भारत में ऊर्जा संसाधनों के महत्त्व का वर्णन की कीजिए।
भारत में ऊर्जा संसाधनों का महत्त्व
देश की अर्थव्यवस्था को विकसित एवं सुदृढ़ बनाने के लिए वर्तमान में उस देश का औद्योगिक विकास आवश्यक है और औद्योगिक विकास बिना ऊर्जा अथवा शक्ति के साधनों के सम्भव नहीं हो सकते। कृषि, परिवहन, कारखाने एवं देश की रक्षा आदि के क्षेत्र में ऊर्जा के संसाधनों का अत्यधिक महत्त्व है। विभिन्न क्षेत्रों में ऊर्जा संसाधनों के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) आर्थिक विकास का आधार- ऊर्जा संसाधन आर्थिक विकास के आधार होते हैं। किसी देश के आर्थिक विकास अनुमान उस देश में शक्ति संसाधनों की प्रति व्यक्ति खपत से लगाया जाता है और माना जाता है कि जिस देश में ऊर्जा संसाधनों की खपत जितनी अधिक होगी उस देश में प्रति व्यक्ति आय भी उतनी ही अधिक होगी।
(2) कृषि क्षेत्र में महत्त्व – ऊर्जा के संसाधनों ने कृषि के क्षेत्र में भी क्रान्ति ला दी है। कृषि के क्षेत्र में विभिन्न मशीनी उपकरण जैसे पम्पसेट, ट्रेक्टर, थ्रेसर आदि ऊर्जा के संसाधनों से चलाये जाते हैं। आजकल बिजली से चलने वाले ट्यूबवेलों का उपयोग निरन्तर बड़ता जा रहा है। ऊर्जा चलित उपकरणों के कारण कृषि उत्पादन बढ़ाने में काफी मदद मिली है।
(3) औद्योगिक क्षेत्र में अनिवार्यता – विशाल मशीनों का निर्माण एवं उनका संचालन केवल शक्ति द्वारा ही सम्भव हो सकता है। वृहत कारखानों की स्थापना का श्रेय शक्ति के साधनों को ही जाता है। इस प्रकार औद्योगिक क्षेत्र में शक्ति के साधनों की अनिवार्यता है।
(4) यातायात का विकास सम्भव- परिवहन के साधन पूर्णतः ऊर्जा के साधनों पर ही निर्भर हैं। रेलवे, हवाई जहाज, पानी में चलने वाले जहाज, ट्रक, बसें, मेटाडोर सभी ऊर्जा के साधनों से चलते हैं। आज 100 एवं 120 किमी. प्रति घण्टा की चाल से चलने वाली मोटरों एवं रेलों ने स्थानों की दूरी को बहुत कम कर दिया है। यह सब शक्ति के साधनों के बल पर ही सम्भव हुआ है। वास्तव में यातायात का विकास शक्ति के साधनों पर निर्भर करता है।
(5) राष्ट्र की सुरक्षा – यह कहा जाता है कि आज के युद्ध केवल मानव शक्ति के सहारे नहीं लड़े जाते वरन् बमों, एटमबमों, शक्ति चलित अस्त्र-शस्त्रों का भी सहारा लेना पड़ता है। बम एवं एटमबम आदि सभी शक्ति पर निर्भर हैं।
भारत में ऊर्जा संसाधन
भारत में स्वतन्त्रता के गत चालीस वर्षों में ‘ऊर्जा’ की आवश्यकताएँ और उपयोग दोनों में वृद्धि हुई है। हजारों उद्योग, लाखों हैक्टेयर सिंचित भूमि, यातायात के साधन आदि के साथ ही घरों में भी ऊर्जा की खपत बहुत बढ़ी भारत में ग्रामीण ऊर्जा की और शहरी समुदायों की ऊर्जा स्थितियाँ भिन्न हैं। किन्तु भारत में ऊर्जा उत्पादन और ऊर्जा खपत, दोनों में ही परम्परागत प्रतिमान अधिक प्रखर मिलते हैं। ग्रामीण एवं जनजातीय समुदायों में तो ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत लकड़ी ही है, शहरों में मिट्टी का तेल, बिजली, रसोई गैस आदि अधिक उपयोग में