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प्रसार शिक्षा का दर्शन क्या है? | Extension Education in Hindi

प्रसार शिक्षा का दर्शन
प्रसार शिक्षा का दर्शन

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प्रसार शिक्षा का दर्शन क्या है?

प्रसार शिक्षा का दर्शन मानव विकास पर आधारित है। ग्रामीणों को अपने पैरों पर खड़े होने की प्रेरणा प्रदान कर, उनके सर्वांगीण विकास को प्रोत्साहित करना इसका मुख्य उद्देश्य है। इसी लक्ष्य की पूर्ति के निमित्त प्रसार कार्य का प्रारम्भ हुआ। हर देश, विशेष रूप से प्रजातांत्रिक शासनबद्ध, का यही प्रयास रहता है कि उसके नागरिक समुन्नत हो। समुन्नत नागरिक सम्पन्न देश प्रगति पथ पर निरन्तर तेज गति से बढ़ते हैं। प्रसार शिक्षा का दर्शन इसी अवधारणा पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति विकसित होना चाहता है तथा अपने सर्वतोन्मुखी परिवर्द्धन में विश्वास रखता है, क्योंकि वह केवल जीना नहीं चाहता, अपितु समय के साथ अपनी उन्नति करते हुए जीना चाहता है। जीवन स्तर को ऊंचा उठाना, सुख-सुविधा के साधनों का अधिकाधिक उपभोग करना मानव-स्वभाव के स्वाभाविक अंग हैं। प्रसार शिक्षा का दर्शन इस विश्वास को बल देता है कि प्रसार कार्य के अन्तर्गत व्यक्ति को निजी समस्याओं को हल करने में सहायता प्रदान की जाये। यह सहायता विशेष रूप से नई खोजों तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी जानकारियों पर आधारित होती है तथा ग्रामीणों को उनके कार्य सम्पादन में सहायता पहुंचाती है। यह भी अवधारणा है कि हर प्रकार की शिक्षा की तरह प्रसार शिक्षा मानव-व्यवहार में परिवर्तन लाती है, जो व्यक्ति के ज्ञान, मनोवृत्ति तथा कार्यक्षमता से विशेष रूप से सम्बद्ध है।

जीवन के प्रति व्यक्ति की आस्था, उसकी मनोवृत्ति तथा उसके काम करने का ढंग उस शिक्षा पर आधारित होता है, जो उसे प्राप्त होती है। इस संदर्भ में हम (Philosophy) शब्द की परिभाषा The Random House Dictionary of the English Language से उर्द्धत करना चाहेंगे- The rational investigation of the truth and principles of being knowledge, or conduct. उपर्युक्त परिभाषा में तीन शब्दों को महत्व दिया गया है- Being अर्थात् अस्तित्व, Knowledge अर्थात् ज्ञान तथा Conduct अर्थात् आचरण या व्यवहार तथा कार्य संचालन । प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन के प्रति एक तर्कपूर्ण रवैया रखता है तथा अपने जीवन-निर्धारक तत्वों को तय करता है। यही तत्व उसके व्यवहार, मनोवृत्ति तथा कार्य सम्पादन प्रणाली को प्रभावित करते हैं। जीवन के प्रति उसके आदर्श एवं लक्ष्य, उस लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन तथा प्रणाली का निर्धारण मनुष्य की शिक्षा पर निर्भर करता है। बाल्यकाल से व्यक्ति जिस परिवेश में रहता है, जिन नैतिक आदर्शों को ग्रहण करता है, अन्य व्यक्तियों से जिस प्रकार का व्यवहार पाता है, वही परिवेश, नैतिक आदर्श एवं व्यवहार उसके स्वभाव का अंग बन जाते हैं और जीवन-दर्शन भी हिंसात्मक परिवेश में रहने वाला व्यक्ति अपने हर लक्ष्य की प्राप्ति हेतु हिंसात्मक रवैया अपनाता है क्योंकि वही उसका आदर्श है। यही आदर्श उसका जीवन-दर्शन होता है तथा कार्य सम्पादन शैली।

प्रसार शिक्षा का उद्देश्य तथा कार्यान्वयन-विधि प्रसार शिक्षा का दर्शन है। इसका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को उसकी समस्याओं के निदान में, उसकी मनोवृत्ति में परिवर्तन लाकर सहायता पहुंचाना है। इसके निमित्त उसे ज्ञान की आवश्यकता होती है, जिसकी व्यवस्था भी प्रसार कार्य के माध्यम से की जाती है। प्रसार शिक्षा का दर्शन इन बातों में विश्वास रखता है- मनोवृत्ति में परिवर्तन, मानव- ‘व्यवहार में परिवर्तन, ज्ञान में परिवर्तन तथा कार्यक्षमता एवं कार्य सम्पादन प्रणाली में परिवर्तन। चूंकि मनुष्य आगे बढ़ना चाहता है, अपनी उन्नति, सम्पन्नता एवं समृद्धि के प्रति लालायित रहता है अतः इनकी प्राप्ति हेतु आवश्यक परिवर्तनों को अपनाना पसन्द करता है। प्रसार दर्शन मनुष्य की इसी प्रवृत्ति पर आधारित है। जब मनुष्य परिवर्तन की ओर आकर्षित होता है तो उसकी मनोवृत्ति में परिवर्तन आते हैं। इस प्रकार किसी भी कार्य-पद्धति को अपनाने के लिए मनुष्य स्वतः प्रेरित होता है। प्रगति- पथ पर आगे बढ़ना परिवर्तन का स्वरूप है। प्रगति वह परिवर्तन है जो मनुष्य की इच्छाओं और लक्ष्यों के अनुरूप होती हैं । स्वतः प्रेरित व्यक्ति किसी भी प्रकार के बाध्यकरण द्वारा प्रभावित नहीं होता। ऐसा देखा गया है कि बाध्य करके लाये गये परिवर्तनों का स्वरूप स्थायी नहीं होता, ज्ञान का प्रयोग कर, मानव-व्यवहार में स्वतः प्रेरणा द्वारा जो परिवर्तन आते हैं, वे चिरस्थायी होते हैं तथा मनुष्य को आगे बढ़ाने में निरंतर सहायक होते हैं। इससे मनुष्य के सोचने-समझने के ढंग, उसकी विवेकशीलता, उसके व्यक्तित्त्व तथा जीवन-शैली में भी परिवर्तन आते हैं।

प्रसार दर्शन ग्रामीण समुदाय के विकास को लक्षित है। ग्रामीणों में आत्मविश्वास जगाकर ही उन्हें प्रगति पथ पर लाया जा सकता है। उनके पिछड़ेपन को दूर करके उनमें यह आत्म-विश्वास जगाना आवश्यक है कि वे किसी से कम नहीं हैं। जब मनुष्य निजी चेष्टाओं द्वारा वांछित परिवर्तनों या लक्ष्यो को प्राप्त करने में सफल होता है तो स्वयं पर उसका विश्वास बढ़ता है। जब हर व्यक्ति आत्म- विश्वास से परिपूर्ण होकर प्रगति पथ पर अग्रसर होता है तो पूरा समुदाय और कालांतर में पूरा राष्ट्र विकास के मार्ग पर आ खड़ा होता है। इस प्रकार स्वतः – प्रेरणा द्वारा, नई-नई जानकारियों, नूतन पद्धतियों को अपनाते हुए मनुष्य पूरे समाज के स्थायी विकास में सहायक सिद्ध होता है।

डॉ. रंजीत सिंह ने प्रसार दर्शन को निम्नलिखित विचारों पर आधारित माना है-

(i) समाज में घर आधारभूत इकाई है।

(ii) प्रजातंत्र में व्यक्ति सर्वोपरि है।

(iii) परिवार प्रथम मौलिक मानवीय समूह (समुदाय) है।

(iv) व्यवहार में परिवर्तन एक धीमा प्रक्रम (प्रक्रिया) है।

(v) प्रत्येक नए परिवर्तन का सामना प्रतिरोध से होता है।

(vi) विज्ञान तथा तकनीकी में विश्वास

(vii) सामाजिक न्याय के प्रति आस्था।

प्रसार दर्शन को इस प्रकार भी समझा जा सकता है-

मनोवृत्ति में परिवर्तनव्यवहार में परिवर्तन कार्य-निष्पादन शैली में परिवर्तन । उपर्युक्त वर्णित परिवर्तन के विभिन्न चरण स्वतः – प्रेरणा से प्रारम्भ होते हैं। उत्प्रेरित मनुष्य ही अपनी समस्याओं के निदान ढूंढ़ने का प्रयास करता है। वांछित लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहता है। जब मनुष्य स्वयं पर विश्वास करता है तो अपने विवेक का प्रयोग करता है एवं तर्कपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम होता है। इन समस्त प्रक्रियाओं में शिक्षा (विद्या या ज्ञान) महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह सर्वमान्य सत्य है कि शिक्षा के माध्यम से मात्र सूचनाएं ही प्रसारित नहीं होती, वरन् व्यक्ति के ज्ञान- स्तर, मनोवृत्ति, व्यवहार तथा कार्य-निष्पादन-शैली में भी वांछित परिवर्तन आते हैं। व्यक्ति को प्रसार दर्शन का केन्द्र-बिन्दु मानते हुए, प्रसार दर्शन की व्याख्या निम्नांकित संदर्भों में की जा सकती है-

(1) व्यक्ति सर्वोपरि संसाधन है,

(2) व्यक्ति एवं उसके परिवेश का उत्तरोत्तर विकास,

(3) स्वतः प्रेरणा एवं स्वावलम्बन,

(4) मनोवृत्ति, दृष्टिकोण, सोचने-विचारने के ढंग, आदतों का व्यवहार में परिवर्तन,

(5) स्थानीय साधनों एवं स्थानीय नेतृत्व में विश्वास,

(6) वैज्ञानिक जानकारियों तथा तकनीकी पद्धतियों के प्रति जिज्ञासा एवं विश्वास,

(7) पारस्परिक सहयोग, सद्भावना एवं जन-कल्याण में अभिरुचि,

(8) ज्ञानार्जन के निमित्त नये द्वार खोलना तथा उसे संस्थागत बंधनों से विमुक्त करना,

(9) परिवार, समुदाय, समाज जैसी सामाजिक संस्थाओं के प्रति आदर-भाव,

(10) प्रजातंत्र एवं सामाजिक न्याय में विश्वास,

(11) जन-आस्थाओं, संस्कारों तथा संस्कृति की सुरक्षा एवं उनमें समयानुकूल अपेक्षित परिवर्तन,

(12) मानव-कल्याण एवं मानव विकास के प्रति आस्थाबद्ध होने के फलस्वरूप एक अनन्त प्रक्रिया।

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