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भारतीय लोकतंत्र के मूल सिद्धान्त Loktantra ke mool siddhaant in Hindi

भारतीय लोकतंत्र के मूल सिद्धान्त
भारतीय लोकतंत्र के मूल सिद्धान्त

भारतीय लोकतंत्र के मूल सिद्धान्त

भारतीय लोकतंत्र के मूल सिद्धान्त – लोकतंत्र के तीन मूल सिद्धान्त हैं – स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व। हमने अपने देश के लोकतंत्र में तीन सिद्धान्त और जोड़े हैं और वे हैं – न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता । मानव जीवनके किसी भी क्षेत्र में लोकतंत्र की स्थापना के लिए इनका पालन करना आवश्यक होता है।

स्वतंत्रता –

लोकतंत्र का सर्वप्रथम सिद्धान्त स्वतंत्रता है। इसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य संसार की बहुमूल्य वस्तु है, वह स्वतंत्र पैदा होता है और स्वतंत्र रहना चाहता है, अतः उसे अपने विकास से विचार करने और विचार अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। लोकतंत्र किसी मनुष्य को दूसरे मनुष्य पर, किसी समाज को दूसरे समाज पर अथवा किसी राज्य को दूसरे राज्य पर आधिपत्य जमाने का अधिकार नहीं देता। तब कहना न होगा कि लोकतंत्र में स्वतंत्रता का अर्थ अपनी स्वतंत्रता के साथ-साथ दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा करने में भी होता है।

समानता –

समानता लोकतंत्र का दूसरा मूल सिद्धान्त है। यह मनुष्य-मनुष्य में जाति, धर्म, लिंग और अर्थ आदि किसी भी आधार पर भेद नहीं करता। यह मनुष्य को उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र (राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक) के समान अधिकार देने पर बल देता है। शिक्षा के क्षेत्र में भी यह व्यक्ति-व्यक्ति में भेद नहीं करता और सबको अपना-अपना विकास करने के समान अवसर प्रदान करने पर बल देता है। परन्तु समान अधिकार के साथ समान कर्त्तव्य भी बंधे हैं, अतः अपने अधिकार की रक्षा हेतु मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन भी करना चाहिए। जब लोकतंत्र समानता की बात करता तो वह बिना किसी भेदभाव के राजनीतिक क्षेत्र में सबको मताधिकार देने पर बल देता है, सामाजिक क्षेत्र में सबको अपने-अपने विकास करने के समान अवसर प्रदान करने पर बल देता है। परन्तु समान अधिकार के साथ समान कर्त्तव्य भी बंधे हैं, अतः अपने अधिकार की रक्षा हेतु मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन भी करना चाहिए। जब लोकतंत्र समानता की बात करता तो वह बिना किसी भेदभाव के राजनीतिक क्षेत्र में सबको मताधिकार देने पर बल देता है, सामाजिक क्षेत्र में सबको अपने-अपने विकास के स्वतंत्र एवं समान अवसर प्रदान करने पर बल देता है आर्थिक क्षेत्र में समाज की प्रत्येक वस्तु पर समाज का समान अधिकार निश्चित करता है और सबको उत्पादन एवं उद्योग आदि के लिए समान सुविधाएँ देने की बात करता है, धार्मिक क्षेत्र में सबको अपने-अपने धर्म को मानने की स्वतंत्रता देता है और सांस्कृतिक क्षेत्र में सबको अपनी-अपनी संस्कृति के संरक्षण और विकास की स्वतंत्रता देता है। यह तभी सम्भव है जब लोग अपने हित के साथ दूसरों के हितों का भी ध्यान रखें।

