बालक के विकास में परिवार के योगदान एवं उत्तरदायित्व पर टिप्पणी लिखिए।
परिवार का योगदान एवं उत्तरदायित्व- बालक को परिवार के सदस्यों से जो प्रत्यक्ष व्यवहार मिलता है, वह उसके मानसिक जीवन के कुछ स्थायी अस्थायी, आशाएँ-निराशाएँ एवं कुछ भावनाओं का निर्माण करता है। यदि बालक को माता-पिता से उपेक्षा एवं तिरस्कार प्राप्त होता है तो वह समाज विरोधी मूल्यों का विकास कर लेता है। इसी प्रकार अधिक प्रेम भी बालक को परतंत्र तथा सुगम जीवन जीने के उद्देश्य से अवांछनीय इच्छाओं एवं महत्त्वाकांक्षी मूल्यों को विकसित कर देता है। ये बालक स्वार्थी, आत्मकेन्द्रित, पराश्रयी एवं असहभागिता के गुणों एवं मूल्यों को अपना लेते हैं। इसी प्रकार यदि माँ-बाप अपने बच्चों के साथ पक्षपात पूर्ण व्यवहार करते हैं। तो प्रेम किए जाने वाले बालक में महत्त्वाकांक्षा, अहम, अधिनायक जैसे गुणों का संचार हो जाता है और उपेक्षित बच्चों में माता पिता के प्रति घृणा, विद्वेष एवं प्रतिशोधक संवेगों का संचार होने लगता है। ये बालक निराशावादी एवं संकोची, शर्मीले द्वन्द्वयुक्त बन जाते हैं। परिवार की सामाजिक, आर्थिक स्थिति भी बालक के मूल्यों को अत्यधिक प्रभावित करती है। परिवार के सम्मान एवं मर्यादा के बारे में निरन्तर सुनते रहने से बालक अपने में कुछ निश्चित दृष्टिकोण बना लेते हैं। जिनके प्रभाव से विभिन्न प्रकार के मूल्यों को विकसित करके व्यवहार में उन्हें प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार बालक के अच्छे-बुरे, सामाजिक, असामाजिक, अमीर-गरीब जैसे गुणों एवं जीवन-मूल्यों का आधार परिवार में ही होता है। इसी प्रकार परिवार के ऊपर आर्थिक प्रभाव के कारण अमीर परिवार के बच्चों के मूल्य से सर्वदा पृथक होते हैं। समृद्ध घरों के सुरक्षित एवं निर्भीक होते हैं जबकि गरीब परिवार के बच्चे संकोची, भाग्यवादी तथा निराशावादी जैसे मूल्यों के प्रभाव में विकसित होते हैं। इन बच्चों में सामाजिकता का अभाव तथा चिन्ताएँ अधिक दृष्टिगोचर होती हैं।
परिवार और भौतिक अनुशासन- प्रत्येक समाज में बालक को जन्मजात एवं मूल प्रवृत्तियों को रोकने के लिए कुछ नियमों एवं प्रवृत्तियों का विकास हो जाता है। इन मूल प्रवृत्तियों के नियंत्रण करने यीक विधि को ही मौलिक अनुशासन कहा जाता है। बोनर ने इस प्रकार चार प्रकार के मौलिक ‘अनुशासनों को अनुशासन बताया है जो विकास की दिशा में बालक में प्रजातंत्रीय संबंधी अन्य आवश्यक मूल्यों का विकास करते हैं-
(1) मौखिक अनुशासन- मौखिक अनुशासन का मतलब मुख के द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति एवं अनुकूलन की नियंत्रित अवस्था से है। प्रारम्भ में बालक दुग्धपान या स्तानपान करने के कारण हमेशा माता के संपर्क के लिए लालायित रहता है। बोल स दूध पिलाने वाली माताएँ बच्चों को इस प्रकार के अनुशासन एवं माधुर्य से वंचित कर देती हैं। तत्पश्चात् बालक बड़ा होने पर भाषा का संयत प्रयोग सीखता है तथा शिष्ट भाषा प्रयोग के गुणों को विकसित कर लेता है।
(2) त्याज्य पदार्थ सम्बन्धी अनुशासन- प्रत्येक समाज में मल-मूत्र विसर्जन संबंधी निश्चित नियम होते हैं जिनका पालन व्यक्ति करता है। शौचादि का समय, स्नान प्रक्रिया आदि का प्रशिक्षण बालक परिवार से ही प्राप्त करता है। शौच नियंत्रण के साथ-साथ मूत्र त्याग संबंधी गुण भी परिवार में ही विकसित होते हैं।
अतः इन सबका विकास बच्चों में आवश्यक है। जिससे बालक में लज्जा, शर्म, संकोच, घृणा आदि की भावनाएँ उत्पन्न नहीं।
(3) यौन अनुशासन- यौन कर्म के प्रति उचित दृष्टिकोण भी परिवार ही अप्रत्यक्ष रूप से प्रदान करता है। बालक के शरीर में कुछ ऐसे अंग होते हैं जो स्पर्श मात्र से उत्तेजित हो उठते हैं, इसका ज्ञान छोटे बालक को भली-भाँति होता है। छोटे बालक को नैतिक शिक्षा, संयम, ब्रह्मचर्य के गुणों का ज्ञान प्रदान किया जाना जरूरी है जिससे उसके बड़े होने पर यौन क्रिया के प्रति संकोच युक्त अद्भुत घृणित भावनाओं को विकसित न कर सके।
परिवार तथा सांस्कृतिक लक्षण- संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है। शिक्षण प्रक्रिया में व्यक्ति की क्रिया व्यवस्था में आदतें एवं मनोवृत्तियों के रूप में सांस्कृतिक आदर्शों एवं प्रतिमानों को अपने व्यावहारिक जीवन में ग्रहण करते हैं। संस्कृति के प्रमुख तत्त्वों में जनरीतियाँ, आचार-विचार, संस्कार, सामाजिक मर्यादाएँ, प्रतिमान आदि विशेष महत्त्व रखते हैं। शिक्षा इन सबमें हमारी समावेशन प्रक्रिया को मजबूती प्रदान करती है। बातचीत करने, उठने-बैठने, मिलने-जुलने, शिष्टाचार, अभिवादन के तरीके जनरीतियाँ हैं। नैतिकता, सदाचार की शिक्षा परिवाद से मिलती है। आचार-निषेध रूढ़ियों का पालन भी परिवार में किया जाता है। इस प्रकार बालक को संस्कृति द्वारा विकसित संज्ञा दी जाती है।
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