विद्यालय प्रबन्ध का कार्य क्षेत्र क्या है? विद्यालय प्रबन्ध की आवश्यकता एवं वर्तमान समस्याएँ कौन-सी हैं? स्पष्ट कीजिए।
विद्यालय प्रबन्ध का कार्य क्षेत्र क्या है?
विद्यालय प्रबन्ध का क्षेत्र बहुत व्यापक है और इसके प्रबन्ध के अन्तर्गत वे सभी क्षैक्षिक परियोजनाएँ आती हैं। जो प्रजातंत्र की आवश्यताओं की पूर्ति करनी हैं। वर्तमान प्रबन्ध विद्यालय प्रणाली के सभी सम्बन्धों से सम्बन्धित है। जैसे- प्रधानाध्यापक एवं छात्रों का सम्बन्ध, छात्र एवं अध्यापक सम्बन्ध, विद्यालय एवं समाज का सम्बन्ध आदि।
लूथर गुलिक ने विद्यालय प्रबन्ध प्रक्रिया का विश्लेषण व्यापक अर्थ में POSDCORB पोस्डकोई फार्मूले द्वारा प्रस्तुत किया। इसकी संरचना में निम्नलिखित सात तत्त्वों का समावेश है, जो इसके अर्थ का इन सात प्रबन्धकीय कार्यों के रूप में विवेचन करते हैं। लूथर गुलिक ने इन्हीं सात तत्त्वों के आधार पर प्रधानाध्यापक के प्रबन्धक के रूप में साथ कर्तव्यों का वर्णन किया है। इनका विवरण निम्नवत् है-
(1) P-Planning – योजना निर्माण
(2) O-organization – संगठन
(3) S- Supervision – पर्यवेक्षण
(4) D-Direction – निर्देशन
(5) Co-Co-ordination – समन्वय
(6) R-Reporting – प्रतिवेदन
(7) B-Budgeting – बजट बनाना
(1) योजना निर्माण- विद्यालय प्रबन्ध का पहला तत्त्व योजना निर्माण अर्थात् योजना बनाना है। सत्र प्रारम्भ होने से पूर्व ही उसे विद्यालय की वार्षिक योजना, मासिक योजना, दैनिक योजना आदि का निर्माण करना पड़ता है, ताकि सत्रारम्भ के प्रथम दिवस से ही विद्यालय का नियमित रूप से कार्य प्रारम्भ हो सके। योजना निर्माण विद्यालय प्रबन्ध अथवा प्रधानाध्यापक की. सफलता की प्रथम कड़ी है।
(2) संगठन– विद्यालय प्रबन्ध का दूसरा तत्त्व संगठन है, जिसे मुख्यतः तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-
- मानवीय संगठन की दृष्टि से शिक्षक, कार्यालय कर्मचारी, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आदि की नियुक्तियाँ उच्चाधिकारियों से कराना, ताकि विद्यालयों की शिक्षा में व्यवधान उत्पन्न न हो।
- आर्थिक संगठन के अन्तर्गत विद्यालय का बजट प्राप्त करना, विद्यालय भवन में आवश्यकतानुसार नवीन कक्ष-निर्माण एवं साज-सज्जा, शालीय उपवन यदि हों आदि के रख- रखाव हेतु सरकार एवं जनसम्पर्क के माध्यम से धन प्राप्त कर विद्यालय को आदर्श विद्यालय बनाने से है।
(3) निरीक्षण (पर्यवेक्षण)- विद्यालय प्रबन्ध का तीसरा तत्त्व है-निरीक्षण। सम्पूर्ण विद्यालय की शैक्षिक, सहशैक्षिक एवं अन्य गतिविधियों का प्रबन्ध, प्रधानाध्यापक निरीक्षण करता है। दूसरे शब्दों में, वह स्वयं विद्यालय का निरीक्षक होता है और स्वयं की बनायी योजना का निरीक्षण कर उसकी सफलता एवं असफलता का मूल्यांकन करता है और तदनुसार उनमें परिवर्तन भी करता है।
(4) निर्देशन- विद्यालय प्रबन्ध का चौथा तत्व है-निर्देशन। निर्देशन के अन्तर्गत प्रधानाध्यापक अपने सहयोगी शिक्षकों, छात्रों अन्य कार्यरत कर्मचारियों और अभिभावकों को समय-समय पर आवश्यक निर्देश भी देता है। निर्देशन कार्य मौखिक एवं लिखित दोनों ही रूपों में होता है। कभी-कभी वह समस्त को एक साथ ही निर्देश देता है।
