अष्टांग योग मार्ग क्या है? (Eight Fold Yoga in Hindi)
अष्टांग योग मार्ग क्या है? – योग दर्शन, सांख्य दर्शन के समान अविद्या को समस्त क्लेशों की जड़ बताता है किन्तु जहाँ सांख्य दर्शन विद्या द्वारा अविद्या की निवृत्ति पर जोर देता है, वहाँ योग दर्शन हेतु इस क्रियात्मक प्रयत्न को अधिक महत्त्व देता है। चित्त-वृत्तियाँ, जो आत्मा पर आवरण डाले पड़ी रहती हैं, सहज ही आत्मा से दूर नहीं होती, इस हेतु मनुष्य को शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से प्रयत्न करना आवश्यक होता है। यह प्रयत्न ही योग दर्शन में अष्टांग मार्ग के नाम से जाना जाता है। महर्षि पतंजलि कहते हैं, “योग के अंगों का अनुष्ठान करने से अशुद्धि का नाश होता है, जिससे ज्ञान का प्रकाश चमकता है, जिससे कि विवेक ख्याति की प्राप्ति होती है। “
अभ्यास और वैराग्य- यहाँ उल्लेखनीय है कि इस अष्टांग योग का उल्लेख करने के पूर्व योग दर्शन चित्त-वृत्ति के निरोध के लिए दो शर्त अनिवार्य बताता है- (1) अभ्यास, (2) वैराग्य। चित्त को वृत्ति रहित करने का प्रयत्न करना अभ्यास है तथा तृष्णा रहित होना वैराग्य है। अब हम अष्टांग योग के आठ अंग क्या-क्या हैं, यह देखेंगे-
आठ अंग-
महर्षि पतंजलि के अनुसार, “यमनियमासनप्राणायम प्रत्याहार धारणाध्यानसमाधयोऽष्टवंगानि।” अर्थात् यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि- ये आठ योग के अंग हैं।
इनमें से प्रथम पाँच योग के बहिरंग साधन कहे जाते हैं क्योंकि ये अप्रत्यक्ष रूप से योग के लक्ष्य की पूर्ति में सहायक होते हैं। अन्तिम तीन अर्थात् धारणा, ध्यान तथा समाधि, अन्तरंग साधन कहे जाते हैं क्योंकि ये लक्ष्य की प्राप्ति में सीधे सहायक होते हैं।
अब हम आठों अंगों पर अलग-अलग विचार करेंगे-
1. यम- (Absention)-
यम का अर्थ है ‘नियन्त्रण’ अथवा ‘संयम’ नियन्त्रण मन, वचन तथा शरीर तीनों पर होना चाहिए। आन्तरिक शक्ति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले बाह्य जीवन को सात्विक और दिव्य बनाना जरूरी है। यमों का पालन इसे ही सम्भव बनाता है। भारतीय नीतिशास्त्र में यमों को सर्वोपति महत्त्व मिला है। यम पाँच प्रकार के हैं-
(अ) अहिंसा- किसी भी समय किसी भी प्राणी को, किसी भी तरह का कष्ट न पहुँचाना अहिंसा है। वस्तुतः अहिंसा ही सभी सद्गुणों का मूल है।
(ब) सत्य- सत्य का अर्थ है यथावत् कहना तथा वैसा ही व्यवहार करना।
(स) अस्तेय- अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना।
(द) ब्रह्मचर्य- इन्द्रियों पर संयम रखते हुए विषय-वासना से बचना ब्रह्मचर्य हैं।
(इ) अपरिग्रह – अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह न करना अपरिग्रह है। स्पष्ट है कि इन यमों का निषेधात्मक महत्त्व अधिक है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का मतलब है- हिंसा, असत्य, चोरी, इन्द्रियलोलुपता तथा परिग्रह से बचना। इन्हें ‘महाव्रत’ कहा गया है।
2. नियम (Observances)-
यम के समान नियम भी पाँच बताये गये हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान।
( अ ) शौच- शौच का अर्थ है शुद्धि अथवा सफाई। यह सफाई शरीर तथा मन दोनों की होनी चाहिए। तृत्तिका, जल तथा नियमित आहार आदि के द्वारा शरीर को शुद्ध तथा स्वस्थ रखना चाहिए तथा शुद्ध विचारों द्वारा मन को स्वस्थ रखना चाहिए।
