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बालक के सम्बन्ध में विकास की अवधारणा-Concept of Child Development in Hindi

बालक के सम्बन्ध में विकास की अवधारणा
बालक के सम्बन्ध में विकास की अवधारणा

बालक के सम्बन्ध में विकास की अवधारणा क्या है? समझाइये।

बालक के सम्बन्ध में विकास की अवधारणा- किसी बालक के विकास से आशय शिशु के गर्भाधान (गर्भ में आने) से लेकर पूर्ण प्रौढ़ता प्राप्त करने की स्थिति से है। पितृ सूत्र तथा मातृ सूत्र के मिलन से एक जीव उत्पन्न होता है। तत्पश्चात उसके अंगों का विकास होता है। यह विकास की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। इसी के फलस्वरूप बालक विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है। इसी प्रकार बालक का शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक विकास होता है। हम पूर्व में बता चुके हैं कि विकास बढ़ना नहीं है अपितु परिपक्वतापूर्ण परिवर्तन है। परिवर्तन एक अनवरत न दिखने वाली प्रक्रिया है, जो निरन्तर गतिशील है। अन्य शब्दों में, विकास बड़े होने तक ही सीमित नहीं है, वस्तुतः यह व्यवस्थित तथा समानुगत प्रगतिशील क्रम है, जो परिपक्वता प्राप्त में सहायक होता है। हरलॉक के अनुसार– “बाल विकास में प्रमुख रूप से बालक के स्वरूप, व्यवहार, रुचियों और उद्देश्यों में होने वाले विशेष परिवर्तनों के अनुसन्धान पर बल दिया जाता है, जो बालक के एक विकास कालक्रम से दूसरे विकास कालक्रम में प्रवेश करते समय होते हैं। बाल विकास के अध्ययन में यह जानने का प्रयत्न किया जाता है कि ये परिवर्तन कब और क्यों होते हैं? ये परिवर्तन व्यक्तिगत हैं या सार्वभौमिक हैं।”

1. ड्रेवर के अनुसार, “विकास, प्राणी में होने वाला प्रगतिशील परिवर्तन है, जो किसी लक्ष्य की ओर लगातार निर्देशित होता रहता है।” उदाहरणार्थ- किसी भी जाति में भ्रूण अवस्था से लेकर प्रौढ़ अवस्था तक उत्तरोत्तर परिवर्तन है।

2. हरलॉक के अनुसार, “विकास की सीमा अभिवृद्धि तक ही नहीं है, अपितु इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में अनेक नवीन विशेषताएँ एवं नवीन योग्यताएँ स्पष्ट होती हैं।”

3. मुनरो का कथन है, “परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था जिसमें बालक भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहा जाता है।”

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि बाल विकास में समस्त प्रकार के परिवर्तन निहित हैं। यह परिवर्तन विकास की प्रत्येक अवस्था में कब और क्यों होते हैं? इन सभी का अध्ययन बाल विकास में किया जाता है। बाल विकास में यह भी देखा जाता है कि जो परिवर्तन व्यक्तिगत या सार्वभौमिक रूप से होते रहते हैं, उनके पीछे वंशानुक्रमीय तथा वातावरणीय कारणों में से कौन-सा प्रमुख है अथवा उपरोक्त दोनों ही परिवर्तन के कारण हैं।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विकास के आशय केवल बढ़ने से ही नहीं है। विकास से तात्पर्य परिपक्वता की ओर अग्रसर होने के एक निश्चित क्रम से है। विकास में व्यवस्था रहती है। बालक के शरीर में प्रत्येक परिवर्तन का आधार यह है कि वह किस प्रकार के क्रम का निर्धारण करता है। विकास से तात्पर्य शरीर के गुणात्मक परिवर्तन से है।

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