अभिवृद्धि तथा विकास से क्या अभिप्राय है? स्पष्ट कीजिए।
अभिवृद्धि और विकास, दोनों शब्द प्रायः एक ही अर्थ में प्रयोग किये जाते हैं, किन्तु मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इनमें कुछ अन्तर होता है। सोरेन्सन के विचार में, “अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग सामान्यतः शरीर और उसके अंगों के भार तथा आकार में वृद्धि के लिए किया जाता है। इस वृद्धि को नापा और तोला जा सकता है। विकास का सम्बन्ध अभिवृद्धि से अवश्य होता है पर यह शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तनों को विशेष रूप से व्यक्त करता है।” उदाहरणार्थ, बालक की हड्डियाँ आकार में बढ़ती हैं, यह बालक की अभिवृद्धि है; किन्तु हड्डियाँ कड़ी हो जाने के कारण उनके स्वरूप में जो परिवर्तन आ जाता है, यह विकास को दर्शाता है। इस प्रकार विकास में अभिवृद्धि का भाव निहित रहता है।
प्रायः यह भी देखने को मिलता है कि बालक की शारीरिक वृद्धि के अनुपात में उसकी कार्य कुशलता में प्रगति नहीं होती है। ऐसी स्थिति में यह कहा जाता है कि बालक की वृद्धि तो हो गयी है किन्तु उसका विकास नहीं हुआ है। इस प्रकार विकास, शारीरिक अवयवों की कार्य कुशलता की ओर संकेत करता है। जैसा कि सोरेन्सन के विचारों में व्यक्त है, अभिवृद्धि को मापा जा सकता है, किन्तु विकास, व्यक्ति की क्रियाओं में निरन्तर होने वाले परिवर्तनों में परिलक्षित होता है। अतः मनोवैज्ञानिक अर्थों में विकास केवल शारीरिक आकार और अंगों में परिवर्तन होना ही नहीं है, यह नई-नई विशेषताओं और क्षमताओं का विकसित होना है जो गर्भावस्था से आरम्भ होकर परिपक्वावस्था तक चलता रहता है। हरलॉक के विचारों में–“विकास, अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है। इसके बजाय, इसके परिपक्वावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं।”
हरलॉक के विचारों के अनुसार विकास की प्रक्रिया बालक के गर्भावस्था से लेकर जीवन पर्यन्त एक क्रम से चलती रहती है तथा प्रत्येक अवस्था का प्रभाव दूसरी अवस्था पर पड़ता है।
गेसेल के अनुसार– “विकास, प्रत्यय से अधिक है। इसे देखा जाँचा और किसी सीमा तक तीन ‘प्रमुख दिशाओं-शरीर अंक विश्लेषण, शरीर ज्ञान तथा व्यवहारात्मक में मापा जा सकता है….. इस सब में, व्यावहारिक संकेत ही सबसे अधिक विकासात्मक स्तर और विकासात्मक शक्तियों को व्यक्त करने का माध्यम है।
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