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नैतिक विकास किसे कहते हैं?| बालक में उचित नैतिक-विकास हेतु सुझाव

नैतिक विकास किसे कहते हैं
नैतिक विकास किसे कहते हैं

नैतिक विकास किसे कहते हैं? 

नैतिक-व्यवहार को परिभाषित करते हुए हरलॉक ने लिखा है— “सामाजिक समूह के नैतिक कोड के अनुरूप व्यवहार ही नैतिक व्यवहार है।”

नैतिक विकास का अर्थ नैतिक मूल्यों तथा आदतों से है। नैतिक-विकास में मुख्यतः ये मूल्य अथवा तत्त्व आते हैं – 1. ईमानदारी, 2. परोपकारी, 3. विश्वास, 4. त्याग, 5. आज्ञापालन, 6. सेवा भावना, 7. साहस, 8. धैर्य, 9. दवा, 10. क्षमा, 11. स्नेह, 12. सहानुभूति, 13 देश प्रेम, 14. कर्तव्य-निष्ठा, 15. सत्यता।

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बालकों में उचित नैतिक विकास हेतु सुझाव-

बालकों में उचित नैतिक विकास हेतु निम्नलिखित सुझाव व कदम उठाये जा सकते हैं

1. बालकों में उचित आदर्शों का विकास

प्रत्येक बालक की अपनी मान्यतायें, मूल्य और आदर्श उसके चरित्र को प्रतिबिम्बित करते हैं। किसी एक परिस्थिति में वह जैसा व्यवहार करता है उसके पीछे उसके जीवन के लक्ष्य और आदर्शों की छाप होती है। जितने ऊँचे और अच्छे जीवन-मूल्य और *आदर्श होंगे, उसका चरित्र उतना ही सशक्त और उत्तम होगा। इसलिए बालकों को उचित आदर्श एवं जीव मूल्य अपनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिये।

2. उचित स्थायी भावों का विकास एवं संगठन

चरित्र को स्थायी भावों की एक व्यवस्था एवं संगठन का नाम दिया जाता है। इसलिए बच्चों में स्वरूप और सुन्दर स्थायी भावों के निर्माण और उसके स्थायी संगठन के बारे में प्रयत्न किये जाने चाहिए। इसके लिए सबसे पहले अच्छे स्थायी भावों जैसे देशभक्ति का स्थायी भाव, नैतिक स्थायी भाव, सामाजिक स्थायी भाव, बौद्धिक स्थायी भाव, सौन्दर्यात्मक स्थायी भाव और आत्म-सम्मान के स्थायीभाव आदि के विकास के लिए प्रयत्न किए जाने चाहिए।

3. नैतिक और धार्मिक शिक्षा प्रदान करना

चरित्र निर्माण में नैतिक और धार्मिक शिक्षा की उपयोगिता भी अत्यावश्यक है। अतः विद्यालय पाठ्यक्रम में इसे आवश्यक स्थान प्रदान किया जाना चाहिए। ऐसी शिक्षा द्वारा “सभी धर्म अच्छे हैं तथा हम एक ही ईश्वर चाहे वह राम हो या रहीम, ईसा या मुहम्मद की संतान हैं’ आदि भावनायें बच्चों के अन्दर भरी जानी चाहिए।

रोचक कहानी और कथानकों के माध्यम से बच्चों को नैतिक शिक्षा सरलतापूर्वक दी जा सकती है। इस दिशा में हितोपदेश और पंचतंत्र की कहानियाँ बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। महान व्यक्तियों की जीवनगाथा और संस्मरणों को भी उपयोग में लाया जा सकता है। इतिहास साहित्य और सामाजिक विषयों की पुस्तकों में नैतिक विचार उत्पन्न करने वाले पाठ शामिल किए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रार्थना सभा, महान पुरुषों के प्रवचन एवं नैतिकता सम्बन्धी व्याख्यानों तथा अन्य पाठान्तर क्रियाओं के माध्यम से बच्चों में नैतिक और धार्मिक भाव उत्पन्न करके उनके चरित्र को ऊँचा उठाया जा सकता है।

