समाजशास्‍त्र / Sociology

मैक्स वेबर की सत्ता की अवधारणा और इसके प्रकार | Concept of Power & its Variants

मैक्स वेबर की सत्ता की अवधारणा और इसके प्रकार

मैक्स वेबर की सत्ता की अवधारणा और इसके प्रकार

मैक्स वेबर की सत्ता की अवधारणा और इसके प्रकार

मैक्स वेबर की सत्ता की अवधारणा और इसके प्रकार | Concept of Power & its Variants- मैक्स वेबर के सामाजिक चिन्तन में सत्ता की धारणा पर्याप्त महत्वपूर्ण व मौलिक है। उनके अनुसार सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में सत्ता या अधिकार का विशेष स्थान है। उनका कहना है कि समाज में सत्ता विशेष तौर पर आर्थिक आधारों पर आधारित रहती है। यद्यपि आर्थिक कारक की सत्ता उन्हीं लोगों के हाथों में केन्द्रित रहती है जिनके पास सम्पत्ति तथा उत्पादन के साधन होते हैं। इसी सत्ता के आधार पर श्रमिक को अपनी स्वाधीनता को बेचने के लिए बाध्य कर दिया जाता है, परिणामस्वरूप पूँजीपतियों या मालिकों को श्रमिक के ऊपर एक विशेष प्रकार के अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। कुछ भी हो संक्षेप में यह भी कहा जा सकता है कि आर्थिक जीवन में पायी जाने वाली संस्थागत अर्थव्यवस्था के कुछ लोगों (विशिष्ट वर्ग) को विशेष अधिकार या सत्ता प्रदान करती है। इस प्रकार वेबर सत्ता के इसी संस्थागत विश्लेषण की ओर संकेत करते हैं।

समाज विज्ञान के अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञान कोष के अनुसार सत्ता को कई प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। सत्ता की कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार है।

बीच के अनुसार, दूसरों के कार्य निष्पादन को प्रभावित या निर्देशन करने का औचित्यपूर्ण अधिकार सत्ता है।’

हेनरी फेयोल के अनुसार, ‘सत्ता आदेश देने का अधिकार और आदेश का पालन करवाने की शक्ति है।

थियो हैमेन ने सत्ता की परिभाषा कुछ अधिक स्पष्टता के साथ की है। उनके अनुसार ‘सत्ता वह वैधानिक शक्ति है जिसके आधार पर अधीनस्थों को काम करने के लिए कहा जाता है तथा उन्हें बाध्य किया जा सकता है और आदेश के उल्लंघन पर आवश्यकतानुसार प्रबन्ध उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कर सकता है। यहाँ तक कि उनको कार्य से पृथक कर सकता है।’

सत्ता के प्रकार या भेद- वेबर आर्थिक आधार पर अधिकार या सत्ता की संस्थागत धारणा को विश्लेषित करते हैं। फिर भी वेबर महोदय सत्ता के तीन आधारभूत या मौलिक प्रारूपों में भेद करते हैं।

उनके अनुसार सत्ता के इन तीन प्रकारों या भेदों को निम्न क्रम में समझा जा सकता है।

1. वैधानिक सत्ता-

नियन्त्रण की दृष्टि से राज्य की ओर से अनेक नियम व उपनियम प्रतिपादित किये जाते हैं। इन नियम व उपनियमों को क्रियान्वित करने के लिए अनेक पदों की आवश्यकता होती है और इन विभिन्न पदों के साथ विशेष प्रकार की सत्ता जुड़ी रहती है। इस प्रकार जो भी व्यक्ति इन पदों पर नियुक्त होते हैं, उनके हाथों में उन पदों से सम्बन्धित सत्ता भी आ जाती है। उदाहरणार्थ, मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने के कारण मुख्यमंत्री के पद से सम्बन्धित सत्ता को उपयोग में लाने का अधिकारी है, चूँकि यह सत्ता उसको वैधानिक है। इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यक्ति को राज्य के नियमों-उपनियमों के अनुसार अपने पद से सम्बन्धित अधिकारों के आधार पर जो सत्ता प्राप्त होती है, वह वैधानिक या कानूनी सत्ता कहलाती है। इस प्रकार की सत्ता का क्षेत्र वैधानिक नियमों द्वारा सीमित होता है और एक व्यक्ति अपने पद के अनुरूप अपनी सत्ता का प्रयोग वहीं तक कर सकता है जहाँ तक वैधानिक नियम उसे अधिकार प्रदान करते हैं। इस प्रकार की सत्ता (वैधानिक) प्रत्येक व्यक्ति के हाथों में समान नहीं होती, वरन इसमें ऊँच-नीच का एक संस्तरण देखने को मिलता है। आधुनिक जटिल समाज में तो वैधानिक सत्ता के क्षेत्र में ऊँच-नीच का अत्यधिक विभाजन पाया जाता है। उदाहरणार्थ- मुख्यमंत्री को जो अधिकार प्राप्त हैं, वे अन्य मंत्रियों को नहीं हैं, जिलाधीश को जो अधिकार प्राप्त हैं,वे उप-जिलाधीश को नहीं हैं। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि वैधानिक आधार पर उच्च व निम्न सत्ताओं की एक लम्बी श्रृंखला देखने को मिलती है।