( ब ) सन्तोष- सन्तोष का अर्थ सब प्रकार की तृष्णा का त्यागकर उचित प्रयत्न के पश्चात् जो भी फल मिले उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करना है। सन्तोष से सर्वोत्तम सुख मिलता है।
(स) तप उचित रीति और अभ्यास से शरीर तथा मन को सभी प्रकार के द्वन्द्वी यथा, सर्दी-गर्मी, हर्ष-विषाद आदि को सहन करने योग्य बनाना तप है। तप से अशुद्धि दूर होती
(द) स्वाध्याय – वेद, उपनिषद् आदि धर्म ग्रन्थों का नियमपूर्वक अध्ययन करना स्वाध्याय है। इससे इष्ट देवता का साक्षात् होता है।
(इ) ईश्वरप्रणिधान- ईश्वरप्रणिधान का अर्थ ईश्वर में ध्यान लगाना तथा स्वयं को पूर्णतः उस पर आश्रित कर देता है। इससे समाधि की सिद्धि होती है।
3. आसन (Postures)-
आसन का अर्थ होता है, बैठना। योग की सिद्धि के लिए उचित आसन, दूसरे शब्दों में उचित तरीके से बैठना आवश्यक है, किन्तु आसन कौन-सा उचित होगा, यह हम कैसे जानेंगे? पतंजलि कहते हैं, ‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात् जिस रीति से हम स्थिरतापूर्वक, बिना हिले-डुले और सुख के साथ, बिना किसी कष्ट के दीर्घकाल तक बैठ सकें, वह आसन है।
हठयोग में आसन अनेक प्रकार के बताये गये हैं; जैसे, पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, मयूरासन, शीर्षासन, भुजंगासन आदि। वैसे तो इन आसनों से शरीर के विकार दूर होते हैं तथा वह स्वस्थ रहता है, किन्तु आसन का मुख्य उद्देश्य ध्यान में सहायक होना है। ध्यान में सर्दी गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वन्द्वों के कारण बाधाएँ आती हैं। पतंजलि कहते हैं, ‘ततो द्वन्द्वानभिघातः’ अर्थात् आसन से द्वन्द्वों को चोट नहीं लगती। इस तरह आसन ध्यान में सहायक होते हैं।
4. प्राणायाम (Breath Control) –
उचित आसन में स्थिर होने के पश्चात् योग दर्शन में प्राणायाम करने का निर्देश दिया गया है।
प्राणायाम के विषय में पतंजलि कहते हैं, “श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति को रोकना ही प्राणायाम है।”
श्वास का अर्थ है, बाहर की वायु को नासिका द्वारा अन्दर प्रवेश कराना तथा प्रश्वास का अर्थ है, कोष्ठ स्थित वायु को नासिका द्वारा बाहर निकालना। वस्तुतः प्राणायाम द्वारा श्वास प्रश्वास की गति पर नियन्त्रण किया जाता है।
प्राणायाम क्रिया के तीन भेद हैं
(1) पूरक- श्वास को भीतर खींचकर रोकना पूरक है।
(2) रेचक- भीतर की वायु को बाहर निकालकर बाहर ही रोक देना रेचक है।
(3) कुंभक- कुंभक में बिना पूरक और रेचक किये, श्वास-प्रश्वास की गति को रोक दिया जाता है।
वैसे तो प्राणायाम के अनेक लाभ हैं, जैसे इससे हृदय और आन्तरिक अंगों को शक्ति मिलती है, चंचल मन नियन्त्रण में आता है तथा शरीर में स्थिरता आती है आदि। किन्तु इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे विवेक ज्ञान होता है जैसा कि स्वयं पतंजलि कहते हैं, “ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्” अर्थात् इसके अभ्यास से विवेक-ज्ञान पर पड़ा आवरण क्षीण हो जाता है। इसी तरह पंचशिखाचार्य कहते हैं, “प्राणायाम् से बढ़कर कोई तप नहीं है, इससे चित्त के मल धुल जाते हैं और ज्ञान का प्रकाश होता है। “
5. प्रत्याहार (Sense Control ) –
प्रत्याहार का अर्थ होता है पीछे की ओर हटाना या लौटाना।
अष्टांग योग के इस पाँचवें अंग प्रत्याहार में इन्द्रियों को उनके बाह्य विषयों से हटाकर उन्हें अन्तर्मुखी वृत्ति वाली बनाने का उपदेश दिया गया है।
इन्द्रियाँ स्वभावतः बहिर्मुखी होती हैं। प्रत्याहार द्वारा उन्हें अन्तर्मुखी बनाने का उपदेश दिया गया है। इस तरह प्रत्याहार का अर्थ इन्द्रियों को वश में करना है।
वस्तुतः इन्द्रियों को वश में करने का मुख्य लाभ यह है कि इससे मन की चंचलता थमती है। ये इन्द्रियाँ ही होती हैं जो मन को चलायमान करती हैं। अतः इन्द्रियों को विषयों से हटाना, ऐसे हटाना कि विषय सामने हो, फिर भी इन्द्रियाँ निर्विकार बनी रहें, प्रत्याहार है। ऐसी स्थिति ही ध्यान में सहायक होती है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि उपरोक्त पाँच अंग, यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार, जो ‘बहिरंग’ कहे जाते हैं, योग के सहायक साधन हैं। ये योग के अन्तर्निहित अंश नहीं हैं। ये केवल आत्मशुद्धि की अवस्था को प्रस्तुत करते हैं।
अब हम आगे योग के जिन शेष तीन अंगों ध्यान, धारणा, समाधि का वर्णन करेंगे, वे योग के अन्तर्निहित अंश हैं, इन्हें ही ‘अन्तरंग’ साधन कहा जाता है। इन्हें ‘संयम’ भी कहते हैं।
6. धारणा (Fixing of mind on a particular subject) –
यम-नियम द्वारा शारीरिक तथा मानसिक शुद्धि होने के पश्चात् जब आसन, प्राणायाम एवं प्रत्याहार द्वारा चित् स्थिर हो जाता है तब योग दर्शन में धारणा का आदेश है।
धारणा का अर्थ है चित्त को अन्य विषयों से हटाते हुए एक विशेष ध्येय की ओर स्थिर करना, जैसा कि पतंजलि कहते हैं, ‘देशबन्धः चित्तस्य धारणा’ अर्थात् चित्त को देश-विशेष में बाँधना धारणा है।
किन्तु यह ध्येय (ध्यान का विषय) क्या होना चाहिए? योग दर्शन में अनेक ध्येय बताये गये हैं, जैसे, नाभि, हृदय-कमल, नासिका अग्रभाग, भृकुटी, चन्द्र, ध्रुव, किसी देवता अथवा इष्ट की मूर्ति आदि।
धारणा का उद्देश्य चित्त को एकाग्र बनाना है। इसके द्वारा मानसिक शक्ति के प्रवाह को एक विषय की ओर प्रेरित करना सम्भव होता है। वस्तुतः इससे मन ध्यान के लिए तत्पर होता है।
7. ध्यान (Meditation)-
ध्यान वस्तुतः धारणा का ही परिणाम है। जब ध्येय से युक्त मन केवल ध्येय को ही देखता है, दूसरे पदार्थ को नहीं जानता, तो उसे ध्यान कहते हैं। इस तरह ध्यान वह दशा है जिनमें आत्मा को एक वस्तु का ज्ञान होता है, अन्य वस्तुओं का विचार मन में उठता ही नहीं। इसमें ध्येय का निरन्तर मनन होता है।
पतंजलि के अनुसार, ‘तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्’ अर्थात् ध्येय में वृत्ति का एक सा बने रहना ही ध्यान है।
ध्यान से आत्मा अविद्या के प्रभाव से मुक्त होती है। उस पर पदार्थ का वास्तविक रूप प्रगट होता है तथा उसे मुक्ति का आभास होता है। है।
8. समाधि (Concentration)-
समाधि अष्टांग योग का आठवाँ एवं अन्तिम अंग है।
‘समाधि’ शब्द का अर्थ है, एकाग्र करना। यहाँ योगदर्शन में इसका अर्थ है ‘मन को एकाग्र करना। जैसा कि भोज कहते हैं, “जिसमें मन विक्षेपों से हटाकर एकाग्र किया जाता है वह “समाधि है।”
किन्तु मन को एकाग्र तो इसके पूर्व के अंग अर्थात् ‘ध्यान’ में भी किया जाता है। फिर समाधि की क्या विशेषता है?
समाधि वस्तुतः ध्यान की ही अगली एवं पूर्णावस्था है। समाधि और ध्यान में अन्तर यह है कि ध्यान में जहाँ ध्येय का ध्यान रहता है वहाँ समाधि में ध्यान ही ध्येय बन जाता है। इससे ध्याता और ध्येय के मध्य का भेद मिट जाता है और ध्याता ‘मैं’ की सत्ता भूलकर ध्येय से एकाकार हो जाता है। इस तरह यह एक प्रकार की आत्मविस्मृति की अवस्था है। इस अवस्था में समस्त चित्त-वृत्तियाँ रुक जाती हैं और चित्त आत्मा में लीन हो जाता है।
समाधि अष्टांग योग का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है क्योंकि मोक्ष तक पहुँचने का यह अन्तिम पड़ाव है। योग दर्शन में इसे इतना महत्त्व दिया गया है कि प्रायः इसे ही योग कह दिया जाता है- ‘योगः समाधिः ।
समाधि से नित्य पद की प्राप्ति होती है। इससे पुरुष आध्यात्मिक चेतना को प्राप्त करता है। इसकी सिद्धि के उपरान्त ही उसे तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है।
समाधि परम शान्ति की अवस्था है। इसमें बाह्य संसार का कोलाहल बिल्कुल सुनाई नहीं देता। यह एक रहस्यमय अवस्था है, जिसका पूर्ण अनुभव इस अवस्था से गुजरे बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता। किन्तु यह गहरी नींद अथवा मूर्च्छावस्था के समान शान्त अवस्था नहीं है, क्योंकि समाधिं व्यक्ति को प्रज्ञावान बनाती है। वस्तुतः समाधि व्यक्ति के सम्पूर्ण चरित्र को ही बदल देती है, जबकि निद्रा अथवा मूर्च्छा के बाद ऐसा कोई परिवर्तन व्यक्ति में नहीं होता। समाधि से व्यक्ति अनेकानेक प्रकार सिद्धियाँ भी प्राप्त करता है, जैसे-
अणिमा- अर्थात् अणु के समान छोटा बन जाना। लघिमा- अर्थात् हल्का बनकर ऊपर उठ सकना।
महिमा- अर्थात् पहाड़ के समान भारी बन सकना।
प्राप्ति- अर्थात् कहीं से भी कोई भी वस्तु प्राप्त कर सकना।
प्रकाम्य- अर्थात् इच्छा की सिद्धि होना।
वशित्व- अर्थात् सब प्राणियों को अपने वश में कर सकता।
ईशित्व- अर्थात् समस्त भौतिक पदार्थ पर अधिकार जमा सकना ।
यथाकामावसायिता- अर्थात् संकल्पों की सिद्धि हो सकना ।
योग दर्शन के अनुसार यद्यपि योगी उपरोक्त आठ प्रकार की सिद्धियों का योग कर सकता है किन्तु यहाँ स्पष्टतः योगी को इनका अपने ऐश्वर्य लाभ की प्राप्ति के लिए प्रयोग करने की मनाही है क्योंकि ये व्यक्ति को पथभ्रष्ट कर सकती हैं। योगी का लक्ष्य कैवल्य (मोक्ष) प्राप्ति होता है, न कि इनकी प्राप्ति।
समाधि के भेद-
योग दर्शन में समाधि के मुख्य दो भेद बताये गये हैं
1. सम्प्रज्ञात समाधि 2. असम्पप्रज्ञात समाधि।
1. सम्प्रज्ञात समाधि- यह ध्यान से समाधि तक पहुँचने की पहली अवस्था है। वैसे समाधि में ध्याता और ध्येय के मध्य अन्तर मिट जाता है किन्तु प्रारम्भिक अवस्था में यह अन्तर बना रहता है। इसीलिए यहाँ ध्याता को ध्येय का अर्थात् जिस पर ध्यान केन्द्रित किया जा रहा हो, उसका ज्ञान रहता है। इसकी भी चार अवस्थाएँ हैं-
(1 सवितर्क- इसमें ध्यान का आलम्बन अर्थात् स्थूल पदार्थ; जैसे, तन्मात्र होते हैं।
( 2 ) सानन्द- इसमें इन्द्रिय आदि सूक्ष्म पदार्थों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इससे आनन्द मिलता है।
( 3 ) सस्मित- इसमें अहंकार पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। अहंकार अस्मिता (मैं-पन) है, इसलिए इसे सस्मित कहते हैं।
2. असम्प्रज्ञात समाधि- समाधि की इस अवस्था में ध्यान का आलम्बन अर्थात् ध्येय पूर्णतः लुप्त हो जाता है। इसके अनन्तर ही व्यक्ति की प्रज्ञा पूर्णतः जाग्रत होती है और वह मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि सम्प्रज्ञात समाधि को सबीज समाधि तथा असम्प्रज्ञात को निर्बीज समाधि भी कहते हैं।
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