलती है। वैयक्तिक प्रेरणाएँ रचनात्मक भी होती हैं और समाज विरोधी भी। इनका रूप चाहे जैसा भी हो, प्रत्येक प्रेरणा व्यक्ति को एक विशेष क्रिया करने की प्रेरणा देकर उसके व्यवहारों की प्रकृति का निर्धारण करती है। इस प्रकार व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं के आधार पर ही समझा जा सकता है।
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