(5) समन्वय- विद्यालय प्रबन्ध का पाँचवाँ तत्त्व समन्वय है, जिसके अन्तर्गत आर्थिक, भौतिक और मानवीय संसाधनों के अधिकतम उपयोग तथा समन्वय का कार्य प्रधानाध्यापक को करना पड़ता है। वह प्रतिष्ठित व्यक्तियों को मार एवं पों पर आमंत्रित करता है। विद्यालय की भीरिक प्रगति हेतु उन आर्थिक सहायता प्राप्त करता है।
(6) प्रतिवेदन- विद्यालय प्रबन्य का छा तत्व प्रतिवेदन है। इसके अन्तर्गत विद्यालय सम्बन्धी प्रकरणों के प्रतिवेदनों को प्रबन्धक प्रधानाध्यापक को तैयार कर उच्चाधिकारियों प्रथित करना पड़ता है।
(7) बजट बनाना- विद्यालय प्रबन्ध का सातवा तत्त्व बजट बनाना है। इसके अन्तर्गत वित्तीय एवं आर्थिक संसाधनों एवं उनके उपयोग हेतु बजट बनाना पड़ता है। बजट बनाना और उसे प्राप्त करना विद्यालय की अनिवार्य आवश्यकता है।
विद्यालय प्रबन्ध की आवश्यकता
विद्यालय प्रबन्ध की आवश्यकता को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है-
1. शिक्षण-प्रक्रिया में सुधार के लिए भूमिका तैयार करना- विद्यालय प्रबन्ध के द्वारा शिक्षण-प्रक्रिया की विभिन्न क्रियाओं, साधनों, तत्त्वों, सामग्री आदि में समन्वय स्थापित करके एक महत्त्वपूर्ण भूमिका तैयार की जाती है।
2. शैक्षिक विकास हेतु- इसके द्वारा शिक्षण संस्थाओं के कार्यों का विकास किया जाता है तथा उन्हें उपयोगी रूप प्रदान किया जाता है।
3. नवीन विचारों का शिक्षा में समावेश- आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में नवीनतम विचारों के प्रयोग के लिए विद्यालय प्रबन्ध अत्यन्त आवश्यक है। इसके द्वारा ही नवीन प्रत्ययों, सिद्धान्तों आदि से अवगत कराया जाता है।
4. शैक्षिक नीति- निर्धारण में शिक्षा सम्बन्धी नीतियों का समुचित निर्धारण विद्यालय प्रबन्ध के माध्यम से किया जाता है एवं उन्हें लागू करने से सम्बन्धी रूपरेखा तैयार की जाती -है।
5. शिक्षा को प्रजातांत्रिक रूप प्रदान करने में- प्रजातंत्र में शिक्षा की उपादेयता एवं उपयोगिता विद्यालय प्रबन्ध के द्वारा ही निर्धारित होती है। शैक्षिक प्रशासन के स्तर के आधार पर ही शिक्षा के क्षेत्र में प्रजातंत्र के नियमों को लागू किया जाता है।
विद्यालय प्रबन्ध की वर्तमान समस्याएँ
शिक्षा-क्षेत्र में बालक के विकस, शिक्षण-विधि, पाठ्यक्रम निर्माण आदि पर अनेक सिद्धान्तों के प्रतिपादन ने नवीन शैक्षिक जागृति ला दी है। निम्नलिखित तथ्य विद्यालय प्रबन्धात्मक समस्याओं को प्रभावित करते हैं-
(i) लोग शिक्षा के प्रति अधिक जाग्रत हो गये हैं। आज हम अधिक संख्या में छात्रों को विद्यालय में पढ़ने जाते देखते हैं। वे रुचि, आवश्यकता, सम्मान और कई बातों में एक-दूसरे से भिन्न हैं।
(ii) आज के विद्यालय का कार्य छात्र का मानसिक विकास करना ही नहीं है, अपितु उसे मिलकर रहने की कला’ में भी निपुण करना है, जो कि अपने आप से एक विषय है।
(iii) प्रबन्ध पर बढ़ती हुई नयी माँगों की मान्यता प्रधानाचार्य के कार्य में परिवर्तन लाती है।
(iv) विद्यालयों में आशा की जाती है कि वे राष्ट्रीय एकता प्राप्त करने में सहायक होंगे। अतः इसका शैक्षिक प्रबन्ध पर विशेष प्रभाव पड़ता है।
(v) विद्यालय प्रारम्भिक लोकतांत्रिक सिद्धान्तों की सेवा पर लगा हुआ है। साथ ही व्यक्ति एवं उन्नतिशील समाज के सुधार के लिए इसकी सेवा को माना जाये।
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