लैंगिक अध्ययन को परिभाषित करते हुये सामाजिक लिंग के विभिन्न आयामों की विवेचना कीजिए ।
लैंगिक अध्ययन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Gender Studies)
लैंगिक अध्ययन एक ऐसा विषय है जिसमें लिंग आधारित पहचान व विश्लेषण की केन्द्रीय श्रेणियों के रूप में लैंगिक प्रतिनिधित्व का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत स्त्री अध्ययन, पुरुष अध्ययन तथा LGBT अध्ययन आते हैं। इस प्रकार यह एक अन्तर्वैषयिक अध्ययन है जिसमें सेक्स आधारित दृष्टिकोण भी निहित रहता है।
लैंगिक अध्ययन को परिभाषित करते हुये अन्न ओकले ने लिखा है- ” सेक्स का अर्थ पुरुषों एवं महिलाओं का जैविकीय विभाजन है जबकि जेन्डर का अर्थ स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व के रूप में समानान्तर और सामाजिक रूप में असमान विभाजन है। अत: जेन्डर की अवधारणा महिलाओं और पुरुषों के मध्य सामाजिक रूप से निर्मित भिन्नता के पहलुओं पर ध्यान आकर्षित करती है। “
अमेरिकन विचारक और जेन्डर सिद्धान्तकार जूडिथ बटलर के अनुसार, “जेन्डर का सम्बन्ध समाज द्वारा स्वीकृत क्रियात्मक उपलब्धियों से है या यह कहें कि यह ऐसी शैली है जो समाज द्वारा निर्धारित संकेतों, आन्दोलनों व अधिनियमों के गठन के तरीके के रूप में देखी जा सकती है।”
फेमिनिस्ट विद्वानों के अनुसार, “लिंग को स्त्री-पुरुष विभेद के सामाजिक संगठन अथवा स्त्री-पुरुष के मध्य असमान सम्बन्धों की व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”
सुप्रसिद्ध विचारक पेपनेक के शब्दों में, “लिंग स्त्री-पुरुष से सम्बन्धित है जो पुरुष की भूमिकाओं को सांस्कृतिक आधार पर परिभाषित करने का प्रयास करता है और पुरुष के विशेषाधिकारों से सम्बन्धित है। सांस्कृति तथा ऐतिहासिक आधार पर लिंग सामान्यतया शक्ति सम्बन्धों का कार्य तथा असमानता का सामाजिक संगठन है। “
सन् 1970 से पूर्व लैंगिक अध्ययन के अन्तर्गत लिंग को केवल स्त्री एवं पुरुष में जैविकीय भिन्नता के रूप में ही देखा जाता था तथा पुरुषत्व और स्त्रीत्व के विषय में महत्वपूर्ण सांस्कृतिक विचार रूढ़िवद्धता से ग्रस्त थे। परन्तु सन् 1970 के आस-पास लैंगिक अध्ययन में समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होने से यह धारणा उत्पन्न हुई कि लिंग तथा महिलाओं व पुरुषों की भूमिका सम्बन्धी विचारों में भिन्न-भिन्न संस्कृति के कारण बहुत बड़ा अन्तर है। संरचनात्मक स्तर पर घरेलू श्रम विभाजन सम्बन्धी अध्ययनों में भी स्त्री व पुरुष के मध्य काम के वितरण की बड़ी असमानता दिखाई गई है।
सामाजिक लिंग के विभिन्न आयाम (Various Dimensions of Gender)
लिंग सम्बन्धी विभिन्न आयामों को समझने के लिए निम्नलिखित तत्त्वों की जानकारी आवश्यक है –
