B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

साम्या की परिभाषा दीजिए तथा साम्या की इंग्लैंड में उत्पत्ति का वर्णन कीजिए।

साम्या की परिभाषा | इंग्लैण्ड में साम्या विधि का विकास | Definition of equity in Hindi
साम्या की परिभाषा | इंग्लैण्ड में साम्या विधि का विकास | Definition of equity in Hindi

साम्या को परिभाषित कीजिए। इंग्लैंड में साम्या विधि के विकास का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा साम्या की परिभाषा दीजिए तथा साम्या की इंग्लैंड में उत्पत्ति का वर्णन कीजिए।
अथवा साम्या से आप क्या समझते हैं? इंग्लैंड में इसके विकास की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।

साम्या की परिभाषा-Definition of equity in Hindi

साम्या की परिभाषा (Definition of equity)- साम्या को विभिन्न विधिशास्त्रियों द्वारा निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया है-

मेटलैण्ड के अनुसार- “साम्या नियमों का वह समूह है, जिसका प्रशासन यदि न्यायतंत्र अधिनियम न पारित किये गए होते, आंग्ल न्यायालयों द्वारा किया जाता एवं जिन्हें साम्य के न्यायालय के नाम से जाना जाता।

ब्लेकस्टोन के अनुसार-“साम्या समस्त विधियों की आत्मा तथा प्राण है। उसके द्वारा वास्तविक विधि को अर्थ प्राप्त होता है और प्राकृतिक विधि का निर्माण होता है। इस सम्बन्ध में साम्या न्याय का पर्यायवाची है क्योंकि वह नियमों का यथार्थ एवं सही निर्वचन है।”

स्टोरी के अनुसार-“साम्य विधिशास्त्र उचित रूप में उपचारात्मक न्याय का वह भाग है जिसका अनन्य रूप में प्रशासन साम्य के न्यायालय द्वारा किया जाता था और जो उपचारात्मक न्याय के उस भाग से भिन्न था जिसका अनन्य रूप में प्रशासन सामान्य विधि के न्यायालय द्वारा किया जाता था।”

सर हेनरी मेन के अनुसार-“साम्य कतिपय नियमों का ऐसा समूह है, जो मूल व्यवहार विधि का सहवर्ती है तथा जो स्पष्ट सिद्धान्तों पर आधारित है और जो उन सिद्धान्तों में अंतर्निहित एक श्रेष्ठतम पवित्रता के कारण संयोगवश व्यवहार विधि को निष्प्रभावी बनाने की क्षमता रखता है।

अरस्तू के अनुसार-“साम्य कानून में समानता के कारण उत्पन्न दोषों का सुधार है। मानव की गलतियों को क्षमा करना ही साम्य है। विधि की ओर नहीं विधेयक को ओर, शब्दों की ओर नहीं अभिप्राय की ओर, कार्य की ओर नहीं भावना की ओर, सम्पूर्ण की ओर नहीं अपितु उसके भाग की ओर, अच्छी बातों का स्मरण करना न कि बुरी बातों का, आघात की अपेक्षा शब्दों द्वारा तय करना, पंच निर्णय को स्वीकार करना ही साम्य है, क्योंकि पंच अथवा मध्यस्थ वही करता है जो साम्य के अनुसार उचित हो।”

ग्रोसिएस एवं फ्यूफेनडार्फ ने अरस्तू द्वारा दी गई परिभाषा का समर्थन किया है।

स्नेल के अनुसार-“साम्य की उसके लोकप्रिय भाव में परिभाषा प्राकृतिक न्याय के एक भाग के रूप में की जा सकती है जिसकी प्रकृति यद्यपि वैध रूप से प्रवर्तन योग्य हो फिर भी ऐतिहासिक कारणों से सामान्य विधि के न्यायालयों द्वारा उसका प्रवर्तन नहीं किया जाता था जिसकी पूर्ति साम्या न्यायालय करते थे।” खानदास नरेनदास (1880)5 बम्बई के मामले में न्यायाधीश वेस्ट ने साम्य को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है।” साम्य एक बौद्धिक अथवा मानसिक शक्ति है जो उत्तरोत्तर पीढ़ियों के मानसिक दृष्टिकोण के क्रमशः परिवर्तन द्वारा प्रभावित होती इस प्रकार वह सामान्य विधि के समान ही एक प्रकार की आधार-सामग्री से प्राप्त अपने निष्कर्षों को दूसरे प्रकार की सामग्री के अनुकूल बनाता है जो समाज की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के अनुसार एक निरन्तर अनुकूलन होता है।”

उपर्युक्त वर्णित परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि साम्य अपने सहज एवं स्वाभाविक अर्थ में युक्ति.अथवा औचित्य के समान है तथा इसका उद्देश्य विधि को समाज के बदलते हुए स्वरूप एवं आवश्यकताओं के अनुरूप लाकर उसको
विधि की कठोरता से स्वतंत्र करना है।

इंग्लैण्ड में साम्या विधि का विकास-

इंग्लैंड में साम्या विधि का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि रोम के साम्य का इतिहास। साम्य के विकास की दृष्टि से आधुनिक युग का प्रारंभ न्यायतंत्र अधिनियम 1873 एवं 1875 के पारित होने के समय से होता है।

इंग्लैण्ड की सामान्य विधि को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-सांविधिक विधि (Statute law), सामान्य-विधि (Common law) और साम्या विधि (Equity)। इस प्रकार सामान्य विधि, संविधिक विधि और साम्या विधि को छोड़ कर समस्त साधारण विधि का
अवशिष्ट हैं।

सांविधिक विधि विधि का वह भाग है जो संसद के विधान और अधिनियम अथवा अधीनस्थ और प्रत्यायोजित विधायी निकायों से प्राप्त होता है। इसको अधिनियमित अथवा अलिखित विधि से भिन्न अधिनियमित या लिखित विधि कहते हैं।

सामान्य-विधि वैधानिक नियम समूह है जिसका मुख्य स्रोत अति प्राचीन रूढ़ि और कोर्ट्स ऑफ किंग्स अथवा क्वीन्स बेंच, कामन प्लीज और एक्सचेकर तथा उनके द्वारा दिये गए निर्णय हैं जिनकी स्थापना इंग्लैण्ड में चान्सरी अथवा साम्या न्यायालय के अस्तित्व में आने के पूर्व की गई थी।

जब सामान्य विधि का प्रयोग सांविधिक विधि के विरुद्ध किया जाता है तब इसका अभिप्राय सम्पूर्ण अलिखित विधि से होता है जो चाहे विधिक या साम्यिक हो किन्तु जिनका निर्माण विधान पालिका द्वारा न किया गया हो। जब सामान्य विधि का प्रयोग साम्या के विरुद्ध किया जाता है तब इसके अन्तर्गत सांविधिक संशोधनों को सम्मिलित करने का आशय होता है।

इस प्रकार साम्या से भिन्न सामान्य विधि का आशय उस संपूर्ण विधि से है जो चाहे न्यायिक अथवा सांविधिक हो और जो सन् 1873 ई0 के पूर्व दोनों न्यायालयों के एकीकरण से पूर्व सामान्य विधि न्यायालयों के द्वारा प्रशासित होती थी। यह उस सम्पूर्ण विधि के विरुद्ध थी जो चान्सरी न्यायालय के द्वारा प्रशासित होती थी। सामान्य-विधि की संकीर्णता और दोष, जिसका परिणाम न्याय-प्रशासन की असफलता थी, को दूर करने अथवा सुधारने का प्रयत्न, सर्वप्रथम ब्रिटिश संसद् में सन् 1285 ई0 में वेस्ट मिनिस्टर स्टेट्यूट II के द्वारा किया गया। इसको (statute of Consimili casu) के नाम से भी जान सकते हैं। कुछ विशिष्ट मामलों के लिए जो भी पूर्व विषयों के समान थे और जिनके लिए उचित प्रचलित आदेश उपलब्ध थे, चान्सलर को नवीन यचिकाएं जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया।

जहाँ कोई उपचार उपलब्ध नहीं थे वहां ऐसे मामलों में चान्सलर नवीन आदेश जारी- करके विषयों को न्यायालय में वाद लाने के योग्य बनाता था। परन्तु विधि न्यायालय अनुदार थे, उन्हें उन याचिकाओं को रद्द करने का अधिकार प्राप्त था जो पूर्व में प्रयोग की जाने वाली याचिकाओं से मुख्य मुद्दों में भिन्न थीं। चान्सलर के पास दूसरा विकल्प जिसका वह अनुसरण करता था, शिकायतकर्ता के प्रतिपक्षी को उसके विरुद्ध अभियोग का परीक्षण कर विवादित तथ्य और विधि का निश्चय करना, और उसके बाद याचिका को स्वीकार अथवा रद्द करना था। इस प्रकार चान्सलर ने अपने न्यायिक कार्यों को आरम्भ किया। जब इन मामलों में वृद्धि हुई और याचिकाएँ नियमित और स्थायी हो गयीं तब रिचार्ड द्वितीय (Richard II) के राज्यकाल में याचिकाएँ राजपरिषद् को न भेजकर चान्सलर के पास सीधे भेजी जाने की कार्य प्रणाली स्थापित की गई। यह निश्चय करना कि चान्सलर को न्याय देने का अधिकार-क्षेत्र किस तिथि से दिया गया, कठिन है परन्तु इसका आरम्भ साधारणतया एडवर्ड तृतीय की सन् 1349 में लन्दन शरिफ के प्रति उद्घोषणा से आरम्भ हुआ माना जाता है। चान्सलर सर्वप्रथम राज्य परिषद् के नाम पर कार्य करता था परन्तु सर विलियम होल्डस्वर्थ के कथनानुसार सन् 1474 ई0, में एक आदेश जारी करके उसके पूर्णतया यह अधिकार-क्षेत्र प्रदत्त किया गया जो उसके बाद भी जारी रहा। इस प्रकार चान्सरी उच्च न्यायालय की उत्पत्ति हुई जो सामान्य विधि से भिन्न साम्यिक क्षेत्राधिकार में न्यायिक कार्य करता था।

साम्यिक अधिकार क्षेत्र का उद्गम

पोमराय के कथनानुसार इंग्लैण्ड में साम्या न्यायालय की स्थापना के कारण निम्न हैं-

(i) न्यायिक पूर्व निर्णय में सम्मिलित विधि की कठोरता,
(ii) अनियन्त्रित और तकनीकी रूप का कठोरता से पालन,
(iii) सामन्तवादी संस्थाओं के प्रति आसक्ति,
(iv) रोमन विधि के प्रति विद्वेष,
(v) पूर्वतर सामान्य-विधि प्रक्रिया और कार्यवाहियाँ।

इंग्लैण्ड में 21 वीं शताब्दी में शाही अधिकार क्षेत्र के प्रथम औपचारिक न्यायालय की स्थापना से आरम्भ होता है। हेनरी प्रथम के शासनकाल में एक अधिकारी की नियुक्ति की गई जिसको जस्टीसियार (justiciar) कहा जाता था। इसकी प्रधानमंत्री लार्ड चान्सलर, लार्ड चीफ जस्टिस और वाइस रेजीडेण्ट के अधिकार प्राप्त थे। यह शक्तिशाली अधिकारी न्यायालय अथवा परिषद् का सभापति (President) था जिसकी नियुक्ति Chief Barrons से जो शाही घराने से सम्बद्ध थे, की जाती थी। इस न्यायालय का स्वरूप केवल न्यायिक ही नहीं था बल्कि इसके तीन भिन्न कार्य थे। प्रथम, परामर्शात्मक और विधायी कार्य जो सम्राट के सर्वोच्च स्वर (Paramount voice) के अधीन वर्तमान प्रिवी कौंसिल में लुप्तप्राय अवस्था में अभी भी वर्तमान है। दूसरे स्थान पर यह वित्त परिषद् (Council of finance) के रूप में कार्य करता था जो बाद में नव निष्क्रिय एक्सचेकर न्यायालय को उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुआ। तीसरे, न्यास के सर्वोच्च न्यायालय के रूप में सम्पूर्ण साम्राज्य में इसने व्यवहार और फौजदारी दोनों क्षेत्राधिकारों का प्रयोग किया। इस प्रकार चांसरी न्यायालय द्वारा अधिक से अधिक उपचार प्रदान किया जाने लगा।

पन्द्रहवीं शताब्दी में चान्सरी ने ‘वैश्वासिक दायित्वों’ (Fiduciary Obligations) को कार्यान्वित करना आरम्भ कर दिया, जिससे उसकी लोकप्रियता और अधिक बढ़ने लगी। इन दायित्वों को ‘यूसेस’ (Uses) कहा जाता था जो आजकल के न्यासों के समान था। ये ऐसे व्यवहार थे जिनके अन्तर्गत एक व्यक्ति अपनी भूमि को दूसरे व्यक्ति को इस प्रसंविदा के आधार पर हस्तान्तरित करता था कि वह उस भूमि को उसके अथवा उसके द्वारा निर्दिष्ट व्यक्ति के लाभ के लिए धारण करेगा। इस प्रकार उपयोग तथा न्यास को लागू करने की शक्तियाँ चान्सलर के हाथों में आ गईं। सामान्य विधि ऐसे दायित्वों को न तो मान्यता देती थी और न उनका प्रयोग ही करती थी।

