मूल्यों को बढ़ावा देने में आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण का वर्णन कीजिए।
मानव में मूल्यों का निर्माण कैसे होता है? इस विषय पर इस युग में सबसे अधिक विचार किया है दार्शनिक मूल्य, मनोवैज्ञानिक मूल्य एवं सामाजिक मूल्य।
आध्यात्मिक मूल्य- आध्यात्मिक मूल्यों से उनका तात्पर्य ऐसे मूल्यों से है जो हमारे आध्यात्मिक चिंतन एवं व्यवहार को दिशा प्रदान करते हैं, जैसे- धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। व्यक्ति इस संसार में आता है जिसका अन्तिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति करना है, जिसके लिए वह विभिन्न जीवन मूल्यों का निर्वाह करता है। जैसे ईश्वर की सत्ता स्वीकारना, अहिंसा एवं ब्रह्मचर्य आदि ।
भौतिक मूल्य- भारतीय दार्शनिकों ने भौतिक मूल्यों के अन्तर्गत सहानुभूति, राष्ट्र प्रेम, सेवा तथा सत्य आदि को स्थान दिया है। इसके साथ अमेरिका तर्कशास्त्रियों ने दार्शनिकों मूल्यों को चार भागों में बाँटा है- (1) आन्तरिक मूल्य (2) बाह्य मूल्य (3) अन्तर्निहित मूल्य (4) साधन मूल्य |
हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार “दर्शन विज्ञानों का समन्वय या विश्वव्यापक विज्ञान है।”
सैलर्स के अनुसार– “दर्शन एक ऐसा अनवरत प्रयत्न है, जिसके द्वारा हम संसार एवं अपनी प्रकृति के विषय में क्रमबद्ध अनुभवों द्वारा अन्तर्दृष्टि प्राप्त करते हैं।”
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण- मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से मनुष्यों के मूल्यों के निर्माण की प्रक्रिया के तीन पद होते हैं। संज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक उसके अनुसार बच्चा सर्वप्रथम अपने समाज के व्यवहार मानदण्ड, नैतिक, नियम, सिद्धान्त एवं आदर्शों को बिना सोचे-समझे स्वीकार करता है, उसके बाद उसमें जैसे-जैसे विवेक शक्ति का विकास होता है वह अपने औचित्य के बारे में सोचने समझने लगता है और उन्हें तद्नुकूल महत्त्व देने लगता है तथा उन्हें अपने अन्तर्मन में स्थान देने लगता है एवं जब वे उसकी भावना से जुड़कर उसके अन्तर्मन में स्थान बना लेते हैं तो उसके व्यवहार को, निर्देशित एवं नियंत्रित करने लगते हैं। जब तक वे उसके व्यवहार को निर्देशित एवं नियंत्रित नहीं करते तब तक उन्हें मूल्य नहीं कहा जा सकता है।
सामाजिक दृष्टिकोण- समाजशास्त्रियों की दृष्टि से मनुष्यों में मूल्यों का निर्माण समाजीकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ होता है। उनका स्पष्टीकरण है कि बच्चा जिस समाज की सामाजिक क्रियाओं में भाग लेता है उसी की भाषा सीखता है। उसी के व्यवहार मानदण्डों आदि को अपनाता है एवं इस प्रकार उस समाज में समायोजन करता है। धीरे-धीरे उसमें इनके प्रति स्थायी भाव बन जाता है और यह स्थायी भाव उसके व्यवहार को निर्देशित एवं नियंत्रित करने लगता है एवं हम कह सकते हैं, कि इसमें यथा मूल्यों का निर्माण हो गया ।
समुदाय या आस-पड़ोस एक अवसर पर खुशियाँ मानने में शामिल होता है, इसी प्रकार एक भारतीय विवाह मेल-जोल का आयोजन है, जिसमें न केवल वर एवं वधू, बल्कि दो परिवारों का संगम होता है। चाहे उनकी संस्कृति या धर्म का मामला हो। इसी प्रकार दुःख में भी पड़ोसी और मित्र उस दर्द को कम करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
भारत की वैश्विक छवि एक उभरते हुए प्रगतिशील राष्ट्र की है। भारत में सभी क्षेत्रों में कई सीमाओं को हाल के वर्षों में पार किया है, जैसे कि वाणिज्य, प्रौद्योगिक एवं विकास आदि। इसके साथ उसने अपनी अन्य रचनात्मक बौद्धिक को उपेक्षित भी नहीं किया है।
आज के समय में व्यक्ति के जीवन की बढ़ती जटिलताओं के साथ लोग निरन्तर ऐसे माध्यम की खोज कर रहे हैं, जिसके माध्यम से वे मन की कुछ शान्ति पा सकें। यहाँ एक और विज्ञान है, जिसे हम ध्यान के नाम से जानते हैं तथा इसके साथ जुड़ी है आध्यात्मिकता। ध्यान एवं योग्य भारत भारतीय आध्यात्मिकता के समानार्थी है। ध्यान लगाना योग का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है, जो व्यायामों की एक श्रृंखला सहित मन एवं शरीर का उपचार है, जबकि योग में ध्यान का मतलब सामान्य रूप से मन को अधिक औपचारिक रूप से केन्द्रित करने एवं स्वयं को एक क्षण में देखने में संदर्भ किया जाता है।
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