जनतन्त्र में विद्यालय संगठन के उद्देश्यों और सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
विद्यालय संगठन के उद्देश्य
प्रजातान्त्रिक विद्यालय व्यवस्था के निम्नलिखित मुख्य उद्देश्य होने चाहिए-
(1) छात्रों के शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिए समुचित अवसर प्रदान करना।
(2) ऐसी शिक्षा व्यवस्था करना जिससे बालकों में प्रजातन्त्रात्मक मूल्यों की रक्षा के लिए बलिदान एवं प्रेम की भावना का विकास हो।
(3) जीवन में यथासम्भव पूर्णतया उत्पन्न करना।
(4) समाज के लिए ऐसे योग्य नागरिक तैयार करना जिनसे प्रजातन्त्र की रक्षा हो सके।
(5) सबको शिक्षा प्राप्त करने का भेदभाव रहित समान अवसर प्रदान करना।
(6) स्वशासन की छात्रों को शिक्षा प्रदान करना।
विद्यालय व्यवस्था के सिद्धान्त
विद्यालय व्यवस्था के कुछ मुख्य सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं-
(1) मानवीय आधार- विद्यालय व्यवस्था का सीधा सम्बन्ध अध्यापकों, छात्रों व उनके अभिभावकों से होता है। अतः इसमें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि व्यवस्था में इस मानवीय आधार का हनन न हो, क्योंकि इस आधार के समाप्त होते ही विद्यालय एक यन्त्र बनकर रह जाता है और कोई भी यन्त्र बिना चलाये अपने आप नहीं चलता।
(2) सामूहिक उत्तरदायित्व- विद्यालय व्यवस्था में दूसरी बात यह ध्यान में रखनी आवश्यक है कि विद्यालय समाज की निर्माणशाला है अर्थात् विद्यालय समाज के अन्दर जीवन- यापन करने की कला को सिखाया जाता है। इस रूप में विद्यालय और समाज इन दोनों को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। अतः विद्यालय व्यवस्था को समाज और जीवन दोनों के निकट रखकर करना चाहिए। इसके अलावा समाज के समस्त व्यक्तियों को विद्यालय व्यवस्था में सहयोग प्रदान करने का अवसर प्रदान करके ही स्कूल में प्रजातान्त्रिक भावना को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
(3) सहयोग तथा सहकारिता– विद्यालय प्रबन्ध में एक यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखने योग्य है कि प्रधानाध्यापक एवं अध्यापक एवं छात्र और अभिभावक आदि इन सबसे सहयोग के आधार पर विद्यालय प्रबन्ध की नींव रखी जाये। दूसरे शब्दों में, व्यवस्था का तात्पर्य सहयोग-पूर्ण जीवन से लगाना चाहिए।
(4) विचार विनिमय के आधार पर-विचार-विनिमय से तात्पर्य है कि प्रबन्ध की कमी के विषय में प्रधानाध्यापक, अध्यापक तथा छात्र आपस में मिलकर विचार-विमर्श करें तथा पारस्परिक सहयोग की भावना से उसे ठीक करें।
(5) गतिशलता और अनुकूलता-प्रबन्ध में परम्परागत रूढ़ियों का अनुगमन करना इसे जटिल एवं जड़ बनाता है इसलिये स्कूल प्रबन्ध में गतिशीलता का होना परमावश्यक है। इसके अलावा जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन हो वैसे-वैसे ही इसे भी परिवर्तित करके समाज के अनुकूल बनाना चाहिए।
(6) स्पष्टता एवं सुनिश्चितता—किसी भी प्रकार संशय या अनिश्चितता प्रबन्ध की सबसे बड़ी कमी माना जाता है इसलिये विद्यालय प्रबन्ध में स्पष्टता एवं सुनिश्चितता का होना आवश्यक है।
(7) प्रत्येक बात को महत्त्व देना—कभी-कभी ऐसा भी होता है कि प्रबन्ध में किसी बात को बहुत मामूली समझकर उसकी उपेक्षा कर दी जाती है और आगे चलकर वही बात प्रबन्ध के लिए बड़ी समस्या का रूप धारण कर लेती है।
(8) प्रबन्ध को साध्य न मानकर साधन मानना–विद्यालय व्यवस्था का लक्ष्य है शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति करना अर्थात् स्कूल प्रबन्ध शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति का साधान मात्र होता है। अतः इसे साध्य न मानकर साधन ही मानना चाहिए।
(9) स्वशासन का अवसर-विद्यालय प्रबन्ध में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसमें छात्रों को स्वशासन का समुचित अवसर दिया जाये। इससे जहाँ एक ओर छात्र पारस्परिक सहयोग की भावना से काम करना सीखेंगे वही दूसरी ओर उनमें नेतृत्व की क्षमता का भी विकास होगा।
(10) भौतिक तत्त्वों का प्रभावशाली ढंग से उपयोग– विद्यालय प्रबन्ध में पुस्तकालय, भवन, खेल का मैदान, फर्नीचर, सहायक उपकरण व धन आदि भौतिक तत्त्वों का उचित ढंग से उपयोग होना चाहिए अर्थात् यथास्थान तथा छात्रों की रुचि को ध्यान में रखकर ही इनका प्रयोग किया जाना चाहिए।
(1) विद्यालय का भवन, उपकरण तथा रखरखाव,
(2) प्रधानाध्यापक, अध्यापक तथा छात्र,
(3) पाठ्यक्रम का निर्माण,
(4) छात्रों का योग्यतानुसार वर्गीकरण,
(5) अध्यापकों में कार्य-वितरण,
(6) परीक्षाओं का प्रबन्ध,
(7) समय-सारणी,
(8) पाठ्य-सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था,
(9) अनुशासन की स्थापना,
(10) रेडक्रास, समाज सेवा आदि सेवाओं की व्यवस्था,
(11) विद्यालय के गृहों के साथ मधुर सम्बन्ध की स्थापना,
(12) कार्यालय की देख-रेख,
(13) छात्रों के स्वास्थ्य तथा खेलकूद की उचित व्यवस्था,
(14) विद्यालय की आय-व्यय की देखरेख,
(15) अध्यापकों को कुर्सी, मेज, भवन, प्रकाश आदि सुविधाएँ उपलब्ध कराना,
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