भारत में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
मैकियावेली ने राजनीति एवं धर्म को जान-बूझकर तथा औपचारिक रूप से पृथक् कर दिया। उन्होंने कहा कि भावी जीवन में आनंद प्राप्त करने के लिए मनुष्य को ईश्वरीय कानून के निर्देशन की आवश्यकता नहीं है। मानव का एक मात्र एक लक्ष्य हो सकता है वह है- इस जीवन में सुख की प्राप्ति, यही धर्म निरपेक्षता का मूल है।
अतएव इसकी प्राप्ति हेतु व्यक्ति के जीवन पर राज्य का नियंत्रण होना चाहिए एवं राज्य अपनी शक्ति तथा हितों की रक्षा के लिए आवश्यकतानुसार नैतिक तथा नैतिक सभी उपाय अपना सकता है।
भारत में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा- संविधान निर्मात्री सभा के एक सदस्य हरि विष्णु तो ईश्वरहित है, न ही वह कामथ ने संविधान सभा में कहा था कि “एक धर्मनिरपेक्ष राज्य न अधर्मी राज्य है और न ही धर्म विरोधी राज्य है”
पं. नेहरू ने कहा था- “धर्म निरपेक्ष राज्य का अर्थ है- धर्म एवं आत्मा की स्वतन्त्रता। जिसका अर्थ है- “सामाजिक एवं राजनीतिक समानता।”
संविधान में यह भी आदेश दिया गया है कि सार्वजनिक व्यवस्था, राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा सदाचार को ध्यान में रखते हुए सभी व्यक्तियों को धर्म, उपासना तथा अंतःकरण की स्वतंत्रता का पूरा अधिकार होगा।
धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को प्रदान करने हेतु भारतीय संविधान के अन्तर्गत निम्नवत् व्यवस्थाएँ की गई हैं-
- अस्पृश्यता का अंत
- धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा।
- धार्मिक स्वतंत्रता ।
- धार्मिक संस्थाओं की स्थापना तथा धर्म प्रचार की स्वतंत्रता।
- धार्मिक कार्यों के लिए किए जाने वाले व्यय कर से मुक्ति।
- धार्मिक शिक्षा का निषेध
धर्म निरपेक्षता के आधार स्तम्भ-
इसका वर्णन इस प्रकार है-
(1) स्वतंत्रता एक उत्सव है- आजादी एक चुनौती है।
(2) भारत को शासन में ऐसे रचनात्मक चितन की आवश्यकता है, जो त्वरित गति से विकास में सहयोग दे तथा सामाजिक सौहार्द्र का भरोसा दिलाए। राष्ट्र को पक्षपातपूर्ण उद्वेगों से ऊपर रखना होगा, जिसमें जनता का स्थान सर्वोपरि रहेगा।
(3) सुशासन व्यवस्था में विधि के शासन सहभागिता पूर्ण निर्णयन, पारदर्शिता, तत्परता, जवाबदेही, सभ्यता तथा समावेशिता पर पूरी तरह निर्भर रहता है, इसके तहत राजनीतिक प्रक्रिया में सिविल समाज की व्यापक भागीदारी की अपेक्षा होती है। इसमें युवाओं की लोकयन्त्र की संस्थाओं में सघन सहभागिता आवश्यक होती है।
(4) भारत जैसे आकार, विविधताओं तथा जटिलताओं वाले देश के लिए शासन के संस्कृति आधारित मॉडलों की जरूरत है। इसमें शक्ति के प्रयोग तथा उत्तरदायित्व के वहन में सभी भागीदारों का सहयोग अपेक्षित हैं, जिसके लिए राज्य तथा उसके नागरिकों के बीच रचनात्मक भागीदारी की जरूरत होती है।
(5) भारतीय संविधान लोकतांत्रिक संस्कृति की परिणति है, भारत के पास 21वीं सदी का वर्चस्व कायम करने के लिए इच्छाशक्ति, ऊर्जा, बुद्धिमत्ता, मूल्य एवं एकता मौजूद है। धर्म निरपेक्ष मूल्यों की निरन्तर प्रगति इस प्रक्रिया को बढ़ा सकता है।
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