2. परम्परात्मक सत्ता-

इस प्रकार की सत्ता, वैधानिक या कानूनी आधार पर प्राप्त नहीं होती है, वरन उन विश्वासों, आदर्शों, परम्पराओं के अनुसार प्राप्त होती हैं जो कि एक लम्बे अर्से से समाज में चल रही होती हैं। वास्तव में इन विश्वासों, आदर्शों व परम्पराओं के अनुसार आचरण करना ही परम्परावाद कहा जाता है। समाज में प्रचलित परम्पराओं व विश्वासों पर आधारित सत्ता को वेबर ने परम्परात्मक सत्ता कहा है। उदाहरणार्थ-हिन्दू संयुक्त परिवार में सबसे बूढ़ा पुरुष सदस्य परिवार का मुखिया व सर्वेसर्वा होता है। उसे परिवार के अन्य सदस्यों की तुलना कहीं अधिक व विशेष अधिकार प्राप्त होते हैं तथा सम्पत्ति, आय-व्यय आदि मामलों में उसका में निर्णय अन्तिम होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एक लम्बे समय से ऐसा होता आ रहा है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलने के बाद भी ऐसा हो रहा है। कहने का अभिप्राय यही है कि इस प्रकार के अधिकार व्यक्ति को परम्परा के आधार पर प्राप्त होते हैं और इन परम्परागत अधिकारों के कारण व्यक्ति परम्परागत सत्ता का अधिकारी हो जाता है। परम्परागत सत्ता को किसी निश्चित सीमा में बाँधना कठिन हैं। इसके विपरीत वैधानिक सत्ता पर्याप्त निश्चित होती है। उदाहरणार्थ- मुख्यमंत्री के रूप में पदासीन व्यक्ति के अधिकार बहुत कुछ निश्चित हैं जबकि परिवार के पिता के रूप में उसके अधिकारों को निश्चित सीमा में बाँधना कठिन होता है।

3. करिश्माई या चमत्कारिक सत्ता-

श्री वेबर के अनुसार इस प्रकार की सत्ता न तो परम्परात्मक और न ही वैधानिक आधारों पर आधारित होती है, वरन कुछ करिश्मों या चमत्कारों पर आधारित होती है। वास्तव में करिश्मा या चमत्कार वह विलक्षण या अनोखी शक्ति होती है जो किसी व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों में विशेष तौर पर पायी जाती है। यह शक्ति वास्तविक, अनुमानित आन्तरिक, बाहरी आदि किसी भी रूप में हो सकती है। इस प्रकार विलक्षण, अदभुत, अनोखी या चमत्कारिक शक्ति प्राप्त व्यक्ति की करिश्माई चा चमत्कारिक सत्ता के अधिकारी होते हैं। सच तो यह है कि इस प्रकार की सत्ता को प्राप्त करने में व्यक्ति को वर्षों लग जाते हैं और पर्याप्त साधना, तप, त्याग धैर्य, प्रयास प्रचार आदि के बाद ही लोग इस प्रकार की सत्ता को प्राप्त करते हैं। और भी स्पष्ट शब्दों में यह कहा जा सकता है कि विलक्षण शक्ति प्राप्त व्यक्तियों में ही चमत्कारिक या करिश्माई सत्ता का वास होता है, परिणामस्वरूप ऐसे व्यक्तियों का सामान्य जनता द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में आदर व सम्मान में परिवर्तित हो सकती है।

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