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परिवार का अर्थ तथा इसके संगठन एवं संरचना और परिवार द्वारा बालक में मूल्यों के विकास

परिवार का अर्थ तथा इसके संगठन एवं संरचना को स्पष्ट करते हुए परिवार द्वारा बालक में मूल्यों के विकास
परिवार का अर्थ तथा इसके संगठन एवं संरचना को स्पष्ट करते हुए परिवार द्वारा बालक में मूल्यों के विकास

परिवार का अर्थ तथा इसके संगठन एवं संरचना और परिवार द्वारा बालक में मूल्यों के विकास

परिवार क्या है? इसके संगठन एवं संरचना को स्पष्ट करते हुए परिवार द्वारा बालक में मूल्यों के विकास को स्पष्ट कीजिए।

परिवार से आशय- बालक अपने पारिवारिक मूल्यों की अनुकृति होता है जिनका अनुमान हम क्रियात्मक व्यवहारों, संवेगों आदि को देखकर ज्ञात कर लते हैं। अतः परिवार ही मूल्यो के विकास की प्रथम सोपान या ईकाई होते हैं। अन्य संस्थाएं तो उन मूलभूत मूल्यों के परिमार्जन विकास तथा उन्नतिशील बनाने में सहयोग प्रदान करती हैं।

परिवार का अर्थ- ‘परिवार’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘फेमली’ शब्द का रूपान्तर है। यह लैटिन के शब्द ‘फेमूलस’ से बना है। फेमुलस-नौकर (Servant) । इस प्रकार परिवार शब्द का शाब्दिक अर्थ है ऐसी संस्था जो सेवा या नौकर के रूप में कार्य करती है।

“परिवार के अन्तर्गत पति-पत्नी एवं एक से अधिक बच्चे स्थायी रूप से निवास करते हैं।” कुछ समय पूर्व संयुक्त परिवारों के प्रचलन के समय पति-पत्नी के अतिरिक्त माता-पिता को भी सम्मिलित किया जाता था। परन्तु भारतवर्ष में आधुनिक परिवार विघटित एवं एकाकी परिवार के रूप में दिखाई देते हैं। संक्षिप्त में यही कारण है कि आधुनिक समय में मूल्यों का द्रुत ह्रास दृष्टिगोचर हो रहा है एवं आधुनिक भारतीय परिप्रेक्ष्य में मूल्य शिक्षा, नैतिक शिक्षा, माता-पिता की नैतिक शिक्षा जैसे विषयों पर विचार किया जा रहा है एवं उन्हें पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किया गया है।

सर्वविदित तथ्य यह है कि आधुनिक समय में परिवारों का महत्त्व कम होता जा रहा है। लेकिन परिवार के अभाव में आज भी बालक सही मूल्यों की शिक्षा से वंचित हो जाते हैं। परिवार के इस महत्त्व को विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने विभिन्न प्रकार से माँ के घुटने का विद्यालय (The School of Mother’s Knee), रूसो ने माता को नर्स एवं पिता को शिक्षक, पेस्टॉलाजी ने परिवार के वातावरण को शिक्षा के लिए सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली वातावरण के रूप में स्वीकार किया है। यंग एवं मेक परिवार की मानवीय मूल्यों में भूमिका को समझाते हुए लिखते हैं-

“परिवार मानवीय मूल्यों में सबसे पुराना तथा सबका आधार है। इसका स्वरूप भिन्न-भिन्न समाजों में भिन्न रूप में दृष्टिगोचर होता है परन्तु सभी का कार्य बालकं का पालन-पोषण तथा सामाजिक संस्कृति का ज्ञान प्रदान करना है। संक्षेप में बालक का सामाजीकरण करना। “

टी. रेमाण्ट ने परिवार की भूमिका को समझाते हुए उसकी महत्ता को निम्न शब्दों में स्वीकार किया है-

“दो बालकों को एक समान स्कूल में शिक्षा देने के बाद भी उनके सामान्य ज्ञान रुचियों एवं अभिव्यक्तियों के तरीकों में अन्तर पाया जाता है। इसका मूल कारण दोनों बालकों के अलग-अलग परिवार होते हैं। “

किम्बल यंग ने परिवार समाजीकरण की उत्तम प्रक्रिया मानते हुए लिखा- “परिवार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है एवं परिवार में निःसंदेह माता-पिता सामान्य रूप से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं। “

परिवार में मूल्यों का विकास किस प्रकार होता है, इसे समझने के लिए परिवार में बालक के विकास तथा संविधान मूल्यों के समावेश पर विचार करेंगे।