आती हैं। खास घरेलू ऊर्जा खपत में उद्योगों की और यातायात की तो आवश्यकताएँ ही कोयला, विद्युत, डीजल, पेट्रोल आदि पर निर्भर करती है। भारत में इन सभी स्रोतों के विकास के प्रयास किये गये हैं। भारत में ऊर्जा के नये साधनों को बढ़ावा देने और उनमें अनुसन्धान और उनके विकास के लिये अनेक परियोजनाएँ शुरू की गई हैं। भारत ने नई राष्ट्रीय ऊर्जा नीति निर्धारित की है जिसका प्रमुख उद्देश्य यह है कि ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बनने के लिए ऊर्जा के देशी साधनों का विकास किया जाये। ऊर्जा को सुरक्षित रखा जाय और उसके दुरुपयोग को रोका जाय।
ऊर्जा संसाधनों का वितरण, स्वरूप एवं सम्भावनाएँ भारत में ऊर्जा (शक्ति) के अनेक संसाधन हैं, जैसे—मनुष्य, पशु, लकड़ी, कोयला, वायु, जल, परमाणु, खनिज तेल आदि। लेकिन अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हम यहाँ पर केवल पाँच संसाधनों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करेंगे-
(1) विद्युत ऊर्जा (2) कोयला, (3) खनिज तेल (4) परमाणु, (5) वायु एवं सूर्य
भारत का वर्तमान शक्ति संसाधनों का स्वरूप इस प्रकार है-
- जीवों से प्राप्त शक्ति-मानव एवं पशु 20.3 प्रतिशत
- लकड़ी एवं गोबर से प्राप्त शक्ति 34.6 प्रतिशत
- विद्युत, कोयला, तेल आदि से प्राप्त शक्ति 45.1 प्रतिशत ।
भारत में ऊर्जा के प्रमुख स्रोतों के वितरण एवं सम्भावनाओं का विवेचन इस प्रकार है-
(1) विद्युत ऊर्जा– भारत में बिजली उत्पादन 1900 से प्रारम्भ हुआ है जबकि कर्नाटक राज्य में शिवम् समुद्रम नामक स्थान पर पहला पन-बिजलीघर बनाया गया था। इसके बाद स्थान स्थान पर पन-बिजली व कोयले के बिजलीघर बनाये गये। लेकिन यह सभी शहरी क्षेत्रों तक सीमित थे। 1947 में उत्पादन क्षमता 19 लाख किलोवाट थी। पंचवर्षीय योजनाओं में विद्युत उत्पादन क्षमता एवं वास्तविक उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में देश में 1300 मेगावाट विद्युत का उत्पादन हुआ जो वर्ष 2000 के अन्त तक 1,13,000 मेगावाट को पार कर गया है और नौंवी योजना के लिए 40,245 मेगावाट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
भारत में विद्युत का प्रति व्यक्ति उत्पादन 157 किलोवाट वार्षिक है जो कि अन्य विकसित देशों की तुलना में काफी कम है-जैसे अमेरिका में प्रति व्यक्ति वार्षिक उत्पादन 7,998 किलोवाट, ब्रिटेन में 4,462 किलोवाट व जापान में 3,476 किलोवाट है।
भारत में जल विद्युत तथा ताप विद्युत ऊर्जा प्राप्त होती है। आजकल हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर, कर्नाटक, केरल व मेघालय मुख्य रूप से जल विद्युत पर निर्भर है जबकि आन्ध्र, असम, हरियाणा, म.प्र., महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु व उत्तर प्रदेश को जल विद्युत व कोयला से उत्पादित विद्युत दोनों पर निर्भर रहना पड़ता है।