भातृत्व –

लोकतंत्र मनुष्य के विचारों की भिन्नता का आदर करता है, इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को अपने धर्म और अपनी संस्कृति के अनुसार जीने की स्वतंत्रता देता है, परन्तु किसी भी स्थिति में किसी को दूसरे के मार्ग में बाधक नहीं बनाना चाहता । यह स्थिति तब ही पैदा हो सकती है जब हम जाति, धर्म, लिंग और अर्थ आदि के आधार पर विकसित किसी भी भेद को स्वीकार न करें, सब एक-दूसरे को अपना भाई समझें, सब एक-दूसरे से प्रेम करें और सब एक-दूसरे के विकास में सहयोग करें। इसे ही दूसरे शब्दों में भ्रातृत्व कहते हैं। लोकतंत्र मानव मात्र में इस भावना को देखना चाहता है। यह स्थिति तब ही पैदा हो सकती है जब हम जाति, धर्म, लिंग और अर्थ आदि के आधार पर विकसित किसी भी भेद को स्वीकार न करें, सब एक-दूसरे को अपना भाई समझें, सब एक-दूसरे से प्रेम करें और सब एक-दूसरे के विकास में सहयोग करें। इसे ही दूसरे शब्दों में भ्रातृत्व कहते हैं। लोकतंत्र मानव मात्र में इस भावना को देखना चाहता है। वह सह-अस्तित्व के सिद्धान्त में विश्वास करता है उसके अनुसार संसार की किसी भी समस्या का हल युद्ध द्वारा, अपितु विचार-विमर्श द्वरा समझौते करके किया जाना चाहिए।

न्याय

स्वतंत्रता मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है, समानता की मांग उसकी जागरूकता का प्रतीक है इस सबके लिए भ्रातृत्व के विकास की आवश्यकता होती है। परन्तु दूसरी ओर यह बात भी तो सत्य है कि मनुष्य पाश्विक वृत्तियाँ लेकर पैदा होता है, लाख प्रयत्न करने पर भी वह स्वार्थ के आगे परमार्थ को भूल जाता है और उस स्थिति में दूसरों के हितों की रक्षा नहीं होती। लोकतंत्र इस न्याय -स्थिति से निपटने के लिए न्याय की व्यवस्था करता है। उसके अनुसार विवाद की स्थिति में व्यक्ति अथवा समूह को अपने अधिकारों की रक्षा हेतु बिना किसी भेद के न्याय मिलना चाहिए। न्याय देना समाज अथवा राज्य का उत्तरदायित्व है।

समाजवाद –

समाजवाद शब्द का प्रयोग दो संदर्भो में किया जाता है – समाज की संरचना के संदर्भ और आर्थिक संदर्भ में। समाज की संरचना के संदर्भ में समाजवाद का अर्थ है वर्गविहीन समाज अर्थात् ऐसा समाज जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति में जाति, धर्म, संस्कृति, लिंग आदि किसी भी आधार पर भेद नहीं किया जाता, सब को समान दर्जा प्राप्त होता है। आर्थिक संदर्भ में समाजवाद तीन बातों पर बल देता है – पहली यह कि देश की संपूर्ण संपत्ति पर राज्य का स्वामित्व हो, दूसरी यह कि सभी व्यक्तियों को उनके श्रम के अनुसार पारिश्रमिक दिया जाये और तीसरी यह कि शारीरिक श्रम और बौद्धिक कार्यों के पारिश्रमिक में न्यूनतम अन्तर हो। परन्तु आज संसार में समाजवाद के कई रूप दिखाई देते हैं। भारतीय समाजवाद लोकतंत्रीय सिद्धान्तों और गांधी जी के सर्वोदय दर्शन पर आधारित वह समाजवाद है जो व्यक्ति-व्यक्ति में जाति, धर्म और अर्थ आदि किसी भी आधार पर भेद नहीं करता और व्यक्तियों के बीच की आर्थिक विशेषताओं को दूर करने के लिए बल प्रयोग एवं हिंसात्मक कार्यवाही के स्थान पर शान्तिपूर्ण तरीकों का समर्थन करता है।

धर्मनिरपेक्षता –

हमारे संविधान के अनुसार भारत में राष्ट्र धर्म नाम का कोई धर्म नहीं होगा। राज्य प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी धर्म पर आधारित नहीं होगा और वह धर्म के आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति में भेदभाव नहीं बरतेगा। लोगों को अपने-अपने धर्मों को मानने और उनका प्रचार-प्रसार करने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी परन्तु राज्य प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी धर्म के प्रचार कार्य में भाग नहीं लेगा यहाँ तक कि राज्य द्वारा संचालित या सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में किसी धर्म विशेष की शिक्षा नहीं दी जायेगी। हमारा भारतीय लोकतंत्र इसी धर्मनिरपेक्षता का हामी है।

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