वर्तमान मूल्यों के प्रकारों की स्पष्ट व्याख्या कीजिए।
मानव जीवन को सुव्यवस्थित रखने हेतु आज कुछ मूल्य अविस्मरणीय हैं। व्यक्ति की आवश्यकताएँ दो प्रकार की होती हैं। एक वैयक्तिक, द्वितीय सामाजिक एवं आध्यात्मिक। इनके अन्तर्गत वे आवश्यकताएँ समाहित हैं, जिनका संबंध मानवीय साहचर्य पारिवारिक जीवन, आर्थिक सुरक्षा, नगरीय सुरक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य एवं दैनिक सुरक्षा से बताया गया है। मनुष्य की रचना एवं प्रकृति ऐसी है कि वह इन आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना जीवित नहीं रह सकता है। मनुष्य इन्हीं जरूरतों की पूर्ति हेतु विभिन्न क्रियाएँ किया करता है। इन क्रियाओं एवं वस्तुओं के प्रयोग का मानव जीवन में कुछ ‘मूल्य’ होता है। ‘मूल्य’ इस प्रकार व्यक्ति के जीवन एवं उसकी प्रत्येक क्रियाओं एवं व्यवहार से संबंधित होता है। मूल्यों का वर्गीकरण निम्न वर्णित है-
(1) शारीरिक मूल्य- शारीरिक शिक्षा के द्वारा व्यक्ति स्वास्थ्य, शक्ति, लचीलापन,.. सौन्दर्य एवं चुस्ती जैसे गुणों अथवा मूल्यों को प्राप्त करता है। अतः शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे बालक का शरीर स्वच्छ एवं बलवान हो सके। प्राचीन युग में छात्र की शारीरिक शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया जाता था क्योंकि शारीरिक शक्ति ही स्वस्थ मानसिक शक्ति की प्रतीक मानी जाती थी। शारीरिक मूल्यों के विकास से व्यक्ति में उत्साह, स्फूर्ति, मानसिक एवं चारित्रिक गुणों में वृद्धि तथा विकास संभव होता है। अतः शिक्षा में शक्तिवर्द्धन एवं शारीरिक विकास का उद्देश्य व्यक्ति एवं राष्ट्र दोनों के लिए लाभदायक है। खेलकूदों, व्यायाम, शारीरिक श्रम की पाठ्येत्तर क्रियाओं को अनिवार्य स्थान दिया जाना चाहिए। इससे छात्रों में अनुशासन, सहनशीलता, दूसरों का सम्मान, स्फूर्ति, धैर्य, निर्णय क्षमता, शारीरिक शक्ति आदि मूल्यों का विकास होता है।
(2) नैतिक मूल्य- चरित्र व्यक्ति के गुणों का बाह्य प्रकटीकरण है एवं नैतिकता उसका आन्तरिक स्वरूप है। अतः चरित्र को आदतों का समूह भी कहा जाता है। चरित्र के अन्तर्गत कार्यों में नियम पालन, कर्तव्य परायणता, ऊँचे आदर्श, सौन्दर्यानुभूति के गुण पाये जाते हैं। नैतिक नीति शब्द से निर्मित है। नीति का अर्थ है जिसे व्यक्ति एवं समाज मिलकर स्वीकार करते हैं तथा यह व्यक्ति एवं समाज दोनों का मार्गदर्शन करते हैं। अतः नैतिकता का संबंध हमारी अभिरुचियों से होता है। चरित्रवान व्यक्ति बुद्धिमान माना जाता है। उसे अच्छे, बुरे, हित, अहित, सदाचार, अनाचार, सहृदय, निर्दयता आदि के गुणों का ध्यान रहता है। गाँधीजी के अनुसार- ऐसे व्यक्ति उत्साह, शक्ति, गुण एवं महान आदशों के लिए अपने वैयक्तिक स्वार्थों की तिलांजलि दे देते हैं। चारित्रिक मूल्य के अंतर्गत समाज के लिए कष्ट सहन करना, जीवों पर दया, क्षमा, अहिंसा