मूल्यों को बढ़ावा देने में आध्यात्मिक एवं सामाजिक मूल्यों की भूमिका का वर्णन कीजिए।
मूल्यों को बढ़ावा देने में आध्यात्मिक एवं सामाजिक मूल्यों की भूमिका- मूल्यों को बढ़ावा देने हेतु व्यक्ति को स्वयं अन्दर से तैयार होना होगा एवं सामाजिक तथा धार्मिक अथवा आध्यात्मिक मूल्यों का अनुगमन करना होगा।
यथार्थवाद मूल्यों का आधार सामाजिक एवं आध्यात्मिक मूल्य है, इसके अन्तर्गत किसी वस्तु या घटना के वास्तविक रूप को ही वर्णित किया जाता है। यथार्थ के लिए अंग्रेजी में ‘Reality’ शब्द प्रयुक्त होता है। संस्कृत में इसके समानार्थी शब्द ‘सत्य’, ‘वास्तव’, ‘तथ्य’, ‘यथार्थ’ आदि हैं। यथार्थ दो शब्दों से मिलाकर बना हैं ‘यथा+अर्थ’ यथा अव्यय है जिसका हिन्दी समानार्थी पद है ‘जैसा’ अर्थ के प्रमुख हिन्दी समानार्थी पद है ‘वस्तु’, ‘द्रव्य’, ‘पदार्थ’ आदि। यथार्थ का सामान्य अर्थ है-‘जैसा होना चाहिए ठीक वैसा।’
व्यक्ति जैसा अंदर से हो, वो वैसा ही सच्चा सामने से लोगों को नजर आए। आज समाज की स्थित बहुत दयनीय है, व्यक्ति दिखावा अधिक करता है, वह वास्तविकता से हटकर अपने को प्रस्तुत करना चाहता है, लेकिन वह अन्दर से कुछ और होता है। जिससे व्यक्ति में, समाज में एक घृणा की स्थिति बन जाती है, इसे दूर करने हेतु आवश्यक है कि व्यक्ति एवं बालकों को यथार्थ मूल्य को ग्रहण करने की वकालत की जाए। यथार्थ मूल्यों से ही व्यक्ति समाज में एक-दूसरे से जुड़ सकता है तथा समाज में एकता की स्थापना हो सकती है। अतएव यथार्थ मूल्यों को बच्चों में शिक्षा प्रदान करते समय दिया जाना जरूरी है।
व्यक्ति जिस समाज एवं राष्ट्र का नागरिक होता है, उस समाज एवं राष्ट्र की कुछ नैतिक जिम्मेदारी उस व्यक्ति की होती है, यदि समाज में कोई अराजक तत्त्व आ गया हो एवं वह आपके परिचित का हो तो उस समय हित में फैसला लेते हुए उसको दण्डित कराने में समाज का सहयोग किया जाना चाहिए। कभी-कभी स्वार्थवश समाज की मान्यताओं को पीछे छोड़कर अपराधियों की मदद करते हैं, जिससे उस समाज को हानि पहुँचती है। कभी-कभी समाज में किसी विषय को लेकर विवाद हो जाता है, जब न्यायिक स्थिति पर व्यक्तियों को बिठाया जाता है, तो वे पक्षपात ढंग से निर्णय करते हैं, जिससे सामाजिक समरसता को आघात पहुँचता है। अतः समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जबाबदेही तय होनी चाहिए एवं इस मूल्य का ईमानदारी से पालन किया जाना चाहिए।
मूल्य सामाजिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का अनुमान कर कर्त्तव्य को प्रश्रय देते हैं। मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को निर्धारित कर्तव्यों का पालन करना चाहिए तथा अध्यापक को बच्चों में अधिकारों के साथ-साथ उनके कर्तव्यों का भी बोध कराया जाना चाहिए। कर्तव्य महत्त्वपूर्ण मूल्यों में से एक है जिसके द्वारा समाज एवं राष्ट्र को ठीक दिशा मिलती है। अतः यह आवश्यक है कि कर्तव्य के मूल्यों की जानकारी एवं उसका आत्मीकरण बच्चों में कराया जाए, जिससे आपसी समरसता की भावना का पल्लवन हो सके।
सद्भाव मूल्य के आधार स्तम्भ के रूप में सामाजिक, धार्मिक दृष्टिकोण- बालकों को शिक्षा प्रदान करते समय सद्भाव मूल्यों को भी दिया जाना जरूरी है। मूल्यों को अग्रगामी बनाने वाले मूल्यों में ‘सद्भावी मूल्य’ महत्त्वपूर्ण एवं उचित हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15 में किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म, भाषा एवं लिंग के आधार पर भेदभाव की खिलाफत की गई है। शिक्षक को चाहिए कि बच्चों में सद्भाव मूल्यों का विकास करे तथा दूसरे को समान भाव से सम्मान देने की विचारधारा को आगे बढ़ाये। शिक्षकों को चाहिए कि वे जाति, धर्म से उठकर बालकों में व्यवहार करें एवं उनमें समरसता की भावना को विकसित करायें।
आध्यात्मिक मूल्य, धर्म मूल मानवता के रूप में- वस्तुतः धर्म क्या है ? धर्म कोई संप्रदाय नहीं है, वरन् धर्म की परिभाषा है- “धार्यते इति धर्मः” अर्थात् जो धारण करने योग्य है, वरेण्य है उसे ही धर्म कहा जाता है। परन्तु आज लोगों ने धर्म को एक संप्रदाय के रूप में देख रहे हैं, जो वस्तुतः उचित नहीं है। सभी धर्मों के मूल्यों में सार रूप में अहिंसा, प्रेम, त्याग एवं विश्वबंधुत्व की भावना को ही स्वीकारा गया है, तब विभेद किस बात का है? हमें विभेद न करके सभी को धर्मों के नैतिक आचरण को ग्रहण करते हुए चलना चाहिए जिससे हम एक प्रतिष्ठित एवं नैतिक मानव के रूप में बन सकें।
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