शिक्षा का अर्थ एवं उद्देश्यों, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, शिक्षक का स्थान, शिक्षार्थी को स्पष्ट करते हुए जे. कृष्णामूर्ति के शैक्षिक विचारों की व्याख्या कीजिए।
जे. कृष्णामूर्ति के शैक्षिक विचार (Educational Thoughts of J. Krishnamurti)
जे. कृष्णामूर्ति के शैक्षिक विचारों में उनके दार्शनिक चिन्तन की ही विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं। उनका कहना था कि यदि इन विचारों का भागी बालकों को बनाया जाये तथा इसी के अनुरूप शिक्षा दी जाये तो वास्तव में एक नवीन संस्कृति तथा नवीन विश्व का निर्माण सम्भव है। उनका कहना है कि आज विश्व में जिस प्रकार शिक्षाशालाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है उसी प्रकार उनमें छात्रों की संख्या में भी तीव्र वृद्धि हो रही है। लाखों की संख्या में किताबों का प्रकाशन हो रहा है तथा शिक्षा के क्षेत्र में नित नयी खोजें भी हो रही हैं परन्तु उस शिक्षा का कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मतभेद तेजी से बढ़ रहे हैं। जाति, धर्म, सम्प्रदाय व भाषा के नाम पर युद्ध हो रहे हैं। आतंकवाद, जनसंख्या, पर्यावरण, भ्रष्टाचार आदि कई समस्याएँ मानव जीवन को अत्यधिक जटिल बना रही हैं। इनके पीछे केवल एक ही कारण है और वह है दूषित शिक्षा प्रणाली। कृष्णामूर्ति जी का मत है कि विश्व की सभी समस्याएँ “इतनी गहरी हैं कि उनकी चपेट में पूरी शिक्षा व्यवस्था भी आ गयी है।
कृष्णामूर्ति के अनुसार शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education According to Krishnamurti)
कृष्णामूर्ति जी ने शिक्षा के अर्थ को निम्न बिन्दुओं में स्पष्ट किया है-
- शिक्षा सीखने की कला से सम्बन्धित है।
- शिक्षा का वास्तविक अर्थ धर्म के वास्तविक रूप को समझना है।
- शिक्षा ऐसी हो जो आत्मबोध कराए।
- शिक्षा का तात्पर्य मन को परम्पराओं के बोझ से मुक्त करना है।
- शिक्षा का तात्पर्य है सत्य की खोज करना।
- शिक्षा का तात्पर्य है कार्य करने की क्षमता का विस्तार ।
- शिक्षा का तात्पर्य है कार्य को मन लगाकर करना।
शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education)
कृष्णामूर्ति ने शिक्षा का मूल उद्देश्य एक संतुलित मानव का विकास करना बताया है। उनका कहना है कि यह संतुलित मानव ऐसा हो जो चेतनायुक्त हो, सद्भावना से परिपूर्ण हो, जिसे जीवन के अर्थ व उद्देश्य का ज्ञान हो, जाति, धर्म, संस्कृति, क्षेत्र इत्यादि किसी भी आधार पर पूर्वाग्रहों एवं पूर्व-धारणाओं से मुक्त हो, द्वेष, घृणा तथा हिंसात्मक प्रवृत्तियों से दूर हो, वैज्ञानिक बुद्धि तथा आध्यात्मिकता में समन्वय स्थापित करने में सक्षम हो, मानव मात्र के जीवन को सुखमय बना सके, स्वयं के लिए नवीन मूल्यों को तैयार कर सकता हो तथा एक नवीन संस्कृति व नवीन विश्व का निर्माण कर सकता हो । शिक्षा के मूल उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित उद्देश्यों को प्राप्त करना भी अति आवश्यक है-