आदि आते हैं। आजकल हमारे विद्यालयों में नैतिक शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया है तथा पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा को प्रमुख स्थान प्रदान किया है। नैतिक शिक्षा में समस्त धर्मों के पाठ्यक्रमों को सम्मिलित किया जाता है। चरित्र निर्माण के सभी गुणों को उदाहरण एवं कहानियों के माध्यम से नैतिक शिक्षा के रूप में पढ़ाया जाता है।
(3) सभ्यता एवं सांस्कृतिक मूल्य- ई.वी. टेलर के अनुसार- सांस्कृतिक मूल्यों के अन्तर्गत ज्ञान, विश्वास, कला, नीति, न्याय, रीति-रिवाज, अन्य क्षमताएँ तथा आदतें आती हैं। इन्हें व्यक्ति समाज के उत्तरदायी सदस्य के रूप में ग्रहण करता है अर्थात् समाज की संस्कृति का अर्थ है- समाज में जीवन जीने की कला। अतः शैक्षिक परिप्रेक्ष्य में सभ्यता एवं संस्कृति का विशेष महत्त्व होता है, जो हमारी विरासत की परिसीमा हुआ करती है।
(4) शैक्षिक मूल्य शैक्षिक मूल्यों- की प्राप्ति हेतु विद्यालयों का विषय सम्बन्धी व्यापक, व्यावहारिक, उपयोगी, वृद्धिवर्धक उत्सुकता बढ़ाने वाला एवं व्यक्तित्व निर्माण में सहायक ज्ञान उचित रूप से प्रदान करना चाहिए। विषयों की सार्थकता आधुनिक काल में तभी मानी जाती है जब कि वे व्यावहारिक जीवन से संबंधित किए जाएँ। इसके अलावा ज्ञान वृद्धि हेतु पुस्तकालय, रेडियो, टेलीविजन, सेमिनार, वर्कशाप आदि का भी सहारा लिया जाना चाहिए। शिक्षण पद्धति में वाद विवाद, विचार विनिमय, लोगों के भाषण, उत्सव एवं अभिनय के माध्यम से क्रियाशीलता लानी चाहिए। इस सबसे बौद्धिक विकास अच्छा एवं सर्वतोमुखी होता है। ऐसे कार्यों के लिए विषयों की परिषदें एवं सभाएँ भी स्थापित करनी चाहिए। अध्यापक एवं विद्यार्थी तथा विद्यार्थी के पारस्परिक व्यवहार से सहयोग, सहकारिता, प्रेम स्नेह, आज्ञा पालन, नम्रता, सौहार्द्र आदि भाव एवं मूल्य विकसित होते हैं। यह सब विद्यालयीय वातावरण पर निर्भर करता है।
(5) व्यावसायिक मूल्य- प्रत्येक व्यक्ति जीवन को व्यवस्थित करने जीविका के साधन को ढूँढ़ता है। जीविकोपार्जन, धनोपार्जन आदि व्यावसायिक मूल्यों के अन्तर्गत आते हैं। जीवन में व्यक्ति को अपनी रुचि के अनुसार एवं परिस्थिति के अनुकूल कोई न कोई व्यवसाय चुनना पड़ता है अन्यथा वह अपना, अपनों का तथा समाज का हित नहीं कर सकता। इसलिए इसे मूल्य हेतु व्यक्ति को किसी विशेष व्यवसाय में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए इससे वह कुशल एवं निपुण होकर धनोपार्जन कर सके।
(6) सामाजिक-राजनैतिक मूल्य- व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने समाज के लिए सब कुछ करने के लिए उद्यत रहना चाहिए। इन मूल्यों के अन्तर्गत राष्ट्रीय एकता, नागरिकता, सामाजिक उत्तरदायित्व अन्तर्राष्ट्रीय समझदारी, प्रजातंत्र के योग्य बनाना आदि गुण सम्मिलित हैं। यह मूल्य अति व्यापक हैं इसके अन्तर्गत कई अन्य मूल्य एवं लक्ष्य भी आ जाते हैं। सामाजिक कुशलता हेतु व्यक्ति अपनी आजीविका स्वयं खोजता है। वह अपना ज्ञान बढ़ाता है। विद्यालय इस कार्य में सहायता करते हैं। शिक्षा का उद्देश्य बालकों में ऐसी क्षमता का विकास करना है, जिससे वह समाज का कल्याण कर सके जो शिक्षा बालक का समाजोपयोगी विकास नहीं करती, वह शिक्षा व्यर्थ है।
(7) अन्तर्राष्ट्रीय मूल्य- वर्तमान समय में सम्पूर्ण विश्व एक हो गया है। विश्व के सभी राष्ट्र मिल जुलकर परस्पर कार्य करेंगे तो सद्भावना का विकास होगा। समाज की सभी संस्थाओं द्वारा विश्व के प्रति प्रेम तथा विश्वबन्धुत्व की भावना स्थापना हेतु प्रयत्न करना चाहिए। प्राइमरी से विश्वविद्यालय स्तर तक सभी संस्थाओं में स्वस्थ वातावरण उत्पन्न करके विश्वबन्धुत्व की भावना छात्रों में जागृत की जा सकती है।
(8) जनतन्त्रीय मूल्य- भारत एक जनतांत्रिक देश है। अतः शिक्षा के माध्यम से जनतंत्रीय मूल्यों का विकास करना अत्यावश्यक है। जनतंत्रीय मूल्य है स्वतंत्रता, भ्रातृत्त्वता तथा समानता स्वतंत्रता के अन्तर्गत विचार, भाषण एवं विवाद, संचालन आदि की स्वतंत्रताएँ आती हैं। भ्रातृत्वता के अन्तर्गत जाति, रंग, धर्म का भेद-भाव न होकर एक राष्ट्र के सभी लोग भाई-भाई होंगे। समानता के अनुसार सभी दृष्टिकोणों से सबको समान अधिकार, समान उत्तरदायित्व एवं सामाजिक न्याय मिलेगा।
शिक्षा, जनतंत्र का सबसे प्रभावशाली यंत्र हैं, जिससे जनतंत्र को शक्ति एवं सफलता मिलती हैं। अतः विद्यालयों में शिक्षा ऐसी हो जिससे व्यक्ति का वैयक्तिक विकास एवं सामाजिक व्यवस्था की सुविधा मिल सके।
(9) नागरिकता के मूल्य- व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। व्यक्ति को योग्य नागरिक बनाने का प्रयत्न शिक्षा के द्वारा होता है। जैसे देश होता है, वैसी नागरिकता की शिक्षा भी दी जाती है। भारत में जनतांत्रिक शासन है। यहाँ के नागरिकों को भी स्वतंत्रता, समानता एवं सामाजिक न्याय का अधिकार है। ईमानदारी, निष्ठा, कर्त्तव्यपरायणता, उच्च शिक्षा, आत्मज्ञान, राजनीतिक कार्यों के प्रति रुचि एवं सक्रियता आदि उनके गुण प्रत्येक नागरिक के लिए अनिवार्य है।
जनतंत्र की सफलता सुयोग्य नागरिकों पर ही निर्भर है। इस मूल्य से व्यक्ति में जिम्मेदारी तथा अनुशासन की भावना बढ़ती है, इसके साथ-साथ निर्माण भी होता है।
(10) परिस्थितियों के अनुकूल मूल्य- यह प्रकृति का नियम है कि जीवन संघर्ष में वही जीवित रह सकता है जो परिस्थितियों का सामना करने में समर्थ हो । प्राणिशास्त्र के अनुसार भी जीवन का विकास परिस्थिति के अनुकूल बनने में है। अतः शिक्षा द्वारा बालक को वे सभी बातें सीखनी हैं जो उसे अपने आपको वातावरण के अनुकूल बनाने में है। सहायक हो अर्थात् शिक्षा व्यक्ति को वह बल और शक्ति दे, जिससे वह अपने आपको अपनी परिस्थितियों में सभी तरह से खपा सकें व्यक्ति अपनी बुद्धि, प्रवृत्तियों, संवेगों, इच्छाओं आदि पर नियंत्रण रखें और जहाँ पर जिसकी जरूरत हो, उसका उचित प्रयोग समय-दशा और स्थिति के अनुसार करें।
इस मूल्य का जीवन में बहुत महत्त्व है। विद्यालय में ऐसी सुविधाएँ दी जाएँ जिससे बालकों में सौन्दर्यानुभूति का विकास हो। भ्रमण, प्राकृतिक निरीक्षण, पिकनिक, कला प्रदर्शनी, संगीत, नृत्य का प्रदर्शन, अभिनय, रेडियो के कलात्मक कार्यक्रम आदि ऐसे साधन हैं, जिसमें भाग लेकर छात्र सौन्दर्यानुभूति का विकास कर सकता है।
मूल्यों को वर्गीकृत करते हुए नैतिक मूल्यों की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
मूल्यों का वर्गीकरण- वस्तुतः मूल्यों के वर्गीकरण में शिक्षाशास्त्री एवं विद्वान एक मत नहीं है। मूल्यों के विषय में वर्गीकरण की धारणा से सम्बन्धित कतिपय विद्वानों की परिभाषाएँ निम्नवत हैं-
टर्नर के अनुसार- मूल्यों के दो वर्ग हैं- (1) आदर्श मूल्य (2) ठोस मूल्य।
ऑलपोर्ट के अनुसार- मूल्यों के छः भाग हैं- (1) सैद्धान्तिक (2) आर्थिक (3) सामाजिक (4) राजनीतिक (5) धार्मिक (6) सौन्दर्यात्मक मूल्य।
क्लुकहॉन (1951) ने मूल्यों को 8 भागों में वर्गीकृत किया है- (1) रूप विषयक (2) संतोष (3) अभिलाषा (4) सामान्यता (5) अत्यंयता (6) स्पष्टता (7) विस्तार (8) संगठनात्मक।
मूल्यों का सामान्य वर्गीकरण निम्नवत् है-
(1) शिक्षा जगत के मूल्य- शैक्षिक जगत में सरकार, विद्यालय प्रशासन, शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के अपने-अपने मूल्य होते हैं। यदि सरकार की नीतियाँ पक्षपातपूर्ण हों या विद्यालय प्रशासन दोषपूर्ण हो या शिक्षक या शिक्षार्थी अपने मूल्यों को प्रमुखता न दें, तो निश्चित ही उस जगह की शिक्षा व्यवस्था पटरी से उतर जाएगी तथा एक सभ्य समाज निर्मित नहीं हो सकेगा।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय मूल्य- प्रत्येक राज्य की जिम्मेदारी होती है कि वह अपने राष्ट्र की सम्प्रभुता की रक्षा करे एवं दूसरे की संप्रभुता को ठेस न पहुँचाए, यदि अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों का पालन समस्त देशों द्वारा किया जाएगा तो निश्चित है, विश्व में शान्ति कायम रहेगी अन्यथा इसके अभाव में हम तीसरे विश्व युद्ध को जन्म देंगे।
(3) सांस्कृतिक मूल्य- भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का लोहा सम्पूर्ण विश्व मानता है; जब आज विश्व में नारी को समान दर्जा दिए जाने की बात की जा रही है तब हमारे प्राचीन काल में ही नारियों के लिए कहा गया है- “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।’ अर्थात् जिस घर में नारी की पूजा की – जाती हैं, वहाँ देवता निवास करते हैं।
(4) पर्यावरणीय मूल्य- ‘पर्यावरण’ शब्द परि + आवरण से मिलकर बना है ‘परि’ का अर्थ है ‘चारों ओर’ तथा ‘आवरण’ का अर्थ है ‘ढँका हुआ’ अर्थात् हमारे चारों ओर उपस्थित आवरण पर्यावरण कहलाता है, एवं इसकी रक्षा तथा संरक्षण प्रदान किया जाना पर्यावरणीय मूल्य कहलाता है। आज सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण का दोहन हो रहा है, जिससे जीवन संकट में है। अतः पर्यावरणीय मूल्यों की रक्षा किया जाना, हमें जनजीवन प्रदान किए जाने जैसा है।
(5) वैज्ञानिक मूल्य- भारत जैसे वृहद् देश में अंधविश्वासों के खिलाफ एक मुहिम चलायी जानी आवश्यक है, जिसको वैज्ञानिक मूल्यों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। लोगों में वैज्ञानिक तथ्यों के प्रति जागरुकता पैदा करके उनमें तर्कयुक्तता एवं ज्ञान के प्रति उत्सुकता आदि समाहित किया जाए।
(6) सामाजिक एवं राजनैतिक मूल्य- सामाजिक मूल्य परिवर्तनशील होते हैं। अतः जो मूल्य हमारे लिए स्थिर होते हैं वो हमेशा गतिमान रहते हैं तथा कुछ सामाजिक मूल्य समय के साथ परिवर्तनशील होते हैं। राजनीतिक मूल्यों के पालन के बिना एक सभ्य एवं लोकतांत्रिक देश की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि जब तक जनता-जनार्दन अपने राष्ट्र के नेताओं एवं शांसक-तंत्र से संतुष्ट नहीं होगी तब तक शान्ति की स्थापना नहीं की जा सकती है।
मूल्य एवं नैतिकता- नैतिक शब्द निष्ठ, धर्म, गुण, भाव तथा क्रिया आदि का वाचक है। ‘नैतिकता’ शब्द को शब्दों में बाँध पाना कठिन है। क्योंकि इसका क्षेत्र अत्यंत वृहत् है। नैतिकता धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि जगहों पर प्रयोग की जाती है। नैतिकता का एक मात्र उद्देश्य ‘प्राणियों का कल्याण’ है, “जिन गुणों के कारण मानव को मानव कहा जाता है।” इस प्रकार मानव धर्म का पालन करने वाले व्यवहार को अपनाया जाना ही नैतिकता है। इसे हम निम्न वर्णित परिभाषाओं द्वारा अधिक स्पष्ट कर सकते हैं –
महात्मा गाँधी के शब्दों में- “नैतिक कार्यों में सदा सार्वजनिक कल्याण की भावना विद्यमान रहती है, उसका लाभ उसको अथवा उसके परिवार को नहीं मिलता, बल्कि उसमें प्रत्येक मानव के लिए दया भाव निहित होता है। कार्य अच्छा हो या पर्याप्त नहीं, उसके करने के पीछे इरादे का होना भी आवश्यक हैं। कोई दया से द्रवित होकर दरिंद्र को भोजन करा देता है और कोई मान प्रतिष्ठा के लिए भोजन कराए तो पहले का कार्य नैतिक हुआ दूसरे का कदापि नहीं।”
हरबर्ट महोदय के अनुसार “निम्नतर प्रवृत्तियों का दामन एवं उच्चतर विचारों का सृजन ही नैतिकता है।”
एनीबेसेन्ट के शब्दों में- “धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की हमें उतनी आवश्यकता है, जितनी शारीरिक एवं मानसिक शिक्षा की।”
मदन मोहन मालवीय जी के अनुसार- “नैतिकता मनुष्य की उन्नति का मूलाधार है, नैतिकता से रहित व्यक्ति पशुओं से भी निकृष्ट है। नैतिकता के अभाव में मनुष्य अथवा देश का विकास अवश्यम्भावी है। अतः नैतिकता हमारा व्यापक गुण है एवं किसी भी कीमत पर हमें इसे नहीं छोड़ना चाहिए।”
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