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4. सुझाव और चरित्र निर्माण

चारित्रिक विकास में सुझावों का भी बहुत महत्व है। बच्चे भोले होते हैं और उन पर सुझावों का गहरा प्रभाव पड़ता है। अतः सुझावों को चरित्र निर्माण के कार्य में भली भांति प्रयोग में लाया जा सकता है, लेकिन जहाँ तक संभव हो बच्चों के व्यवहार में अनुकूल परिवर्तन लाने के लिए सकारात्मक सुझाव की ही सहायता ली जानी चाहिए। इसके लिए बच्चों को सुन्दर एवं स्वस्थ कहानियाँ सुनाई जा सकती हैं तथा महान व्यक्तियों के संस्मरण और जीवन-वृत्तान्तों से उन्हें परिचित कराया जा सकता है। अध्यापक और माता-पिता को स्वयं अपने रहन-सहन और व्यवहार के द्वारा जीते-जागते उदाहरण बच्चों के सम्मुख रखने चाहिए।

चरित्र निर्माण की दिशा में कदम रखने के पश्चात् बच्चों को बराबर यह बताते रहना कि वे यथेष्ट रूप में उन्नति कर रहे हैं, उनका चारित्रिक स्तर ऊंचा उठ रहा है, उत्तम और अति उत्तम बनते जा रहे हैं, बहुत ही लाभदायक सिद्ध होता है। इस प्रकार आत्म सुझावों द्वारा वे चारित्रिक विकास की सीढ़ियाँ सफलतापूर्वक चढ़ सकते हैं।

5. अनुकरण और चारित्रिक विकास

बच्चा स्वभाव से ही अनुकरण या नकल अवश्य करता है। उसके लिए माता-पिता, अन्य बड़े लोग तथा अध्यापक आदर्श होते हैं। वह जाने-अनजाने उनका अनुकरण या नकल करता रहता है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि अध्यापक, माता-पिता और समाज के अन्य उत्तरदायित्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा अपने व्यवहार और चरित्र को लेकर अच्छे उदाहरण बच्चों के सामने रखे जायें। उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी तरह की कोई भी अवांछित बात बच्चे अनुकरण द्वारा न सीखें। अपने घर और विद्यालय में उन्हें स्वस्थ और प्रेरक वातावरण मिलना चाहिए तथा उन्हें बुरी संगत और बुरी बातों के दुष्प्रभाव से बचाया जाना चाहिए।

6. मूल प्रवृत्तियों एवं संवेगों की भूमिका

मूल-प्रवृत्तियाँ और संवेग दोनों मिलकर मानव चरित्र को अच्छा और बुरा मोड़ प्रदान करने की सामर्थ्य रखते हैं। इसलिए सुन्दर और स्वस्थ चरित्र के लिए बच्चे की मूल प्रवृत्तियों और उसके संवेगों के उचित शोधन और प्रशिक्षण की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए युद्धप्रियता नामक मूल प्रवृत्तियों और क्रोध के संवेग को शोधन और प्रशिक्षण के फलस्वरूप देशभक्ति तथा पीड़ितों एवं शोषित पर दया दिखलाने जैसे उपयोगी कार्यों की ओर मोड़ा जा सकता है और इस तरह बालकों के चरित्र निर्माण का कार्य भली-भाँति संपन्न किया जा सकता है।

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7. इच्छा या संकल्प-शक्ति का प्रशिक्षण

निर्णय लेने की दृढ़ता और उचित समय पर उचित निर्णय लेने की क्षमता दोनों सशक्त चरित्र के बहुमूल्य तत्व हैं और इन दोनों तत्त्वों को इच्छा और संकल्प शक्ति द्वारा ही जीवन मिलता है। अतः बालकों की इच्छाओं तथा संकल्प-शक्ति को दृढ़ बनाने के लिए हर संभव उपाय किये जाने चाहिए। दृढ़ संकल्प के अभाव में बच्चे की चारित्रिक कमजोरियाँ व्यक्तित्व पर हावी हो जाती हैं और वह उन्हें छोड़ देने का झूठा वायदा करता रहता है, जबकि इच्छा या संकल्प शक्ति की दृढ़ता उसे चारित्रिक बुराइयों को छोड़कर अच्छाइयों को ग्रहण करने में पूरी-पूरी सहायता कर सकती है।

8. बालकों में अच्छी आदतों का विकास

चरित्र को आदतों का पुंज कहा गया है। अच्छी और बुरी आदतें व्यक्ति को अच्छे और बुरे रास्ते पर ले जाकर उसके चरित्र को सामाजिक रूप में वांछित और अवांछित बनाने का कार्य करती हैं। अतः बालकों में शुरू से ही अच्छी-अच्छी आदतें डालने का प्रयास किया जाना चाहिए। बुरी आदतें चरित्र के लिए घुन का कार्य करती हैं, अतः बच्चों को यथासंभव इनसे छुटकारा दिलाने का प्रयत्न करना चाहिये।

 

 

9. चारित्रिक विकास में विद्यालय, परिवार और समाज की भूमिका 

बच्चों के चरित्र निर्माण में वातावरण सम्बन्धी शक्तियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। घर, विद्यालय और सामाजिक परिवेश में जो कुछ भी घटित होता है, उसका प्रभाव बच्चे के चरित्र पर अवश्य पड़ता है। सबसे पहले चरित्र सम्बन्धी प्रथम पाठ बच्चा अपने पारिवारिक परिवेश में अपने माता-पिता तथा परिवार के सदस्यों से सीखता है। घर के अतिरिक्त पास-पड़ोस, समुदाय तथा सामाजिक परिवेश की अन्य शक्तियाँ भी बच्चे के चरित्र को प्रभावित करती हैं। जब वह विद्यालय जाता है तब विद्यालय के वातावरण तथा साथ पढ़ने वाले विद्यार्थियों तथा शिक्षकों के व्यवहार एवं चरित्र की छाप उस पर अवश्य पड़ती है। अतः यह आवश्यक है कि परिवार, विद्यालय तथा सामाजिक परिवेश की अन्य इकाइयों द्वारा बालकों को स्वस्थ एवं खुशहाल होना चाहिए।

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10. बच्चे का उचित मानसिक विकास

चारित्रिक विकास और मानसिक विकास में भी गहरा सम्बन्ध है। चरित्र में निहित विभिन्न तत्त्वों के संयोजन में बुद्धि एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक व्यक्ति किसी एक विशेष परिस्थिति में किस प्रकार का व्यवहार करेगा और किस प्रकार जीवन की वास्तविकताओं का सामना करेगा, यह बहुत कुछ उसकी मानसिक योग्यताओं और क्षमताओं पर निर्भर करता है। अतः बच्चों की सोचने-विचारने की शक्ति, कल्पना शक्ति, स्मरण शक्ति, एकाग्रता आदि विभिन्न मानसिक शक्तियों के विकास के लिए समुचित कदम उठाये जाने चाहिए।

11. बच्चों का सामाजिक-विकास

सामाजिक विकास और चारित्रिक विकास में धनात्मक सहसम्बन्ध है। सामाजिक रूप से विकसित एक बच्चा सदैव ही समाज के आदर्शों और मूल्यों के अनुकूल व्यवहार करने का प्रयत्न करता है और इसलिए वह अपने चरित्र पर कोई भी धब्बा नहीं लगने देना चाहता। इस प्रकार से सामाजिकता का विकास बच्चों के चरित्र निर्माण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कदम माना जा सकता है। इस दृष्टिकोण से बच्चों के सामाजिक विकास की ओर पूरा ध्यान देने की आवश्कयकता है, ताकि उनमें आवश्यक सामाजिक गुणों का समावेश हो सके तथा वे सामाजिक सम्बन्धों का अच्छी तरह निर्वाह कर समाज के उत्तरदायित्वपूर्ण सदस्यों की भाँति व्यवहार कर सकें। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए माता-पिता तथा अध्यापकों द्वारा उन्हें पूरा-पूरा सहयोग दिया जाना चाहिए।

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