भारत के सांस्कृतिक मूल्य के विकास में जैविकीय एवं सामाजिक कारकों को स्पष्ट कीजिए एवं इसकी प्रकृति को समझाइये।
भारतीय संस्कृति के निर्माण हेतु जैविक एवं सामाजिक कारक- व्यक्ति समाज में रहकर अपनी विभिन्न प्रकार की जरूरतों की पूर्ति करता है। कुछ जरूरतें उसके जैविक, सामाजिक या व्यक्तिगत प्रकार के रूप में हुआ करती है। इन सब की पूर्ति के लिए व्यक्ति जिन-जिन माध्यमों को स्वीकृत करता है, जिनके आधार पर संस्कृति निर्मित होती है। रंग एवं विथर्स ने संस्कृति के तीन पक्ष बतलाए हैं।
भारतीय संस्कृति की प्रकृति एफ.बी. टायलर न संस्कृति की निम्न विशेषताएँ गिनाई हैं-
(1) वास्तविकता- टायलर महोदय ने संस्कृति को एक वस्तुनिष्ठ एवं वास्तविक पदार्थ के रूप में अवलोकित किया है। इनके अनुसार भौतिक संस्कृति का हम अनुभव कर सकते हैं, इस कारण से यह वास्तविक है।
(2) भौतिक तत्त्व- संस्कृति का संबंध सिर्फ भावात्मक या मानसिक धरातल तक ही सीमित नहीं बल्कि वह एक दृश्य वस्तु भी है। जब हम संस्कृति में भवन, वेशभूषा आदि को निहित करते हैं, तो संस्कृति एक भौतिक वस्तु के रूप में हमारे समक्ष प्रकट होती है।
(3) व्यवहार स्वरूप- जब हम अभौतिक संस्कृति की चर्चा करती हैं तो उसमें रीति-रिवाज, परम्पराओं, मूल्यों आदि को निहित करते हैं अर्थात् संस्कृति हमें हमारे व्यवहार के तौर तरीकों का ज्ञान कराती है एवं अपने अनुयायियों से यह अपेक्षा करती है कि उनका व्यवहार उन प्रारूपों के अनुरूप
(4) मनोवैज्ञानिक उपलब्धि- सभी विद्वान संस्कृति को जीवन का तरीका मानते हैं परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संस्कृति मनुष्य के भावात्मक एवं मानसिक जीवन की अभिव्यक्ति है। इस कारण जो व्यक्ति संस्कृति से अपने आपको घनिष्ठ रूप से जोड़ता है, वह मानसिक स्तर पर संस्कृति का अपमान या निरादर कभी भी सहन नहीं कर सकता है।
(5) जटिलता- मूलतः संस्कृति का विकास एक क्रमिक प्रक्रिया द्वारा होता है। इसीलिए उसमें बहुत-सी बातों को निहित किया जाता है। इन सभी को निहित करना इस कारण भी आवश्यक है कि जिससे हम संस्कृति के वर्तमान स्वरूप को समझें। यही कारण है कि संस्कृति को एक जटिल प्रक्रिया के रूप में देखना। किन्तु संस्कृति उन्नयन हेतु जरूरी है कि वह उसमें एकीकरण स्थापित करके उसे सरल एवं सौम्य बनाने का प्रयास करे। इससे जटिलता कम होकर सरलता में प्रवाह स्थापित हो सकेगा।
(6) स्थिरता- संस्कृति को बहुत ज्यादा परिवर्तनशील नहीं होना चाहिए। इसमें थोड़ी स्थिरता होनी चाहिए। जिससे व्यक्ति उसे समझ सके एवं उसके अनुरूप अपने-आपको उसमें समाहित कर सकें।
(7) समाज में रहकर प्राप्त करना- संस्कृति एक सामूहिक वस्तु है जिसे व्यक्ति समाज में रहकर ग्रहण करता है।
(8) अवंशानुगत- संस्कृति एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में पल्लवित होती है। यह वंशानुगत नहीं होती बल्कि समाज द्वारा निर्धारित होती है।
(9) परिवर्तन- समाज के अनुरूप संस्कृति में भी परिवर्तन होता है, इसलिए यह एक परिवर्तशील प्रक्रिया है।
(10) विशिष्ट प्रारूप- सभी संस्कृतियों के एक विशेष तौर-तरीके होते हैं, जिसके आधार पर हम एक संस्कृति को दूसरे संस्कृति से भिन्न पाते हैं।
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