- सृजनात्मकता का विकास,
- व्यावसायिक प्रशिक्षण,
- संवेदनशीलता का विकास,
- वैज्ञानिक बुद्धि का विकास,
- वास्तविक चरित्र का विकास
- शारीरिक विकास,
- मानसिक विकास,
- सांस्कृतिक विकास,
- आध्यात्मिक मूल्यों का विकास,
- सामाजिक विकास ।
पाठ्यक्रम (Curriculum)
कृष्णामूर्ति के अनुसार बालकों में प्रभावशाली विधि से व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीयता की भावना के विकास के लिए एक अच्छे पाठ्यक्रम का निर्माण अत्यन्त आवश्यक है। उपर्युक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए कृष्णामूर्ति ने पाठ्यक्रम निर्माण में निम्नलिखित बिन्दुओं के समावेश पर बल दिया है –
1. नैतिक गुणों की शिक्षा- कृष्णामूर्ति के अनुसार आधुनिक युग में तकनीकी ज्ञान के साथ-साथ नैतिक गुणों का विकास भी बहुत महत्वपूर्ण है। शिक्षा मस्तिष्क से सम्बन्धित हो इसके लिए नैतिक गुणों का समावेश बहुत ही आवश्यक है।
2. क्रियाशीलता- कृष्णामूर्ति ऐसे पाठ्यक्रम के पक्षधर हैं जो बालकों में ज्ञान के विकास के साथ-साथ उन्हें क्रियाशील भी बनाए।
3. अधिगम एवं उपयोगिता- पाठ्यक्रम ऐसा हो जो अधिगम में सहायता तथा भावी जीवन के लिए उपयोगी हो अर्थात् पाठ्यक्रम बालकों की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला हो। उन्होंने पाठ्यक्रम में लिखने पर बहुत जोर दिया है।
4. उद्देश्यपूर्ण पाठ्यक्रम – शिक्षा का पाठ्यक्रम बालकों के लिए उद्देश्यपूर्ण होना अत्यधिक आवश्यक है। यदि पाठ्यक्रम उद्देश्यरहित होगा तो ऐसे पाठ्यक्रम के अध्ययन का बालक को कोई लाभ नहीं होगा। अतः बालकों के लिए ऐसी पाठ्य-सामग्री की आवश्यकता है जो उसके उद्देश्य को पूर्ण कर सके।
5. संतुलित पाठ्यक्रम- कृष्णामूर्ति के अनुसार पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो सभी व्यक्तियों के लिए लाभदायक हो, इसलिए उन्होंने संतुलित पाठ्यक्रम पर बल दिया है।
शिक्षण विधियाँ (Methods of Teaching)
कृष्णामूर्ति व्यावहारिक और सत्यवादी प्रकृति वाले व्यक्ति थे। वे अपने समय की शिक्षा की प्रचलित विधियों को सही नहीं मानते थे। उनके अनुसार करके सीखना तथा स्वयं के अनुभव से सीखना सबसे सर्वोत्तम माना है। वे प्राकृतिक पर्यावरण को शिक्षा का केन्द्र बनाने तथा समस्त ज्ञान व क्रियाओं को उनके माध्यम से विकसित करने के पक्षधर थे। वे ऐसी शिक्षण विधि चाहते थे जिसमें छात्र व अध्यापक के बीच दूरी कम हो और छात्र निष्क्रिय श्रोता न रहकर अनुसंधानकर्ता, निरीक्षणकर्ता तथा प्रयोगकर्ता के रूप में हो। उन्होंने शिक्षण प्रणाली में निम्नलिखित तथ्यों को शामिल करने पर बल दिया है।
- छात्र की प्रकृति के साथ सम्बन्ध बनाया जाए।
- छात्र की मानसिक क्षमता जिस प्रकार की हो उसी के अनुरूप शिक्षण पद्धति का चयन करना चाहिए।
- शिक्षण विधि में ध्यान क्रिया को भी शामिल किया जाए।
- अनुभव के आधार पर बालक को सीखने के लिए प्रेरित किया जाए।
कृष्णामूर्ति के अनुसार बालक के सम्पूर्ण विकास के लिए निम्न शिक्षण विधियाँ आवश्यक है।
(i) वार्तालाप, (ii) अध्ययन, (iii) स्वाध्याय, (iv) अवलोकन, (v) निदिध्यासन, (vi) प्रयोग, (vii) मनन, (viii) व्याख्यान, (ix) श्रवण, (x) दृष्टान्त ।
शिक्षक (Teacher)
जे. कृष्णामूर्ति ने शिक्षक को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उनके अनुसार शिक्षक अच्छे व्यक्तित्व वाला एकीकृत मानव होना चाहिए। उसे धैर्य का प्रतीक होना चाहिए। उसका व्यवहार छात्रों से मैत्रीपूर्ण होना चाहिए। छात्रों को स्वयं सीखने के लिए प्रेरित करना चाहिए। कृष्णामूर्ति का विचार है कि एक आदर्श शिक्षक वही है जो सत्ता व राजनीति के भ्रष्ट प्रभाव से दूर रहकर अपना शिक्षण कार्य पूर्ण ईमानदारी व निष्ठा से करे। पढ़ाने, बताने तथा सिखाने का कार्य करे तथा स्वार्थपरता एवं अहंकार को समझने तथा उनसे मुक्ति पाने में अपने शिष्यों की सहायता करे। उनका कहना था कि वर्तमान शिक्षा की प्रकृति पूरी तरह प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा, महत्वाकांक्षा और बाह्य सम्पन्नता का संवर्धन करने में सहायता कर रही है। कृष्णामूर्ति शिक्षकों से अपेक्षा करते हैं कि वे इस प्रकार की शिक्षा के हानिकारक परिणामों एवं इसके प्रभावों को गम्भीरता से समझें तथा इससे मानवता को होने वाले दुष्परिणामों से बचाने में योगदान करें। कृष्णामूर्ति ऐसे शिक्षक के पक्षधर थे जिसमें निम्नलिखित योग्यताओं का समावेश हो-
- वह सृजनशील होना चाहिए।
- शिक्षक को तकनीकी का समुचित ज्ञान होना चाहिए।
- शिक्षक ऐसा हो जो छात्रों का पथ प्रर्दशन करे तथा उसका व्यवहार मित्रतापूर्ण हो।
- शिक्षक को विद्याथियों में छुपी हुई प्रतिभा को उजागर करने वाला होना चाहिए।
- शिक्षक में बालकों की रचनात्मक शक्तियों का विकास करने की योग्यता होनी चाहिए।
- शिक्षक में ऐसा वातावरण उत्पन्न करने की योग्यता होनी चाहिए जिससे छात्र स्व अनुभव द्वारा सफलतापूर्वक सीख सकें।
- शिक्षक इतना परिपक्व हो कि वह छात्रों को भली-भाँति समझ सके।
शिक्षार्थी (Student)
कृष्णामूर्ति शिक्षा प्रक्रिया में शिक्षार्थी को भी महत्वपूर्ण मानते हैं। उनका मत है कि विद्यार्थी ऐसा होना चाहिए जो शिक्षक को सम्मान दे। उसमें आत्म-दृढ़ता का समावेश होना चाहिए। वह शारीरिक व समाजिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ होना चाहिए। उसे निडर होना चाहिए। छात्र को अपने शिक्षकों के ज्ञान *व अनुभव से शिक्षा लेनी चाहिए तथा सत्य की खोज के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
कृष्णामूर्ति का कहना है कि शिक्षार्थी को बाल्यावस्था से ही उसके व्यक्तित्व के विकास हेतु पूर्णतया स्वतन्त्र छोड़ देना चाहिए। उस पर किसी प्रकार का बन्धन नहीं होना चाहिए। यदि शिक्षार्थी बन्धन मुक्त होगा तो वह परिपक्व होगा तथा वह हर क्षेत्र में अनुसंधान करेगा।
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