परिवार एक संगठन के रूप में- परिवार एक ऐसा संगठन है जिसमें परम्परागत एवं पूर्व स्थापित प्रतिमानों के अनुसार सदस्यों को चलना पड़ता है। परिवार में सभी सदस्यों की भूमिकाएँ एवं स्थितियाँ अलग-अलग रहती हैं। बालक परिवार के इस संगठन एवं उसकी मूल व्यवस्था के अनुसार अपने व्यवहार को ढालता है। सबसे पहले बालक को प्रभावित करने वाला पारिवारिक सदस्य माता होती है। माता एवं बालक की घनिष्ठता एवं संबंधों की गहनता सामाजीकरण के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्त्रोत माने जाते हैं। माता के बाद पिता बालक के जीवन को, उसके आचार-विचार को प्रभावित करते हैं। उनकी क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ बालक के मूल्यों का निर्धारण करती हैं। एक संगठन के रूप में परिवार ही मूल्यों की प्राथमिक पाठशाला के रूप में कार्य करता है। प्रयोगात्मक दृष्टि से परिवार बालक की प्रारम्भिक अनुभूतियों का केन्द्र स्थल होता है जहाँ प्रेम, दुलार, डाँट-फटकार, गुहार-मनुहार एवं स्वतंत्र सहकार के मध्य वह संचार से परिचय प्राप्त करता है जिसमें उसे अपने जीवन का निर्वाह करना है।

पारिवारिक योगदान एवं बाल विकास-

बच्चे के मूल्य परिवार के सदस्यों द्वारा किये जाने. वाले व्यवहार द्वारा भी निर्धारित होते हैं। वास्तव में बालकों को परिवार के अन्दर उन सभी मूल्यों एवं आचरण प्रतिमानों का प्रशिक्षण मिल जाता है जो इसके भावी जीवन में उसके साथ रहते हैं। उदाहरण के लिए सम्मान, आज्ञाकारिता, सहयोग, सहभागिता आदि। इसे वह घर में बड़े-छोटे, रिश्तेदारों, पड़ोसी आदि के साथ किए गए व्यवहार के आधार पर सीखता है। अतः परिवार मूल्यों की लघु अभिव्यक्ति होती है। सामाजिक क्षेत्र के वृहद् मूल्यों के अंकुर इन्हीं पारिवारिक अन्तः क्रियाओं में रोपे जाते हैं।

परिवार के निम्नवत् प्रमुख संबंध बालक के मूल्यों के निर्धारक होते हैं-

(1) अपने माता-पिता के आदर्श व्यवहार से ही बच्चे व्यवहार एवं मूल्यों की संकल्पना करते हैं। तथा उनका अनुसरण भी करते हैं। जो पति पत्नी शान्त एवं सौहार्द्र से रहते हैं, उनके बच्चे भी शान्त, सौहार्द्र तथा संतुलित गुणों का विकास करते हैं। संयमहीन पति-पत्नी अपने बालकों में गलत भावनाओं, विचारों एवं मूल्यों को बढ़ावा देने का कार्य करते हैं। अतः माता-पिता का झगड़ालू होना संयमहीन होना, बच्चों के साथ पक्षपात पूर्ण व्यवहार करना, अनुशासन न रखना आदि गलत प्रवृत्तियों का द्योतक रहते हैं।

(2) पिता भी बालक के व्यवहार को निर्देशित कर विभिन्न मूल्यों के विकास में सहयोग प्रदान करता है। पिता परिवार का मुखिया होता है। अनुशासन एवं सामाजिक मान्यताओं की शिक्षा बालकों को प्रायः पिता द्वारा ही प्राप्त होती है। बालक प्रायः पिता के आचरण का अनुसरण करके भावी सामाजिक मूल्यों का विकास करते हैं।

(3) किम्बाल यंग के अनुसार- “पारिवारिक स्थिति के अन्तर्गत मौलिक, अंतःक्रियात्मक के आधार माता एवं बच्चे के बीच है।” भूख लगने पर दूध पिलाना, लोरियाँ सुनाकर सुलाना, स्नेह से पुकारना, चूमना आदि क्रियाएँ बालक को प्रेम, सहानुभूति तथा सौहार्द्र से ओत-प्रोत कर देती हैं। इस प्रकार माता के प्रति मानसिक लगाव बालक को अनेक मूल्य से ओत-प्रोत करके उनका अनुसरण करने, के लिए बाध्य कर देता है। स्टेनले हाल ने भी कहा है कि माता यदि बच्चे को फरिश्ता कहकर पुकारती है तो बालक भी अपने को परिश्ता समझकर व्यवहार करता है और इसके विपरीत माँ यदि उसे बदमाश कहकर पुकारती है तो वह उसी प्रकार के गुणों का विकास कर लेता है।

(4) घर में माता-पिता के अतिरिक्त भाई-बहन भी रहते हैं। उनके पारस्परिक सम्बन्ध भी बच्चों में वांछनीय मूल्यों के विकास में सहयोग देते हैं। यदि बालक के व्यवहार में कोई अवांछनीय परिवर्तन आ जाता है। जैसे- चोरी करना, झगड़ा करना, झूठ बोलना, ईर्ष्या करना आदि तो सभी बालकों के व्यवहार एवं मूल्यों पर इसका प्रभाव पड़ता है।

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