(1) नारी शरीर विद्वानों के द्वारा नारी के शरीर को अमूर्त सार्वभौमिक एवं सारत्व कहा गया है। यही नहीं उसके विभिन्न प्राणी शास्त्रीय आयामों को भी दर्शाने का प्रयास किया गया है। जबकि इसके विपरीत नारी शरीर को समाज में सांस्कृतिक अर्थ प्रदान किये जाते हैं। समाज द्वारा नारी शरीर को सांस्कृतिक वस्तु की श्रेणी में रखा जाता है जिस कारण कभी-कभी विरोधाभासी अर्थ निकल जाते हैं। उसके शरीर के अनेक अर्थ लगाये जाते हैं। उदाहरण के लिए, छोटी बालिका के शरीर का अर्थ एक किशोरी के शरीर के अर्थ से भिन्न लगाया जाता है। इसी प्रकार एक विवाहित नारी के शरीर के भी विभिन्न अर्थ लगाये जाते हैं। वस्तुतः नारी के शरीर का अर्थ एक व्यापक उत्पादन प्रक्रिया से जुड़ा होने के कारण नारी के शरीर को न केवल नियन्त्रित किया जाता है अपितु उसे वंशीकृत करके उसके – शरीर के आँकड़ों में मापा भी जाता है। यही नहीं नारी के विभिन्न अंगों जैसे कमर, नितम्ब एवं – उरोजों आदि को अलग-अलग मापदण्ड निर्धारित करके व्यक्त किया जाता है।
(2) समाज में लिंग केन्द्रीयता वर्तमान समाज की व्यवस्था का यह एक प्रमुख अंग है। इसके द्वारा. नारी के शरीर को एक ऐसी वस्तु बना दिया गया है। जिसका उपयोग एवं उपभोग समाज की इच्छानुसार किया जा सकता है। एक लेखक के अनुसार “लिंग का सामाजिक एवं सांस्कृतिक भेद संस्थागत होता है। और यह भेद सार्वभौमिक है। इस भेद को प्रकट करने की विधियाँ भिन्न-भिन्न देश एवं काल में भिन्न हैं। किन्तु प्रत्येक समाज में केवल महिलाओं ने ही इसके दुष्परिणामों को भोगा है।” उदाहरणस्वरूप स्त्री अपने पुरुष साथी की अपेक्षा अधिक काम करके भी परिवार एवं समाज में वह स्थान प्राप्त नहीं कर पाती जिसकी वह अधिकारिणी होती है। भारत में आज भी कुछ ऐसी जातियाँ एवं जनजातियाँ विद्यमान हैं जिनमें पुरुष तो आराम करते हैं और उनकी स्त्रियाँ पूरे दिन घर गृहस्थी संभालने के अतिरिक्त खेतों पर एवं अन्य आर्थिक कार्यों में लगी रहकर अपने सम्पूर्ण परिवार का भरण-पोषण करती हैं।
(3) समाज में पुरुष वर्ग की लाभप्रद अवधारणा पुरुष वर्ग समाज में सदैव ही लाभ की स्थिति में रहा है। यहाँ तक कि सरकार द्वारा चलाये जा रहे अनेक विकास परक कार्यक्रमों का लाभ भी पुरुष वर्ग को ही प्राप्त होता है। अधिक महिलाओं को तो इस सन्दर्भ में जानकारी ही नहीं हो पाती और न ही उनमें इतनी अधिक जागरुकता ही है कि वे इन कार्यक्रमों का लाभ स्वतन्त्र रूप में उठा सकें। समाज में परिवाररूपी संस्था ने भी पुरुष स्त्री एवं बच्चों को एक परस्पर आबद्ध इकाई के रूप में निर्मित किया है यहीं नहीं परिवार द्वारा लिंग सम्बन्धी स्तर भी प्रदान किये गये हैं और इस सन्दर्भ में सामाजिक स्तरीकरण करते समय महिलाओं को परिवार द्वारा निम्न ऊर्जा प्रदान किया गया है। यही कारण है कि समाज में उनकी दशा शोचनीय स्तर पर पहुँच कर दुर्गति को प्राप्त हुई है।
(4) लिंग सम्बन्धी आधुनिक एवं परम्परागत अवधारणा आधुनिक समाज की वर्तमान स्थिति में मध्यम वर्ग की महिलायें आजकल नये-नये पेशों, उद्यमों एवं नयी-नयी वृत्तियों से जुड़ रही हैं। जबकि परम्परागत समाज के संस्थागत ढाँचे में महिलाओं को अपने परिवार एवं समाज में अपेक्षित, उचित एवं महत्त्वपूर्ण स्थान अभी तक भी नहीं मिला है। पुरुष समाज द्वारा आज भी महिलाओं के प्रति आधुनिक एवं परम्परागत अपेक्षाओं के कारण पुरुष का स्त्री की शारीरिक सुन्दरता के प्रति दृष्टिकोण अपरिवर्तित है। आज भी महिला वर्ग से यह अपेक्षा की जाती है कि नारी पुरुष वर्ग की माँग एवं इच्छा के अनुरूप ही अपनी शारीरिक सौन्दर्य को परिभाषित एवं परिमार्जित करें। आजकल साहित्य, पत्र-पत्रिकाओं, टी० बी० एवं समाचार पत्रों के द्वारा महिलाओं को एक ग्लैमरस तथा रूमानी छवि प्रदान करके अभिव्यक्त किया जाता है। नारी के शरीर को एक वस्तु के रूप में प्रचारित एवं प्रसारित करने का कार्य आज भी सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री, उद्योग, मीडिया एवं पूँजीवादी बाजार की शक्तियों द्वारा बदस्तूर जारी है। इस प्रकार बहुत ही चतुराई के साथ समाज में नारी की रचनात्मक सृजनात्मक एवं बौद्धिक प्रक्रिया को नकार दिया गया है और उसकी एवं बौद्धिक प्राणी ही नहीं अपितु एक देह, एक जिस्म, एक वस्तु, एक भोग्य पदार्थ, एक खिलौने की तरह परिभाषित प्रचारित एवं स्थापित करके नारी की शक्तियों का मजाक उड़ाया जा रहा है।
(5) समाज में व्याप्त लैंगिक विभिन्नतायें – आधुनिक युग के वर्तमान समाज में भी ऐसे बहुत से रीति-रिवाज, तौर-तरीके, अभिवृत्तियाँ संस्थायें तथा संस्थागत वैचारिक विभिन्नतायें विद्यमान हैं। जिनके द्वारा बहुत ही चतुराई के साथ महिलाओं पर अनेक लाँछन लगा दिये जाते हैं। एक परम्परागत समाज में विधवाओं की स्थिति बिनव्याही माँ की स्थिति, तलाकशुदा स्त्रियों की स्थिति, वेश्याओं एवं महिलाओं की स्थिति बड़ी घृणास्पद है, क्योंकि इन्हें बलपूर्वक बलात्कार का शिकार होना पड़ा है। ऐसी महिलाओं की स्थिति, दूसरी महिला अथवा उप-पत्नी (रखैल) की स्थिति आदि अनेक ऐसे उदाहरण हैं। जो महिलाओं पर हुए अत्याचार एवं पुरुषों की दोहरी मानसिकता की कहानी कहते हैं। इसी सन्दर्भ में पर्दा प्रथा, अस्पृश्यता की प्रथा एवं रजोनिवृति एवं शिशु जन्म (प्रथम चार सप्ताह सम्बन्धी, पुरुष समाज द्वारा लगाये गये अनेक प्रतिबन्ध महिलाओं की समाज में दोयम एवं निचले दर्जे की ओर संकेत करते हैं। इस प्रकार इन प्रतिबन्धों के द्वारा समाज में महिलाओं के मस्तिष्क में एक प्रकार की हीन भावना भली प्रकार भर दी जाती है। एक लेखक ने सत्य ही लिखा है कि महिलाओं की बहुत-सी शारीरिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के लिए पुरुष वर्ग ही जिम्मेदार है। जैसे विधवा होना, बिनव्याही माँ बनना, बाँझ होना, उप-पत्नी या रखेल होना लेकिन पुरुष प्रधान समाज होने के कारण एवं सभी नियम पुरुष वर्ग द्वारा संचालित किये जाने के कारण सभी बातों के लिए महिलाओं को ही दोषी माना जाता है। उन्हें इन बातों के लिए दण्ड दिया जाता है।
संक्षेप में कह सकते हैं कि लिंग को सामाजिक तथा सांस्कृतिक संगठनों की स्थिति के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है। लिंग के आधार पर स्त्री तथा पुरुषों के मध्य व्याप्त विभिन्नतायें सामाजिक असमानता के संगठन से सम्बन्धित हैं। समाज में स्त्री को पुरुषों की अपेक्षा कमजोर प्राणी के रूप में स्वीकार किया जाता है जिस पर विचार करने के लिए लिंग की अवधारणा का विकास किया गया है।
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