आगे चलकर सन् 1535 में ‘उपयोग’ को समाप्त करने के लिए उपयोग का परिनियम’ (The Status of uses) पारित किया गया, फिर भी वह एक भिन्न नाम से सम्पत्ति से संव्यवहार करने का सबसे अधिक लोकप्रिय साधन बना रहा।

सोलहवीं शताब्दी-सोलहवीं शताब्दी में साम्य के अधिकार क्षेत्र में वृद्धि का एक और सूत्रपात हुआ। अब साम्य के न्यायालय अर्थात् चान्सरी (Chancery) ने आकस्मिक घटना (Accident), कपट (Fraud) ,विश्वासघात (Breach of Confidence) से सम्बन्धित मामलों का विनिश्चय करना आरम्भ कर दिया। इस शताब्दी में जिन नियमों का विकास हुआ वे ‘साम्य एवं शुद्ध अन्तःकरण के नियम’ कहलाये।

सत्रहवीं शताब्दी-साम्य के विकास के इतिहास की दृष्टि से हम अब एक ऐसे युग में प्रवेश करते हैं जिसे ‘रूपान्तरण का युग’ कहते हैं। अभी तक चान्सलर पादरी लोग हुआ करते थे जो रोमन विधि के अच्छे जानकार होते थे एवं कठिन और जटिल मामलों का विनिश्चय अपने अन्तःकरण के अनुसार किया करते थे। लेकिन अब धीरे-धीरे यह पद पादरियों से विधि- विशेषज्ञों के हाथों में आने लगा। कार्डिनल बोल्जी यार्क का आर्कबिशप अन्तिम महान् धार्मिक चान्सलर था। उसके उत्तराधिकारी के रूप में सन् 1510 में सर टामस मोर ने चान्सलर का पद ग्रहण किया जो एक महान विधि-विशेषज्ञ थे। सर टासम् मोर के बाद एल्समोर, बेकन आदि चान्सलर हुए। पादरियों से विधि-विशेषज्ञों के हाथों में चान्सलर का पद हस्तान्तरित होने से साम्य पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। ऐसा कहा जाता है कि पादरी चान्सलरों ने साम्य का विरचन किया और विधि-विशेषज्ञ चान्सलरों ने उसका रूपान्तरण किया। इन्होंने न्यायालय की प्रक्रिया को काफी सरल और सहज बना दिया।

इस शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण चान्सलर लार्ड नाटिंघम थे, जिन्होंने सन् 1673 से 1682 तक के अपने अल्प कार्यकाल में साम्य को सुनिश्चित एवं व्यवस्थित रूप प्रदान किया। साम्य के नियमों को क्रमबद्ध करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। यही कारण है कि लार्ड नाटिंघम को आधुनिक साम्य का जनक कहा जाता है।

स्ट्राहन के अनुसार-“लार्ड नाटिंघम ने साम्य को संयोग के विषय से सिद्धान्त का विषय बना दिया।” उनके बारे में यह कहा जाता है कि साम्य नाटिंघम के प्रति अनेक प्रकार से ऋणी हैं। उन्होंने साम्य के नियमों को संकलित किया, वर्गीकरण किया तथा शाश्वतता के विरुद्ध नियम का प्रतिपादन किया। इसी श्रृंखला में लार्ड हार्डविक तथा लार्ड एल्डन का साम्य को योगदान भी महत्वपूर्ण माना जाता है। इसी शताब्दी में साम्य ने मृत व्यक्तियों का प्रशासन भी अपने अधिकार में ले लिया। ‘ निर्वाचन’ (Election) , ‘निस्तारण’ (Satisfaction) एवं ‘विखण्डन’ (Ademption) आदि के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्त इसी पर आधारित हैं।

अठारहवीं शताब्दी-अठारहवीं शताब्दी तक साम्य अपने विकास की चरम सीमा पर पहुंच चुका था। इसी समय चान्सरी ने साम्य के अनेक महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया और इस शताब्दी के अन्त तक इसने एक नियत पद्धति का रूप धारण कर लिया। अब विधि-प्रतिवेदनों तथा पाठ्य-पुस्तकों में भी उसे स्थान दिया जाने लगा।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि ‘साम्या का न्यायालय’ तत्समय विधिक आवश्यकताओं  को पूरा किया तथा वाद के स्थापित न्यायालय अब भी साम्या का अनुसरण करते हैं। इसका कारण यह है कि कोई भी विधि पूर्ण नहीं हो सकती है और विधि का यह मूल सिद्धांत है कि किसी व्यक्ति को उपचारविहीन नहीं रहने दिया जायेगा।

  1. परामर्शदाता के शिक्षा सम्बन्धी उत्तरदायित्व | Educational Responsibilities of the Counselor in Hindi
  2. परामर्शदाता की विशेषताएँ | Characteristics of the Consultant in Hindi
  3. माता-पिता की परामर्श कार्यक्रम में भूमिका | The Role of Parents as a Counsellor in Hindi
  4. प्रधानाचार्य की परामर्शदाता के रूप में भूमिका | Role of the Principal as a Counselor in Hindi
  5. विद्यालय छात्रालयाध्यक्ष अर्थ एवं उसके गुण
  6. छात्रालयाध्यक्ष के कर्तव्य (Duties of Hostel warden)
  7. अभिवृत्ति का अर्थ और परिभाषा | Meaning and Definition of Attitude in Hindi
  8. अभिवृत्ति मापन की प्रविधियाँ | Techniques of Attitude Measurement in Hindi
  9. अभिक्षमता परीक्षण क्या है? | Aptitude Test in Hindi
  10. बुद्धि का अर्थ और परिभाषा | Meaning and Definition of Intelligence in Hindi
  11. बुद्धि के प्रमुख सिद्धान्त|Theories of Intelligence in Hindi
  12. बुद्धि परीक्षण – बुद्धि परीक्षणों के प्रकार, गुण, दोष, उपयोगिता – Buddhi Parikshan
  13. बुद्धि-लब्धि – बुद्धि लब्धि एवं बुद्धि का मापन – Buddhi Labdhi

इसे भी पढ़े ….

  1. निर्देशात्मक परामर्श- मूलभूत अवधारणाएँ, सोपान, विशेषताएं, गुण व दोष
  2. परामर्श के विविध तरीकों पर प्रकाश डालिए | Various methods of counseling in Hindi
  3. परामर्श के विविध स्तर | Different Levels of Counseling in Hindi
  4. परामर्श के लक्ष्य या उद्देश्य का विस्तार में वर्णन कीजिए।
  5. परामर्श का अर्थ, परिभाषा और प्रकृति | Meaning, Definition and Nature of Counselling in Hindi
  6. विद्यालय निर्देशन सेवा संगठन सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  7. विद्यालय निर्देशन सेवा संगठन के क्षेत्र का विस्तार में वर्णन कीजिए।
  8. विद्यालय में निर्देशन प्रक्रिया एवं कार्यक्रम संगठन का विश्लेषण कीजिए।
  9. परामर्श और निर्देशन में अंतर 
  10. विद्यालय निर्देशन सेवाओं के संगठन के आधार अथवा मूल तत्त्व
  11. निर्देशन प्रोग्राम | निर्देशन कार्य-विधि या विद्यालय निर्देशन सेवा का संगठन
  12. विद्यालय निर्देशन सेवा संगठन का अर्थ, परिभाषा, आवश्यकता एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
  13. निर्देशन का अर्थ, परिभाषा, तथा प्रकृति
  14. विद्यालय में निर्देशन सेवाओं के लिए सूचनाओं के प्रकार बताइए|
  15. वर्तमान भारत में निर्देशन सेवाओं की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।
  16. निर्देशन का क्षेत्र और आवश्यकता
  17. शैक्षिक दृष्टिकोण से निर्देशन का महत्व
  18. व्यक्तिगत निर्देशन (Personal Guidance) क्या हैं? 
  19. व्यावसायिक निर्देशन से आप क्या समझते हैं? व्यावसायिक निर्देशन की परिभाषा दीजिए।
  20. वृत्तिक सम्मेलन का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसकी क्रिया विधि का वर्णन कीजिए।
  21. व्यावसायिक निर्देशन की आवश्कता | Needs of Vocational Guidance in Education
  22. शैक्षिक निर्देशन के स्तर | Different Levels of Educational Guidance in Hindi
  23. शैक्षिक निर्देशन के उद्देश्य एवं आवश्यकता | 
  24. शैक्षिक निर्देशन का अर्थ एवं परिभाषा | क्षेत्र के आधार पर निर्देशन के प्रकार
  25. शिक्षण की विधियाँ – Methods of Teaching in Hindi
  26. शिक्षण प्रतिमान क्या है ? What is The Teaching Model in Hindi ?

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider.in does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment