B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

योग क्या है? योग की परिभाषा देते हुए उसके अंग बताइए।

योग का अर्थ एवं परिभाषा
योग का अर्थ एवं परिभाषा

अनुक्रम (Contents)

योग का अर्थ एवं परिभाषा

योग का अर्थ एवं परिभाषा –‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की युजिर’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- बाँधना, युक्त करना, जोड़ना, सम्मिलित होना, एक होना। इसका अर्थ संयोग या मिलन भी है।

महादेव देसाई के अनुसार- “शरीर, मन और आत्मा की समग्र शक्तियों को परमात्मा से संयोजित करना योग है।” 

कठोपनिषद् में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- “जब चेतना निश्चेष्ट हो जाती है, मन शान्त हो जाता है, जब बुद्धि स्थिर (अचंचल) हो जाती है तब ज्ञान उसे सर्वोच्च पद प्राप्त हुआ मानता है, चेतना और मन के इस दृढ़ निग्रह को ही योग की संज्ञा दी गई और जो इसे प्राप्त करता है, वह बन्धन मुक्त हो जाता है। “

विष्णु पुराण के अनुसार-“जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।”

भगवद्गीता के अनुसार- “निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है। दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्वों में सर्वत्र समभाव रखना योग है। “

पतंजलि योगसूत्र के अनुसार, “अभ्यास व वैराग्य द्वारा चित्तवृत्तियों के बाह्य समस्त विषयों से निरुद्ध कर अपने मूलस्वरूप में शाश्वत रूप से असम्प्रेज्ञात व समाधि की स्थिति में अवस्थित होना योग है। “

डॉ० राधाकृष्णन् के अनुसार योग का अर्थ है, “अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को एक जगह इकट्ठा करना, उन्हें सन्तुलित करना और बढ़ाना। “

पतंजलि के योग का अर्थ ‘चित्तवृत्तिनिरोध’ या संयमित मन-मस्तिष्क है। योग का शाब्दिक अर्थ है- जुड़ना, आत्मा और परमात्मा का एकीकरण या सीमित का असीमित से मिलना । वस्तुत: योग मानसिक, शारीरिक तथा आध्यात्मिक विकास का क्रम है। योग का लक्ष्य शरीर को मानसिक शान्ति हेतु तैयार करना है जो कि पर ब्रह्म प्राप्ति के लिए आवश्यक है। ‘युज्’ धातु के कारण तथा भाव में छन्न प्रत्यव जोड़ने से ‘योग’ शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है, जिसका अर्थ हैं- समाधि। समाधि का अभिप्राय है- सम्यक् प्रकार से परमात्मा में मिल जाना। पतंजलि ने समाधि का अर्थ चित्तवृत्तियों को रोकना माना है।

चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है। ये वृत्तियाँ पाँच हैं- (1) प्रमाण, (2) विपर्यय, (3) विकल्प, (4) निद्रा तथा (5) स्मृति इन वृत्तियों का निरोध अभ्यास तथा वैराग्य से होता है। चित्त को एकाग्र या स्थिर करना अभ्यास है। ऐहिक तथा पारलौकिक भोगों से विमुक्त होना वैराग्य है। पतंजलि ने आत्म-साधना के लिए अष्टांग योग का प्रतिपादन किया है।

योग के अंग-

इसके विभिन्न अंग इस प्रकार हैं-

(1) यम-यम पतंजलि अष्टांग योग का प्रथम अंग है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य का सम्मिलित नाम ही यमहै। ये आचार-शुद्धि के मूलाधार हैं। पतंजलि का कथन है कि जो सत्य को जीवन में ढाल लेता है, उसे वचन-सिद्धि प्राप्त हो जाती है। जो अहिंसा को जीवन में उतार लेता है, उसके समीप अन्य प्राणी भी परस्पर बैर भाव भूल जाते हैं। अस्तेय को जीवन में उतार लेने पर जगत् की समस्त सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जाती है और ब्रह्मचर्य से शक्ति प्राप्त होती है।

इन पाँचों यमों का सब जाति, सब देश तथा सब काल में पालन होने से एवं किसी भी निमित्त से इनके विपरीत हिंसादि दोषों के न घटने से इनकी संज्ञा महाव्रत हो जाती है ।

(2) नियम- योग दर्शन के अनुसार पवित्रता, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्राणिधान नामक पाँच नियम हैं। ईश्वर-प्राणिधान से समाधि की सिद्धि होती है।

(3) आसन- आसन अनेक प्रकार के हैं। उनमें से आत्म-संयम चाहने वाले पुरुष के लिए सिद्धासन, पद्मासन, मयूरासन, भद्रासन, वीरासन आदि आसन उपयोगी माने गये हैं। इनमें से कोई भी साधन हो, परन्तु मेरु दण्ड, मस्तक तथा ग्रीवा को सीधा अवश्य रखना चाहिए।

(4) प्राणायाम- इससे मन धारणा के योग्य बनता है।

(5) प्रत्याहार- इस अभ्यास से इन्द्रियों को वश में किया जाता है। इससे इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी बनाया जाता है।

(6) धारणा – चित्त को एक पर स्थिर करना।

(7) ध्यान-मन को उसी विषय पर लगाये रखना।

(8) समाधि- स्वयं को भूलकर विषय में लीन हो जाना।

Important Links

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider.in does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment