भाषा विकास के विभिन्न सिद्धान्त- भोलानाथ तिवारी द्वारा प्रस्तुत भाषा की परिभाषा “भाषा निश्चित प्रयत्न के फलस्वरूप मनुष्य के मुख से निःसृत वह सार्थक ध्वनि-समष्टि है, जिसका विश्लेषण व अध्ययन हो सके।”
भाषा विकास का बालक के व्यक्तित्व व उसके भावी जीवन पर गहरा एवं महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। ‘भाषा विकास के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –
1. दिव्योत्पत्ति का सिद्धान्त
ईश्वरवादी प्रत्येक क्रिया-कलाप का सम्बन्ध किसी न किसी दिव्य शक्ति से जोड़ता है। ईश्वर ने मनुष्य को उत्पन्न किया। सभी धर्मावलम्बी अपने ग्रन्थों में मानव को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मानते हैं और उसी से भाषा के आविर्भाव की कल्पना भी करते हैं। संस्कृत वाङ्मय में संस्कृत भाषा को “देववाणी” कहकर समस्त भाषाओं की जननी घोषित की गई है। वाग्देवी (वाणी) को देवों ने उत्पन्न किया है तथा देवों ने ही इसको विकसित भी किया जै जिसे सभी प्राणी बोलते हैं। ‘दिव्योत्पत्ति सिद्धान्त’ में केवल इतना सार तत्व हैं कि मनुष्य को ही सार्थक भाषा प्रयोग के लिये योग्य ध्वनि तन्त्र मिला है और उसे संचालित करने वाली बुद्धि भी । यद्यपि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह मत अग्राह्य है।
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2. संकेत का सिद्धान्त
इस सिद्धान्त ने पारस्परिक विचार-विनिमय द्वारा ध्वन्यात्मक भाषा का – जन्म दिया। आंगिक संकेत एवं अन्य संकेतों की असुविधा और अपूर्णता मिटाने के लिये उसने आम बातचीत, भाषा जैसा समर्थपूर्ण और सुविधाजनक संकेत प्रस्तुत किए। सृष्टि के आरम्भ में ही यह संकेत निश्चित कर लिया गया कि इतने वर्षक्रम इस क्रम से उच्चारित होने पर अमुक अर्थ बोध कराएँगे। जैसे ‘क’ के बाद ‘म’ और ‘म’ के बाद ‘ल’ लिखा हो तो इसका अर्थ बोध कमल नामक विशिष्ट पुष्प के रूप में होगा। इसी तरह अनेक व अनन्त संकेत बोध बना लिये गये जिनका आज तक प्रयोग हो रहा है तथा निरन्तर संकेतों में बढ़ोत्तरी भी होती रही है।
(3) रणन सिद्धान्त
रणन (डिड-डॉड) सिद्धान्त का सर्वप्रथम यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने वर्णन किया। किन्तु उसको पल्लवित व पुष्पित करने का कार्य जर्मन विद्वान मैक्समूलर के द्वारा किया गया। रणन सिद्धान्त के अनुसार शब्द और अर्थ में एक प्रकार का रहस्यात्मक नैसर्गिक सम्बन्ध होता है। प्रत्येक वस्तु की अपनी विशिष्ट ध्वनि होती है जो आघात पड़ने पर सुनाई देती है। इसी ध्वनि को रणन कहते हैं। जैसे विस्तृत जल प्रवाह को देखकर बालक के मुख से एकाएक ‘नदी’ शब्द उच्चारित होता है। इसी प्रकार समग्र वस्तुओं के लिये शब्द बन गये हैं। फिर इनके वाचक शब्द भी बनते रहे हैं।
(4) आवेग सिद्धान्त
आवेग सिद्धान्त इस सिद्धान्त को मनोरागव्यंजक शब्द मूलकतावाद या मनोभाषित व्यंजकतावाद जैसे लम्बे शब्दों में हिन्दी की अनेक भाषा विज्ञान की पुस्तकों में प्रस्तुत किया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार हर्ष, शोक, विस्मय, क्षोभ, क्रोध, घृणा आदि मनोभावों की सहज अभिव्यक्ति से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हीं से भाषा की उत्पत्ति हुई है।
(5) श्रम ध्वनि सिद्धान्त
(थो-हे-हो) शारीरिक श्रम करते समय जिसके परिणामस्वरूप मांसपेशियों का ही नहीं स्वर तंत्रिकाओं का भी आकुंचन-प्रसारण (सिकुड़न-फैलाव) होने लगता है और उनका कम्पन बढ़ जाता है। अतः कुछ ध्वनियाँ स्वतः निकलती हैं। जैसे हाय-सा हूँ-सा, हूँ इत्यादि श्रम कार्य करने से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों से ही कतिपय भाषा वैज्ञानिक भाषा की उत्पत्ति मानने के समर्थक हैं।
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(6) अनुकरण सिद्धान्त
(बोड बोड) सिद्धान्त बोड-बोड-मों-मों का अंग्रेजी रूपान्तरण है। इस – सिद्धान्त का उक्त नाम जर्मन वैज्ञानिक मैक्समूलर ने हास्य-विनोद में ही रख दिया। इस सिद्धान्त के अनुसार वस्तुओं का नामकरण उनसे उत्पन्न होने वाली प्राकृतिक ध्वनियों के आधार पर हुआ है अर्थात् जिस वस्तु से जैसी ध्वनि उत्पन्न होती है या सुनी जाती है उसका उसी के अनुकरण पर नाम रख दिया गया। जैसे झर झर करने वाले जल प्रवाहों को निर्झर झरना कहा जाने लगा।
(7) इंगित सिद्धान्त
इंगित (जेस्चर) सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य ने अपने अंगों या आंगिक चेस्टाओं का ही वाणी द्वारा जैसा अनुकरण किया और उसी से भाषा की उत्पत्ति हुई। जैसे – पानी पीते समय होठों के बार-बार सटने या स्वांश खींचने से पापा जैसी ध्वनि होती है तो ‘पा’ का अर्थ पानी मान लिया गया। इसी तरह अनेकों शब्दों का आरम्भ माना जाता है।
(8) समन्वय सिद्धान्त
भाषा वैज्ञानिकों ने उपर्युक्त सभी सिद्धान्तों की अत्याप्ति और परिसीमा देखकर सबके समन्वय को भाषा की उत्पत्ति का आधार माना है। तात्पर्य यह है कि किसी एक सिद्धान्त को भाषा का आरम्भ मानने के बदले सभी सिद्धान्तों को मानना अधिक उचित है। जैसे कुछ शब्द अनुकरण से उतपन्न हुए तो कुछ आवेग की तीव्रता से और कुछ श्रम के सहचर्य से इस प्रकार एक-एक सिद्धान्त को अलग-अलग मानने की अपेक्षा उनके समन्वय को भाषा की उत्पत्ति का कारण मानना निश्चित ही अधिक सार्थक सिद्ध होता है।
मनुष्य की भाषा कैसे विकसित होती है ? उसकी प्रक्रिया क्या है ? शब्दों का अर्थ में कैसे समावेश होता है ? इसको जानने के लिये भाषा विकास के सिद्धान्तों को समझना आवश्यक है। उपरोक्त के अतिरिक्त कुछ निम्नांकित भाषा विकास के सिद्धान्त को भी समझना अनिवार्य है
(1) परिपक्वता का सिद्धान्त
परिपक्वता से तात्पर्य है कि भाषा अवयवों एवं स्वरों पर नियंत्रण होना बोलने पर जिह्वा, गला, तालु, होंठ, दन्त, स्वरतन्त्र आदि जिम्मेदार होते हैं। इनमें किसी भी प्रकार की कमी अथवा कमजोरी वाणी व भाषा को प्रभावित करती है। विद्वानों का मत है कि भाषा विकास स्वर तन्त्र की परिपक्वता पर निर्भर करता है। गूँगे व्यक्तियों में स्वर यन्त्र का विकास नहीं होता।
(2) अनुबन्धन का सिद्धान्त
भाषा विकास में अनुबन्धन या साहचर्य का बहुत बड़ा योगदान होता है। शैशवावस्था में बालकों में भाषा विकास किसी मूर्त वस्तु के सहारे किया जाता है अथवा होता है। उसे कलम बोलने के साथ-साथ कलम को दिखाया भी जाता है। चाचा, दादा, पिता, माता को संकेत के सहारे प्रत्यक्षीकरण कराया जाता है। स्किनर के अनुसार, “अनुबन्धन द्वारा भाषा विकास की प्रक्रिया को सरल बनाया जा सकता है।”
(3) अनुकरण का सिद्धान्त
(4) चोमस्की का भाषा अर्जित करने का सिद्धान्त
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