(2) कोयला–कोयला हमारे ऊर्जा के साधनों की रीढ़ की हड्डी माना जाता है। भारत में विद्युत की आवश्यकताएँ काफी सीमा तक कोयले के इस्तेमाल से विद्युत तैयार करके ही पूरी की जा रही है। भारत में कई वर्षों तक कोयले का उत्पादन 10 करोड़ टन प्रतिवर्ष तक स्थिर बने रहने के बाद 1980-81 में कोयले का कुल उत्पादन 11.4 करोड़ टन था जो बढ़कर 1999-2000 में लगभग 299.77 मिलियन टन हो गया।
भारत की औद्योगिक नीति कोयले का उत्पादन बढ़ाने की है। नवीन सर्वेक्षणों के अनुसार कोयले के और भी कई भण्डार खोज निकाले गये हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में कोयले का उत्पादन मुख्य रूप से कोल इण्डिया लिए अपनी सहायक कम्पनियों के माध्यम से करता है। कोल इण्डिया लि. की स्थापना 1975 में नियंत्रक कम्पनी के रूप में हुई थी। कोकिंग कोयले की सफाई के लिये देश में 17 कारखाने हैं। कोयले उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद खनन और श्रमिक कल्याण में तेजी आई है। कोयले उत्पादन की दृष्टि से भारत आत्मनिर्भर ही नहीं है वरन् इसका निर्यात भी करता है।
(3) खनिज तेल (पेट्रोलियम) – भारत खनिज तेल उत्पादन के क्षेत्र में विकास की ओर बढ़ रहा है। भारत में तेल की खोज का काम 1886 में शुरू हुआ। प्रारम्भिक तेल कुँओं की खुदाई ऊपरी असम विभिन्न स्थानों में की गई, जिनमें अलग-अलग मात्रा में सफलता मिली। 14 अगस्त, 1956 को तेल और प्राकृतिक गैस आयोग तथा 15 अक्टूबर, 1981 को आयल इण्डिया लिमिटेड की स्थापना के बाद देश में तेल की खोज का काम नियोजित व समन्वित ढंग से होने लगा है। 1960 में गुजरात में अंकलेश्वर में तेरा मिला, जो कि आयोग की पहली सफलता थी। इसके बाद 1961 में गुजरात में अलील उसी वर्ष असम में रुद्र सागर में और 1962 में तेल का पता चला है।
गुजरात में 1970 में तेल और प्राकृतिक गैस आयोग ने समुद्र में तेल की खुदाई आरम्भ की। सबसे पहले खम्भात की खाड़ी में अलियावेत के पास तट के समीप तेल मिला। उसके बाद सागर सम्राट से खुदाई की है बम्बई में हाई में भी तेल की खुदाई की गई इन सबका परिणाम यह हुआ कि भारत में खनिज तेल उत्पादन बढ़ा है। 1950-51 में भारत में तेल का उत्पादन केवल 2.5 लाख टन था और खपत 3.4 लाख टन थी जबकि 1981-85 में उत्पादन 2.90 करोड़ टन हुआ और खपत लगभग 3.88 करोड़ टन। 1988-89 में 320 लाख टन और 1990-91 में 480 लाख टन तेल का उत्पादन हुआ। आठवीं योजना में कुल 2.15 करोड़ टन तेल उत्पादन का लक्ष्य रखा गया। सातवीं योजना में ऊर्जा उत्पादन के लक्ष्य प्राप्त कर लेने के बावजूद 30% तेल का आयात करना पड़ा। सन् 1999-2000 में कुल तेल उत्पादन 31.95 मिलियन टन हो गया। सरकारी सूत्रों के अनुसार पैट्रोलियम उत्पादन की माँग सन् 2001 में 10 करोड़ 2 लाख टन माँग है तथा वर्ष 2006-07 तक 12 करोड़ 50 लाख टन हो जाने का अनुमान लगाया गया है।
भारत एवं अन्य के सहयोग से तेल सम्बन्धी सर्वेक्षण के द्वारा 11 और नये तेल क्षेत्रों की जानकारी मिली है जिससे खनिज तेल और प्राकृतिक गैस पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सकेंगे। इनका प्रयोग ऊर्जा स्रोतों के रूप में होगा जिससे अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ पैट्रोलियम पदार्थों का विदेशों से आयात बहुत कम हो जायेगा।
(4) परमाणु शक्ति– परमाणु शक्ति आधुनिक युग में कम ईंधन से बहुत अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने की शक्ति स्रोत है। हमारे देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् अणु शक्ति विकास की शुरुआत 15 अप्रैल, 1948 से हुई जबकि अणुशक्ति अधिनियम पारित हुआ तथा 10 अगस्त, 1948 को अणुशक्ति आयोग की स्थापना की गई। 1954 में केन्द्रीय सरकार ने परमाणु ऊर्जा विभाग स्थापित किया। 1954 में बाम्बे में परमाणु ऊर्जा संस्थान की स्थापना की गई जिसका नाम बदलकर भाभा परमाणु अनुसन्धान केन्द्र कर दिया गया। इस समय इस केन्द्र में 2000 वैज्ञानिक एवं इंजीनियर तथा 8000 कर्मचारी कार्य कर रहे हैं। इस केन्द्र में चार अनुसन्धान रियेक्टर हैं-
(i) अप्सरा, (ii) साइरस, (iii) जरलीना व (iv) पूर्णिया।
आज भारत में पाँच परमाणु विद्युत केन्द्र कार्य कर रहे हैं जिनका ब्यौरा निम्न हैं—
(i) तारापुर केन्द्र – यह अमेरिका के सहयोग से निर्मित भारत का प्रथम परमाणु विद्युत केन्द्र है। इसकी स्थापना बम्बई से 105 किलोमीटर उत्तर की ओर अरब सागर के तट पर बसे तारापुर गाँव में की गई है। इसकी उत्पादन क्षमता 400 मेगावाट है। इसमें 1969 से विद्युत शक्ति का उत्पादन होने लगा है।
(ii) राणा प्रताप सागर परमाणु केन्द्र- चम्बल नदी पर राणा प्रताप सागर बाँध के पास रावतभाटा नामक स्थान पर कनाडा के सहयोग से यह परमाणु केन्द्र बनाया गया है। इस केन्द्र में दो-दो लाख किलोवाट के दो रियेक्टर यूनिट हैं।
(iii) कलपक्कम परमाणु शक्ति केन्द्र- यह देश का तीसरा परमाणु विद्युत केन्द्र हैं जो मद्रास से 60 किमी. दूर कलपक्कम नामक स्थान पर बनाया गया है। इसमें दो रियेक्टर हैं जिनकी क्षमता 235-235 मेगावाट है। इसकी दोनों इकाइयों ने कार्य करना प्रारम्भ कर दिया है। इसकी क्षमता 220 मेगावाट है।
(iv) नरोरा परमाणु शक्ति केन्द्र- गंगा नदी के बायें किनारे नरोरा नामक स्थान पर इस परमाणु शक्ति केन्द्र की स्थापना की गई है। यह केन्द्र स्वदेशी तकनीक पर आधारित है। इसमें भी दो रियेक्टर हैं जिनमें जिसमें से प्रत्येक की क्षमता 235 मेगावाट है। इनमें से एक ने मार्च, 1989 से विद्युत उत्पादन प्रारम्भ कर दिया है।
(v) काकड़ापांरा परमाणु ऊर्जा केन्द्र- यह भारत का पाँचवा परमाणु केन्द्र है। जिसकी स्थापना का कार्य चल रहा है। यहाँ पर दो विद्युत उत्पादन इकाइयाँ स्थापित की जायेंगी। इसमें से एक ने 3 सितम्बर, 1992 से विद्युत उत्पादन प्रारम्भ कर दिया है।
(5) वायु तथा सूर्य शक्ति– वायु तथा सूर्य को भी शक्ति के रूप में काम लाया जा सकता है।
वायु या पवन शक्ति- यह शक्ति परम्परागत किन्तु आधुनिक युग का सम्भावित ऊर्जा स्रोत है। वैज्ञानिक विश्लेषण के अनुसार वायु की गति 13-17 किमी. प्रति घण्टा होने पर प्रतिवर्ष 10 से 11 मेगावाट विद्युत उत्पादन सम्भव है। कुछ देश जैसे-कैलीफोर्निया, सैनफ्रांसिस्को, ब्रिटेन, आयरलैण्ड आदि में पवन चक्कियाँ स्थापित की गई हैं।
भारत में भी पवन ऊर्जा के विकास की पर्याप्त सम्भावना है एवं इसमें विकास का प्रयास भी किया जा रहा है। भारत में पवन ऊर्जा के उपयोग पर संगठित अनुसन्धान कार्य सन् 1952 में प्रारम्भ किया गया। इसकी प्रारम्भिक संरचना अत्यन्त जटिल होने के साथ-साथ छोटे किसानों की पहुँच से बाहर थी। बाद में डच संस्था ‘टूल’ ने भारतीय संस्थान ‘ऑरगेनाइजेशन ऑफ द रूरल पुअर’ के सहयोग से पवन चक्की का निर्माण स्थानीय उपलब्ध सामग्री से परियोजना के कारखाने कुसुम्हीकला (गाजीपुर 3.5) में किया गया। यह पवन चक्की मूल रूप से कम वायु वेग (9 किमी. प्रति घण्टा) के क्षेत्रों के लिये सर्वथा उपयुक्त है।
भारत में पवन प्रवाह को देखते हुए यह अनुमान लगाया गया है कि यहाँ लगभग 20,000 मेगावाट तक बिजली पवन ऊर्जा से प्राप्त की जा सकती है। भारत में अभी तक 2000 से पवन चक्कियाँ लगाई जा चुकी हैं, जिनसे खेतों की सिंचाई एवं पीने के पानी के लिये पानी प्राप्त होता है। गुजरात, तमिलनाडु, उड़ीसा एवं महाराष्ट्र में छः मेगावाट क्षमता वाली छः पवन योजनाएँ कार्य कर रही हैं, जिनसे लगभग 5,00,000 यूनिट बिजली का उत्पादन किया जा रहा है और अब तक दो करोड़ यूनिट से भी अधिक बिजली उत्पन्न की जा चुकी है। आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश एवं गोवा में 900 किलोवाट के औसतन आकार वाले यूनिटों पर आधारित दो मेगावाट पूर्णक्षमता वाली परियोजनाएँ प्रारम्भ की जा चुकी हैं।
सौर ऊर्जा- देश में ऊर्जा की असीमित सम्भावनाएँ हैं। इस दिशा में विभिन्न प्रयोग शालाओं में कार्य हो रहा है। सौर ऊर्जा के उपयोग का सरल एवं साधारण उपाय इसे सौर ताप ऊर्जा में परिवर्तित करना है। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में इसका व्यावसायिक स्तर पर उपयोग किया जा रहा है, खासकर ऐसे क्षेत्रों में बड़ी संख्या में इसका व्यावसायिक स्तर पर उपयोग किया जा रहा है, खासकर ऐसे क्षेत्रों में जहाँ निम्न दर्जे की ताप ऊर्जा की आवश्यकता है। इनमें खाना पकाना, पानी गर्म करना, खारे पानी को साफ करना, स्थान गरम करना, फसल सुखाना आदि शामिल हैं। घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए सौर ऊर्जा पर आधारित पानी गरम करने की प्रणाली, पानी के खारेपन को दूर करने की प्रणाली, वातानुकूल आदि कार्यों के लिये 1.23 लाख वर्ग मीटर ऊर्जा संग्रहण क्षेत्र में लगी सौर प्रणालियों और उपकरणों से वर्ष भर में 350 लाख किलोवाट बचाने या पैदा करने में मदद मिली।
विभाग ने हरियाणा में गवाल पहाड़ी में 50 किलोवाट के सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना की है जिससे बिजली बनती है और फल, हरी सब्जियाँ और दूध के संरक्षण आदि के लिये बनाये गये 10 टन की क्षमता वाले कोल्ड स्टोरेज को ऊर्जा प्राप्त होती है।
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